doc_id
stringlengths
40
64
type
stringclasses
3 values
text
stringlengths
6k
1.05M
dd07d3ebadafe3f8f3a9dab0f7153110eaf9c9f1
web
सोमवार को, यह ज्ञात हो गया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद सीरिया में संकट को हल करने के लिए एक प्रस्ताव पर चर्चा जारी रखेगी। मोरक्को द्वारा इस बार प्रस्तावित गैर-दस्तावेज दस्तावेज़ के अगले मसौदे पर चर्चा की जाएगी। याद रखें कि पश्चिमी देशों द्वारा प्रस्तुत परियोजना के कई संस्करणों को रूसी संघ और चीन द्वारा वीटो कर दिया गया था, जिसके बाद रूस ने तीन बार अपनी परियोजना के विभिन्न संस्करण दायर किए, लेकिन एक समझौते तक नहीं पहुंचे। संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस अरब लीग के प्रस्ताव के लिए पैरवी करना जारी रखते हैं, जबकि चीन और रूस संघर्ष के शांतिपूर्ण रचनात्मक समाधान के लिए, मोटे तौर पर हस्तक्षेप के खिलाफ सीरिया के पक्ष में हैं। लीग ने बशर अल-असद को स्वेच्छा से पद छोड़ने के लिए बाध्य करने के लिए सीरिया के खिलाफ प्रतिबंध लगाने पर जोर दिया। यदि यह मदद नहीं करता है, तो अधिक कठोर कदम उठाने का प्रस्ताव है। वास्तव में, अफसोस, निर्दिष्ट नहीं है। लेकिन यह बहुत खतरनाक लगता है और लीबिया के परिदृश्य का सुझाव देता है। उल्लेखनीय रूप से पश्चिमी विशेषज्ञों की राय है जो व्यापक रूप से रूस की स्थिति को कवर करते हैं। उदाहरण के लिए, जर्मन विश्लेषकों का मानना है कि मॉस्को के हित सीरिया के वर्तमान राष्ट्रपति के साथ निकटता से जुड़े हुए हैं, जिन्होंने जॉर्जिया और चेचन्या में घटनाओं के बढ़ने के दौरान रूस का समर्थन किया था। इसके अलावा, रूसी संघ के लिए, सीरिया इस क्षेत्र में संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभाव के लिए एक शक्तिशाली भूराजनीतिक प्रतिकार का प्रतिनिधित्व करता है। यह कारक आज विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जब रूस ने मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में अपने अधिकांश सहयोगियों को खो दिया है, और स्थिति अधिक से अधिक गर्म हो रही है। पश्चिमी विश्लेषकों का सुझाव है कि रूस लीबिया के मामले की तुलना में सीरिया का बचाव करने में अधिक दृढ़ होगा, क्योंकि सीरिया, सैन्य-औद्योगिक परिसर के माध्यम से सहयोग के अलावा, जैसा कि गद्दाफी के साथ था, एक करीबी रणनीतिक साझेदार है। इसलिए, सबसे अधिक संभावना है, रूसी संघ राज्य में लोकतांत्रिक सिद्धांतों के विषय पर टिप्पणी करने के लिए, असद के हितों की रक्षा करना जारी रखेगा। जर्मन विशेषज्ञों का मानना है कि, हालांकि रूसी संघ सीरिया को हथियार बेचना जारी रखता है (यह हाल ही में घोषणा की गई थी कि याक सेनानियों को बेच दिया गया था), मामला प्रत्यक्ष सैन्य हस्तक्षेप के लिए नहीं आएगा। जैसा हो सकता है वैसा हो, लेकिन रूस की स्थिति वही है। रूसी संघ के प्रतिनिधियों द्वारा नई पश्चिमी परियोजना का मूल्यांकन भी कठिन था और इसलिए बिल्कुल अस्वीकार्य था। रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने सीरिया से अरब लीग पर्यवेक्षकों की वापसी पर आश्चर्य व्यक्त किया, कहा कि किसी भी अन्य देश की तरह रूसी संघ को भी असद को पद छोड़ने का आदेश देने का अधिकार नहीं है, और उन्होंने मास्को में सीरिया के तटस्थ क्षेत्र पर संघर्ष के लिए मुख्य दलों की वार्ता पर एक रचनात्मक प्रस्ताव भी सामने रखा। । जैसा कि यह अनुमान लगाया जाना चाहिए था, तीन घंटे की बहस के बाद रूस की स्थिति अटूट थी, इसलिए अगले बिल, सबसे अधिक संभावना है, पिछले लोगों के भाग्य का इंतजार है, क्योंकि अकेले रूसी वीटो इसे अस्वीकार करने के लिए पर्याप्त होगा। इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि पश्चिमी देश काफी आक्रामक थे। उदाहरण के लिए, यूके सरकार ने कहा है कि रूस के पास वीटो लगाने के लिए कोई तर्क नहीं है। वार्ता के लिए मास्को जाने के लिए सीरिया के विपक्षी बलों के इनकार के आधार पर बयान दिया गया था। अंग्रेजों का यह कथन अनुचित है, यदि केवल इसलिए कि इससे पहले उन्होंने रूसी संघ के ऐसे प्रस्तावों को व्यक्त नहीं किया था, और फिर भी, घटनाओं के तर्क के दृष्टिकोण से इसका तर्क काफी स्वीकार्य था। आंतरिक संघर्षों में सकल बाहरी हस्तक्षेप की स्थिति स्पष्ट रूप से लीबिया के साथ हाल के मामले से प्रदर्शित होती है। आधिकारिक पेरिस भी इससे अलग नहीं रहा। फ्रांस के विदेश मंत्री एलेन जूप्पे ने सर्गेई लावरोव को एक पत्र भेजा, जिसमें विशेष रूप से सीरिया में नागरिकों की रक्षा के लिए अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए सामान्य रूप से विश्व समुदाय और रूस को फ्रांस बुलाया गया। Надо сказать, что защита мирных жителей является особым приоритетом французских интересов. Именно заботой о благе мирных жителей аргументировались в своё время поставки оружия в Ливию. पैराशूट की मदद से हथियार को विभिन्न तरीकों से पहुंचाया गया था। गद्दाफी के प्रतिवाद की प्रशंसा की जानी चाहिए, उसने विमान गनरों को पकड़ने और एक सफल रेडियो गेम का संचालन करने में कामयाबी हासिल की, जिसके परिणामस्वरूप जुलाई 2011 में, फ्रांसीसी ने अपने हथियारों को एक सरकारी सैन्य इकाई के स्थान पर गिरा दिया। स्वाभाविक रूप से, यह सब वीडियो कैमरों पर फिल्माया गया था और सार्वजनिक अंतरराष्ट्रीय प्रचार प्राप्त किया था। प्रासंगिक संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के विपरीत, फ्रांस की कार्रवाइयों को सही ठहराने के लिए, विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता बर्नार्ड वलेरो ने कहा कि आपूर्ति नागरिकों के लिए घातक खतरे के कारण प्रतिबद्ध थी। उदाहरण के लिए, रक्षा कर्मियों का क्या संबंध था, अन्य हथियारों की संख्या में विरोधी कर्मियों की खदानें गिर गईं और वास्तव में नागरिक आबादी के लिए एक घातक खतरा पैदा हो गया, एक रहस्य बना हुआ है। फ्रांस द्वारा आपूर्ति किए गए हथियारों का आगे का भाग्य आज तक एक रहस्य बना हुआ है। इसका एक हिस्सा सीमा पार से चरमपंथियों के लिए भेज दिया गया था, यह हिस्सा रेगिस्तान और गैंगस्टर्स में चला गया, एक निश्चित हिस्सा विद्रोहियों और नागरिकों के साथ रहा, जो स्पष्ट कारणों से, वर्तमान सरकार से बार-बार फोन करने के बावजूद हथियार स्वीकार नहीं करते हैं। उपरोक्त के प्रकाश में, एक असमान निष्कर्ष निकालना संभव है कि रूसी विदेश मंत्रालय के प्रमुख के प्रस्ताव सभी मामलों में नागरिकों के लिए अधिक स्वीकार्य थे। इसलिए, फ्रांस की अपील पर, सर्गेई लावरोव ने जवाब दिया कि रूस का अपना मसौदा प्रस्ताव है, जो काफी हद तक अरब राज्यों की लीग की बुनियादी पहल के साथ मेल खाता है, जिसमें तीन मुख्य बिंदु शामिल हैंः दोनों पक्षों पर हिंसा की समाप्ति, बाहरी हस्तक्षेप की पक्षधरता और तटस्थ क्षेत्र पर सीरियाई संघर्ष के पक्षकारों की बातचीत। जैसा कि उम्मीद की जा रही थी, संयुक्त राज्य अमेरिका नई परियोजना की पैरवी करने में सबसे अधिक सक्रिय था। इसलिए दो दिनों के लिए हिलेरी क्लिंटन ने टेलीफोन द्वारा सर्गेई लावरोव से संपर्क करने की कोशिश की। उसे बहुत पछतावा हुआ, कोई फायदा नहीं हुआ। हालांकि, यदि वार्ता हुई, तो परिणाम की भविष्यवाणी करना मुश्किल नहीं है। अमेरिकी विदेश मंत्री का उपयोग करने के लिए किस तरह के तर्क का उद्देश्य इतना महत्वपूर्ण नहीं था। कुछ अन्य तथ्य बहुत अधिक दिलचस्प हैं, यह दर्शाता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के माध्यम से आवश्यक संकल्प के माध्यम से प्राप्त करने की संभावना में विश्वास खो दिया है और वर्कअराउंड की तलाश कर रहे हैं। अमेरिकी राष्ट्रीय खुफिया विभाग के प्रमुख जेम्स क्लैपर ने कल कहा था कि उनकी जानकारी के अनुसार, उत्तर कोरिया का इरादा सीरिया और ईरान को परमाणु प्रौद्योगिकी और संबंधित सामग्रियों के निर्यात को फिर से शुरू करने का है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह बयान डीपीआरके के खिलाफ इतना नहीं है, जितना सीरिया और ईरान के खिलाफ है। पसंदीदा अमेरिकी रणनीतिः पहले परमाणु हथियारों के साथ खतरनाक खेल का आरोप, और फिर अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के लिए चिंता की आड़ में, एक आक्रमण तैयार करें। इराक को याद करने के लिए पर्याप्त है - परमाणु हथियार वहां कभी नहीं पाए गए, लेकिन सरकार में - राज्यों को एक सुपर-लोकतांत्रिक और पूरी तरह से विनम्र कठपुतली। दिलचस्प बात यह है कि ईरान पर कई वर्षों से परमाणु हथियार बनाने के प्रयास का आरोप है, जबकि सीरिया पर अभी भी गुप्त रूप से अंतर्राष्ट्रीय दायित्वों का उल्लंघन करने का आरोप है। हाल ही में, वाशिंगटन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड नेशनल सिक्योरिटी (आईएसआईएस) ने जासूसी उपग्रहों द्वारा प्राप्त तस्वीरों की एक श्रृंखला प्रकाशित की, जो सीरिया की कुछ बहुत ही रहस्यमयी इमारतों को दर्शाती हैं। अमेरिकी विशेषज्ञों का कहना है कि इन इमारतों में अच्छी तरह से गुप्त परमाणु सुविधाएं हो सकती हैं। इस तरह के बयान काफी चिंताजनक हैं, हालांकि, इस दिशा में घटनाओं के आगे के पाठ्यक्रम की भविष्यवाणी करना मुश्किल है।
8a19296e9c9bce5b0032f09913acf03c80e2eafc84d0a25cff88b43c9c22b4e2
pdf
कुछ लोग समझते है कि अगर थोडे-से समझदार आदमियों के हाथ में अलगअलग शासन दे दिये जावे तो यह सारा झगड़ा, संघर्ष और दुःख मिट जाय। वे यह भी समझते है कि इस सारे झगडे की जड राजनीतिज्ञो की मूर्खता या दुष्टता है। उन का खयाल है कि भले आदमी इकट्ठे हो तो वे सदाचार के उपदेश देकर और भूल सुझाकर दुर्जनो की कायापलट कर सकते है । यह कल्पना बडी भ्रमपूर्ण है; क्योकि दोष व्यक्तियो का नहीं है, बुरी प्रथा का है। जबतक यह प्रथा बनी हुई है, इन व्यक्तियो का आचरण वैसा ही रहेगा जैसा अबतक रहा है । सत्ताधारी समूह दो तरह के होते है । एक तो विदेशी होकर दूसरे राष्ट्रो पर शासन करते है। दूसरे राष्ट्र के भीतर आर्थिक साधनोवाले लोग होते है । ये लोग अजीब आत्म-वचना और दम्भ से यह विश्वास कर लेते हैं कि उनके विशेषाधिकार उनकी योग्यता का उचित पुरस्कार है । जो कोई इस स्थिति को मानने से इन्कार करता है वह उन्हे दुष्ट, बदमाश और शान्ति भग करनेवाला मालूम होता है। किसी प्रभुता प्राप्त समूह को यह समझा सकना असम्भव है कि उसके विशेष अधिकार अन्यायपूर्ण है, और उन्हें उसे शान्तिपूर्वक छोड़ देना चाहिए । व्यक्ति फिर भी कभी और वह भी क्वचित् ही यह विश्वास कर सकते हैं, परन्तु समूह कभी नहीं कर सकते । इसलिए भिडन्त, संघर्ष और क्रान्ति और साथ-ही-साथ अनन्त कष्ट और दुख भी अनिवार्य रूप से आते है । दुनिया पर एक आख़िरी नज़र ७ अगस्त, १९३३ जबतक कलम, कागज और स्याही है तबतक चिट्टियाँ लिखने का कोई अन्त नहीं । और ससार की घटनाओ पर लिखने का भी कोई अन्त नही; क्योकि यह घटनाचक्र तो चलता ही रहता है और स्त्री, पुरुष और बच्चो का हंसना और रोना, आपस में प्रेम और घृणा करना और लडना झगडना कभी बन्द नहीं होता। यह कहानी जारी रहती है, उसका खात्मा ही नहीं होता। आज जिस जमाने में हम रहते है, जीवन का प्रवाह और भी गतिशील, उसकी रफ़्तार और भी तेज है और एक के बाद दूसरे परिवर्तन जल्दी जल्दी होते है । मेरे लिखते-लिखते परिवर्तन होरहे है और जो कुछ में आज लिख रहा हूँ वह शायद कल ही पुराना पड़ जाय । जीवन की नदी कभी स्थिर नहीं रहती । वह तो बहती ही रहती है। आज की भाँति कभी-कभी वह बहुत जोर से, निर्बंयता से, राक्षसी शक्ति से हमारे छोटे-छोटे इरादो और मनोरथो लिए लोकसत्ता की कल्पना का दुरुपयोग करना हुआ। अबतक सच्ची लोकसत्ता को तो अवसर ही नहीं मिला है, क्योकि पूंजीवादी प्रणाली और लोकसत्ता में मौलिक विरोध है । लोकसत्ता का कोई अर्थ होसकता है तो समानता होसकता है, और समानता भी केवल मताधिकार की ही नही बल्कि आर्थिक और सामाजिक समानता भी । पूंजीवाद का अर्थ इससे बिलकुल उलटा है। उसमें मुट्ठी भर लोगो के हाथ में आर्थिक सत्ता होती है और वे अपने ही फायदे के लिए उसका इस्तेमाल करते है। वे अपनी विशेषाधिकार पूर्ण स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए कानून बनाते है और जो कोई इन कानूनो को तोडता है वह शक्ति और व्यवस्था का भंग करने वाला ठहराया जाकर समाज के दण्ड का पात्र बनता है। इस तरह इस प्रणाली में समानता का नामोनिशान तक नहीं होता और जितनी-सी आजादी दी जाती है वह पूंजीवादी कानूनो की सत्ता के भीतर ही दीजाती है। इन कानूनो का उद्देश्य पूंजीवाद की रक्षा करना होता है। पूँजीवाद और लोकसत्ता के बीच का सघर्ष आन्तरिक और स्थायी है। अक्सर भ्रमपूर्ण प्रचार और पार्लमेण्ट वगैरा लोकसत्ता के बाहरी स्वरूप के कारण यह संघर्ष छिपा रहता है । मालिक-वर्ग के लोग दूसरे वर्गों को थोड़ा बहुत सन्तुष्ट रखने के लिए टुकडे भी फेंकते रहते है। ऐसा समय भी आजाता है कि फेंकने के लिए टुकडे नहीं बचते । उस वक्त दोनो दलो में सघर्ष खूब जोर का होता है। क्योकि उस समय युद्ध असली चीज के लिए, यानी शासन में आर्थिक सत्ता हासिल करने के लिए, होता है । जब यह नौबत आती है तो पूँजीवाद के सारे हिमायती, जो अबतक अलग-अलग बलो के साथ खिलवाड करते रहे है, अपने स्थायी स्वार्थों के खतरे का मुकाबिला करने के लिए एक होजाते हैं। उदार और इसी तरह के दूसरे दल गायब होजाते है और लोकसत्ता के कायदे तान में रख दिये जाते है । योरप और अमेरिका में यह नौबत आ पहुँची है, फैसिज्म का अधिकाश देशो में किसी-न-किसी रूप में बोलबाला हो चला है और यह उस नौबत को निशानी है। मजदूर-दल सब जगह अपना बचाव कर रहा है। उसमें पूंजीवादी शक्तियो के इस नये और जबरदस्त सगठन का मुकाबिला करने की ताकत नहीं है। फिर भी अजीब बात यह है कि पूंजीवाद की इमारत खुद लड़खडा रही है और वह अपने आपको नई दुनिया के अनुकूल नही बना सकती । यह निश्चित दिखाई देता है कि पूंजीवाद किसी तरह जीवित रह भी गया तो उसका स्वरूप बहुत ही बदला हुआ और कठोर होगा। यह भी लम्बे सघर्ष में एक दूसरी मज़िल होगी; क्योकि पूँजीवाद के किसी भी रूप में आधुनिक उद्योग ही क्या, आधुनिक जीवन तक ऐसा युद्धक्षेत्र रहेगा जिसमें सेनाओ की आपस में सदा भिड़न्त होती रहेगी । जर्मनी या शत्रु सेना के अधिकार में हारे हुए युद्ध क्षेत्र में भी नहीं हुआ है। आज ब्रिटिश राज्य में सचमुच हमारी ऐसी हालत होगई है कि हमें जाने-आने के लिए भी छुट्टी का परवाना लेना पड़ता है और हमारे सीमाप्रान्त के उसपार हमारे पडोसियो पर ब्रिटिश वायुयान बम वर्षा कर रहे है । • दूसरे देशो में हमारे देशवासियों की कोई इज्जत नहीं की जाती । उनका शायद ही कही स्वागत हो। इसमें कोई आश्चर्य की बात भी नहीं है; क्योकि जिनका आदर घर पर हो न हो उनका बाहर कैसे हो सकता है ? दक्षिण अफरीका में वे जन्मे और पले और वहाँके कुछ हिस्सो को, खास तौर पर नेटाल को, उन्होने अपनी मेहनत से बनाया था; पर वहाँसे भी उन्हें निकाला जा रहा है। रंग-भेद, जातीय द्वेष और आर्थिक संघर्ष, सबने मिलकर दक्षिण अफरीका के इन हिन्दुस्तानियो को ऐसा अछूत-सा बना दिया है, जिनका न कोई घर है और न जिन्हे कहीं शरण मिल सकती है । दक्षिणअफरीका की यूनियन सरकार उन्हे कहती है कि दक्षिण अफ़रीका को सदा के लिए छोड़ वो । तुम्हे जहाज में बिठाकर कही दूसरी जगह भेज दिया जायगा । फिर भले ही तुम ब्रिटिश गायना में जाओ, हिन्दुस्तान में वापस जाओ, या और कहीं जाओ, और भले ही भूखो मरो । पूर्वी अफरीका में केनिया और चौतरफ के इलाको को बनाने में हिन्दुस्तानियो का बड़ा हिस्सा रहा है। लेकिन वहाँ भी उनका रहना पसन्द नहीं किया जाता । इसलिए नही कि अफरीका के बाशिन्दों को आपत्ति है, बल्कि इसलिए कि मुट्ठीभर यूरोपियन बगीचेवाले नहीं चाहते। वहाँके अच्छे-से-अच्छे यानी पहाडी प्रदेश इन बगीचेवालो के लिए सुरक्षित है। वहाँ अफरीकन और हिन्दुस्तानी जमीन नहीं खरीद सकते । बेचारे अफरीकनो की तो बहुत ही बुरी हालत है। शुरू में सारी जमीन उनके कब्जे में थी और यही उनकी आमदनी का जरिया था। इस जमीन के बडे-बडे टुकडे सरकार ने जब्त कर लिये और योरप से आकर बसनेवालो को मुफ्त देदिये। आजकल ये बगीचेवाले बडे-बडे जमींदार होगये है। उन्हे आय कर नहीं देना पड़ता और दूसरे कर भी ये शायद ही देते हो। कर का लगभग सारा भार गरीब पददलित अफरीकनो पर पड़ता है। उनपर कर लगाना आसान काम नहीं है, क्योंकि उनके पास कुछ होता ही नहीं। इसलिए आटा और कपडे जैसी खिन्दगी की कुछ जरूरी चीजो पर कर लगाया गया और जब वे उन्हे खरीदते तो अप्रत्यक्ष रूपसे उन्हे यह कर भी चुकाना पड़ता। लेकिन सबसे गैरमामूली टैक्स, और वह भी सीधा टैक्स, यह था कि प्रत्येक घर और १६ वर्षसे ऊपर के हरेक स्त्री-पुरुष पर कर लगा दिया गया। कर लगाने का उसूल यह है कि लोग जो कमाबें या जो कुछ उनके पास हो उसपर कर लगाया जाय । अफरीकनो के पास की उपेक्षा करती हुई, हमारी तुच्छताओ का निर्दय उपहास करती हुई, और हमें अपनी उत्ताल तरगो पर तिनको की तरह इधर-उधर फेंकती हुई आगे बढ़ती है । यह जीवन को नदी आगे कहाँ जायगी, इसका किसीको पता नहीं । किसी बडी और पैनी चट्टान से टकराकर सहत्र धाराओ में बँट जायगी या उस विशाल, गम्भीर, गौरवशाली, शान्त, सदापरिवर्तनशील और फिर भी कभी न बदलनेवाले समुद्र में जा समावेगी ? जितना लिखने का मैने कभी इरादा किया था, या जितना मुझे लिखना चाहिए था, उससे कहीं ज्यादा में अबतक लिख चुका हूँ । मेरी लेखनी चलती हो रही है । अब हम अपना लम्बा चक्कर काट चुके है और आखिरी मंजिल तय कर चुके है । आज के बीच में पहुँच चुके है और कल के किनारे पर खडे हुए अचरज कर रहे है कि जब इस फल को भी आज बनने की बारी आयगी तब इसकी क्या शक्ल होगी ? जरा देर व्हरकर संसार पर एक दृष्टिपात करे । १९३३ के साल के अगस्त मात के सातवें दिन इसका क्या हाल है ? हिन्दुस्तान में बापू फिर गिरफ्तार होगये है और सजा पाकर यरवडा जेल में वापस पहुँच गये है । सीमित रूप में ही सही, सविनयअवज्ञा फिर शुरू होगई है और हमारे साथी फिर जेल जा रहे है । एक वीर और प्रिय साथी और मित्र हमें अभी-अभी छोड़कर चल बसा । वह ब्रिटिश सरकार की कैद में मरा है। उससे मै पहलेपहल २५ वर्ष पहले, जब में केम्ब्रिज में गया हो गया था, मिला था । वह थे यतीन्द्रमोहन सेनगुप्त । जीवन मृत्यु में समा जाता है, परन्तु भारतवासियो के लिए जीवन को जीने योग्य बनाने का महान कार्य जारी है। हिन्दुस्तान के हजारो अत्यन्त जोशीले और प्रतिभाशाली पुत्र और पुत्रियाँ जेल या नजरबन्दी में पडे है । वे लोग अपना यौवन और बल हिन्दुस्तान को गुलाम बनानेवाली वर्तमान प्रणाली से जूझने में खर्च कर रहे है । यह जीवन और शक्ति निर्माण में, रचनात्मक कार्य में लगी होतो इस दुनिया में कितना काम बाकी पड़ा है। परन्तु रचना से पहले नाश करना हो पडता है, ताकि नई इमारत के लिए जमीन साफ होजाय । हम किसी घूरे की कच्ची दीवारो पर बढिया इमारत खडी नहीं कर सकते । हिन्दुस्तान की आज की स्थिति का अन्दाजा इस बात से बहुत अच्छी तरह लगाया जा सकता है कि बंगाल के कुछ भागो में कपडे भी सरकारी आज्ञा के अनुसार पहनने पड़ते है । दूसरी तरह की पोशाक पहनने का अर्थ होता है जेलखाने जाना । चटगाँव में बारह बारह बरत और उससे ऊपर के छोटे-छोटे लड़को को (और शायद लड़कियो को भी) जहाँ कहीं जाना होता है वहा अपनी शिनाख्त के कार्ड ले जाना पड़ता है। मुझे मालूस नहीं कि ऐसी असाधारण आज्ञा और भो कहीं जारी की गई है या नहीं। ऐसा तो शायद नाजियो के खास टुकडे में बहुत सोना मिले या न मिले यह उसके भाग्य पर निर्भर है। यह तरीका पूंजीवाद का नमूना है । वैसे होना तो यह चाहिए कि देश की सरकार सोने के क्षेत्र को अपने हाथ में लेले और सारे राज्य के फायदे के लिए उसपर काम करावे । ताजिकिस्तान और दूसरी जगहों के अपने यहाँके सोने के क्षेत्रों के बारे में सोवियट सरकार ऐसा ही कर रही है । इस अन्तिम विहगावलोकन में मैने तुम्हे केनिया का कुछ हाल बताया है, क्योकि इन खतो में हमने अफरीका की उपेक्षा की है। याद रहे कि यह एक विशाल महादेश है और इसमें अफरीकन जातियाँ भरी पडी है । इन जातियों का विदेशी लोग सैकडो वर्षो से आजतक निर्दय शोषण कर रहे है । ये बुरी तरह पिछडी हुई जातियाँ है । लेकिन उन्हें दबाकर रक्खा गया है और आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया गया है। जहाँ उन्हे अवसर दिया गया है, जैसा कि पश्चिमी किनारे पर स्थापित एक विश्वविद्यालय में अभी-अभी हुआ है, वहाँ उन्होने अच्छी तरक्की की है । पश्चिमी एशिया के देशो का हाल तो मैं तुम्हे काफी बता चुका हूँ। वहॉपर और मिस्र में आजादी की लड़ाई मुख्तलिफ सुरतो में और भिन्न-भिन्न स्थितियो में चल रही है। यही हाल दक्षिण-पूर्वी एशिया का, भारत के उसपार के देशो का और इण्डोनेशिया यानी स्याम, इण्डोचीन, जावा, सुमात्रा, डचइण्डीज और फिलिपाईन द्वीपो का है। इनमें से स्याम तो स्वतंत्र है। उसके सिवा इन सब देशो में आन्दोलन के दो पहलू है। एक तो विदेशी शासन के विरुद्ध राष्ट्रीय भावना और दूसरा सामाजिक समानता या कम-से-कम आर्थिक सुधार के लिए दलित वर्ग की तड़प । एशिया के सुदूरपूर्व में विशाल चीन हमला करनेवालो के सामने निस्सहाय हो रहा है और भीतरी फूट के कारण उसके टुकड़े-टुकडे होरहे है। उसका एक अंग तो कुछ करना चाहता है और दूसरे ने इस ओर से मुंह फेर रक्खा है। इस बीच में जापान आगे बढ़ता जारहा है। उसे कोई रोकनेवाला नहीं दीखता और वह चीन के बडे-बडे इलाको पर अपना पजा जमाता जारहा है। लेकिन चीन के लम्बे इतिहास में उसपर कितनी ही बार जबर्दस्त हमले हुए है और बडी आफते आई है। फिर भी उसकी हस्ती कायम रही है। अवश्य ही जापानी हमले के बाद भी चीन जिन्दा रहेगा। साम्राज्यवादी जापान विश्वव्यापी साम्राज्य के बडे-बडे सपने देख रहा है। वहाँ एक तरफ सामन्तशाही और सैनिकवाद का जोर है और दूसरी ओर उसके उद्योगधन्धे बहुत बढ़े चढ़े है । वह नये और पुराने की अजीब खिचडी है । परन्तु इन सपनो में एक असली खतरा छिपा हुआ है, और वह यह है कि उसकी बढ़ती हुई आबादी भयंकर कष्ट में है और उसकी आर्थिक स्थिति गिरती जारही है। इस आबादी को
8bfe87fee4d853fa30d564d7a63e75546b0e974c
web
रज़ाक ख़ान (या रज़्ज़ाक ख़ान) (निधन १ जून २०१६) एक भारतीय बॉलीवुड अभिनेता थे जिनका निधन ०१ जून २०१६ को मुम्बई,महाराष्ट्र में दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। ख़ान सहायक रोल में कॉमेडियन के लिए काफी प्रसिद्ध हुए थे। ख़ान अपने कॉमिक रोल के लिए अब्बास-मस्तान की फ़िल्म बादशाह के लिए काफी जाने माने बन गए थे। . चाहत (1996 फ़िल्म) चाहत 1996 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . चोर मचाये शोर (2002 फ़िल्म) चोर मचाये शोर 2002 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . तरकीब (2000 फ़िल्म) तरकीब 2000 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . तुमको ना भूल पायेंगे (2002 फ़िल्म) तुमको ना भूल पायेंगे 2002 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . दरार (1996 फ़िल्म) दरार 1996 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . दिल का दौरा या हृदयाघात दिल की एक बीमारी है। श्रेणीःरोग. दुबई रिटर्न (2005 फ़िल्म) दुबई रिटर्न 2005 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . दैनिक भास्कर भारत का एक प्रमुख हिंदी दैनिक समाचारपत्र है। भारत के 12 राज्यों (व संघ-क्षेत्रों) में इसके 37 संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं। भास्कर समूह के प्रकाशनों में दिव्य भास्कर (गुजराती) और डीएनए (अंग्रेजी) और पत्रिका अहा ज़िंदगी भी शामिल हैं। 2015 में यह देश का सबसे अधिक पढ़ा जाने वाला अखबार बना। . दैनिक जागरण उत्तर भारत का सर्वाधिक लोकप्रिय समाचारपत्र है। पिछले कई वर्षोँ से यह भारत में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाला समाचार-पत्र बन गया है। यह समाचारपत्र विश्व का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला दैनिक है। इस बात की पुष्टि विश्व समाचारपत्र संघ (वैन) द्वारा की गई है। वर्ष 2008 में बीबीसी और रॉयटर्स की नामावली के अनुसार यह प्रतिवेदित किया गया कि यह भारत में समाचारों का सबसे विश्वसनीय स्रोत दैनिक जागरण है। . नायक (2001 फ़िल्म) नायक 2001 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . नो एन्ट्री (२००५ फिल्म) नो एन्ट्री २००५ में बनी हिन्दी भाषा का एक हास्य चलचित्र है। इसके निर्देशक अनीस बाज्मी और निर्माता बोनी कपूर हैं। इसमें मुख्य भुमिका में हैं - सलमान खान, अनिल कपूर, फ़रदीन खान, लारा दत्ता, सेलिना जेठली, ईशा देओल और बिपाशा बसु। समीरा रेड्डी विशेष भूमिका में हैं। यह चलचित्र को एक तमिल चलचित्र चार्ली चैपलिन पर आधारित है। . पापा द ग्रेट (2000 फ़िल्म) पापा द ग्रेट 2000 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . पापी गुड़िया लॉरेंस डिसूज़ा द्वारा निर्देशित 1996 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। इसमें प्रमुख भूमिकाओं में करिश्मा कपूर, अविनाश वाधवन, टीनू आनंद और शक्ति कपूर हैं। . प्यार किया तो डरना क्या (1998 फ़िल्म) प्यार किया तो डरना क्या 1998 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . फूल एन फाइनल (२००७ फ़िल्म) फूल एन फाइनल 2007 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . बादशाह (1999 फ़िल्म) बादशाह 1999 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . बाज़ (2003 फ़िल्म) बाज़ 2003 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . बांद्रा के कई अर्थ हो सकते हैंः-. बेटी नम्बर वन (2000 फ़िल्म) बेटी नम्बर वन 2000 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . बॉलीवुड हंगामा (पहले इण्डियाएफएम अथवा इण्डियाएफएम डॉट कॉम नाम से प्रचलित) बॉलीवुड की प्रमुख मनोरंजन वेबसाइट है, जो "हंगामा डिजिटल मीडिया एंटरटेनमेंट" के अधीन है, जिसने इस बॉलीवुड पोर्टल का अधिग्रहण सन् 2000 में किया। यह वेबसाइट भारतीय फ़िल्म उद्योग, मुख्य रूप से बॉलीवुड, फ़िल्म समीक्षाएँ एवं बॉक्स ऑफिस रपट से सम्बंधित समाचार प्रकाशित करती है। इसका प्रमोचन 15 जून 1998 में मूल नाम इण्डियाएफएम डॉट कॉम (indiafm.com) से हुआ। 2008 में इसने अपना नाम बदलकर "बॉलीवुड हंगामा" रख लिया। जनवरी 2013 के आँकड़ों के अनुसार इसकी यातायात वर्ग भारत में 444 है। . भारत (आधिकारिक नामः भारत गणराज्य, Republic of India) दक्षिण एशिया में स्थित भारतीय उपमहाद्वीप का सबसे बड़ा देश है। पूर्ण रूप से उत्तरी गोलार्ध में स्थित भारत, भौगोलिक दृष्टि से विश्व में सातवाँ सबसे बड़ा और जनसंख्या के दृष्टिकोण से दूसरा सबसे बड़ा देश है। भारत के पश्चिम में पाकिस्तान, उत्तर-पूर्व में चीन, नेपाल और भूटान, पूर्व में बांग्लादेश और म्यान्मार स्थित हैं। हिन्द महासागर में इसके दक्षिण पश्चिम में मालदीव, दक्षिण में श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व में इंडोनेशिया से भारत की सामुद्रिक सीमा लगती है। इसके उत्तर की भौतिक सीमा हिमालय पर्वत से और दक्षिण में हिन्द महासागर से लगी हुई है। पूर्व में बंगाल की खाड़ी है तथा पश्चिम में अरब सागर हैं। प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता, व्यापार मार्गों और बड़े-बड़े साम्राज्यों का विकास-स्थान रहे भारतीय उपमहाद्वीप को इसके सांस्कृतिक और आर्थिक सफलता के लंबे इतिहास के लिये जाना जाता रहा है। चार प्रमुख संप्रदायोंः हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्मों का यहां उदय हुआ, पारसी, यहूदी, ईसाई, और मुस्लिम धर्म प्रथम सहस्राब्दी में यहां पहुचे और यहां की विविध संस्कृति को नया रूप दिया। क्रमिक विजयों के परिणामस्वरूप ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी ने १८वीं और १९वीं सदी में भारत के ज़्यादतर हिस्सों को अपने राज्य में मिला लिया। १८५७ के विफल विद्रोह के बाद भारत के प्रशासन का भार ब्रिटिश सरकार ने अपने ऊपर ले लिया। ब्रिटिश भारत के रूप में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रमुख अंग भारत ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में एक लम्बे और मुख्य रूप से अहिंसक स्वतन्त्रता संग्राम के बाद १५ अगस्त १९४७ को आज़ादी पाई। १९५० में लागू हुए नये संविधान में इसे सार्वजनिक वयस्क मताधिकार के आधार पर स्थापित संवैधानिक लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित कर दिया गया और युनाईटेड किंगडम की तर्ज़ पर वेस्टमिंस्टर शैली की संसदीय सरकार स्थापित की गयी। एक संघीय राष्ट्र, भारत को २९ राज्यों और ७ संघ शासित प्रदेशों में गठित किया गया है। लम्बे समय तक समाजवादी आर्थिक नीतियों का पालन करने के बाद 1991 के पश्चात् भारत ने उदारीकरण और वैश्वीकरण की नयी नीतियों के आधार पर सार्थक आर्थिक और सामाजिक प्रगति की है। ३३ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के साथ भारत भौगोलिक क्षेत्रफल के आधार पर विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था क्रय शक्ति समता के आधार पर विश्व की तीसरी और मानक मूल्यों के आधार पर विश्व की दसवीं सबसे बडी अर्थव्यवस्था है। १९९१ के बाज़ार-आधारित सुधारों के बाद भारत विश्व की सबसे तेज़ विकसित होती बड़ी अर्थ-व्यवस्थाओं में से एक हो गया है और इसे एक नव-औद्योगिकृत राष्ट्र माना जाता है। परंतु भारत के सामने अभी भी गरीबी, भ्रष्टाचार, कुपोषण, अपर्याप्त सार्वजनिक स्वास्थ्य-सेवा और आतंकवाद की चुनौतियां हैं। आज भारत एक विविध, बहुभाषी, और बहु-जातीय समाज है और भारतीय सेना एक क्षेत्रीय शक्ति है। . भारत देश के निवासियों को भारतीय कहा जाता है। भारत को हिन्दुस्तान नाम से भी पुकारा जाता है और इसीलिये भारतीयों को हिन्दुस्तानी भी कहतें है।. भागम भाग (2006 फ़िल्म) भागम भाग 2006 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . महाराष्ट्र भारत का एक राज्य है जो भारत के दक्षिण मध्य में स्थित है। इसकी गिनती भारत के सबसे धनी राज्यों में की जाती है। इसकी राजधानी मुंबई है जो भारत का सबसे बड़ा शहर और देश की आर्थिक राजधानी के रूप में भी जानी जाती है। और यहाँ का पुणे शहर भी भारत के बड़े महानगरों में गिना जाता है। यहाँ का पुणे शहर भारत का छठवाँ सबसे बड़ा शहर है। महाराष्ट्र की जनसंख्या सन २०११ में ११,२३,७२,९७२ थी, विश्व में सिर्फ़ ग्यारह ऐसे देश हैं जिनकी जनसंख्या महाराष्ट्र से ज़्यादा है। इस राज्य का निर्माण १ मई, १९६० को मराठी भाषी लोगों की माँग पर की गयी थी। यहां मराठी ज्यादा बोली जाती है। मुबई अहमदनगर पुणे, औरंगाबाद, कोल्हापूर, नाशिक नागपुर ठाणे शिर्डी-अहमदनगर आैर महाराष्ट्र के अन्य मुख्य शहर हैं। . मिस्टर प्राइम मिनिस्टर (2005 फ़िल्म) मिस्टर प्राइम मिनिस्टर 2005 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . मुझे मेरी बीवी से बचाओ (2001 फ़िल्म) मुझे मेरी बीवी से बचाओ 2001 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . भारत के पश्चिमी तट पर स्थित मुंंबई (पूर्व नाम बम्बई), भारतीय राज्य महाराष्ट्र की राजधानी है। इसकी अनुमानित जनसंख्या ३ करोड़ २९ लाख है जो देश की पहली सर्वाधिक आबादी वाली नगरी है। इसका गठन लावा निर्मित सात छोटे-छोटे द्वीपों द्वारा हुआ है एवं यह पुल द्वारा प्रमुख भू-खंड के साथ जुड़ा हुआ है। मुम्बई बन्दरगाह भारतवर्ष का सर्वश्रेष्ठ सामुद्रिक बन्दरगाह है। मुम्बई का तट कटा-फटा है जिसके कारण इसका पोताश्रय प्राकृतिक एवं सुरक्षित है। यूरोप, अमेरिका, अफ़्रीका आदि पश्चिमी देशों से जलमार्ग या वायुमार्ग से आनेवाले जहाज यात्री एवं पर्यटक सर्वप्रथम मुम्बई ही आते हैं इसलिए मुम्बई को भारत का प्रवेशद्वार कहा जाता है। मुम्बई भारत का सर्ववृहत्तम वाणिज्यिक केन्द्र है। जिसकी भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 5% की भागीदारी है। यह सम्पूर्ण भारत के औद्योगिक उत्पाद का 25%, नौवहन व्यापार का 40%, एवं भारतीय अर्थ व्यवस्था के पूंजी लेनदेन का 70% भागीदार है। मुंबई विश्व के सर्वोच्च दस वाणिज्यिक केन्द्रों में से एक है। भारत के अधिकांश बैंक एवं सौदागरी कार्यालयों के प्रमुख कार्यालय एवं कई महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान जैसे भारतीय रिज़र्व बैंक, बम्बई स्टॉक एक्स्चेंज, नेशनल स्टऑक एक्स्चेंज एवं अनेक भारतीय कम्पनियों के निगमित मुख्यालय तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियां मुम्बई में अवस्थित हैं। इसलिए इसे भारत की आर्थिक राजधानी भी कहते हैं। नगर में भारत का हिन्दी चलचित्र एवं दूरदर्शन उद्योग भी है, जो बॉलीवुड नाम से प्रसिद्ध है। मुंबई की व्यवसायिक अपॊर्ट्युनिटी, व उच्च जीवन स्तर पूरे भारतवर्ष भर के लोगों को आकर्षित करती है, जिसके कारण यह नगर विभिन्न समाजों व संस्कृतियों का मिश्रण बन गया है। मुंबई पत्तन भारत के लगभग आधे समुद्री माल की आवाजाही करता है। . मेरे जीवन साथी (2006 फ़िल्म) मेरे जीवन साथी 2006 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . यूँ होता तो क्या होता (2006 फ़िल्म) यूँ होता तो क्या होता 2006 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . लकीर (2004 फ़िल्म) लकीर 2004 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . लेडीज़ टेलर (2006 फ़िल्म) लेडीज़ टेलर 2006 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . लोहा (1997 फ़िल्म) लोहा 1997 में बनी निर्देशक कांति शाह की एक्शन-ड्रामा आधारित हिन्दी भाषा की फिल्म है। फिल्म की मुख्य भूमिकाओं में धर्मेन्द्र, मिथुन चक्रवर्ती, शक्ति कपूर, मोहन जोशी और किरन कुमार ने अभिनय किया है। निर्देशक कांति शाह ने इसी फिल्म के मुख्य अभिनेता मिथुन एवं अन्य चरित्र कलाकारों के साथ लघु बजट की गुण्डा फिल्म बनाई जो समीक्षक रूप से नाकारत्मक रही लेकिन विशेष दर्शकों की पसंद से संक्षिप्त रूप में सफल इसे कल्ट फिल्म घोषित किया गया। . शिकारी (2000 फ़िल्म) शिकारी 2000 की एन चन्द्रा द्वारा निर्देशित हिन्दी भाषा की थ्रिलर फिल्म है। इसमें गोविन्दा, करिश्मा कपूर, तबु, किरण कुमार, जॉनी लीवर, सुषमा सेठ, श्वेता मेनन और निर्मल पांडे मुख्य कलाकार हैं। गोविन्दा ने नकारात्मक भूमिका निभाई। . सनम (1997 फ़िल्म) सनम 1997 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . सुनो ससुर जी (2004 फ़िल्म) सुनो ससुर जी 2004 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . हमारा दिल आपके पास है 2000 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . हर दिल जो प्यार करेगा सन् 2000 की राज कँवर द्वारा निर्देशित हिन्दी भाषा की प्रेमकहानी फ़िल्म है। फिल्म में सलमान खान, प्रीति जिंटा और रानी मुखर्जी हैं और साथ ही इसमें शाहरुख खान की विशेष उपस्थिति है। आलोचकों ने इसकी अत्यधिक सराहना की और सलमान खान-साजिद नाडियाडवाला (निर्माता) सहभागिता की ये लगातार तीसरी हिट फिल्म हुई। यह साल का चौथी सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म बनी। . हसीना मान जायेगी (1999 फ़िल्म) हसीना मान जायेगी 1999 की डेविड धवन द्वारा निर्देशित हिन्दी भाषा की कॉमेडी फ़िल्म है। इसमें संजय दत्त, गोविन्दा, करिश्मा कपूर, पूजा बत्रा, अनुपम खेर, कादर ख़ान, अरुणा ईरानी और परेश रावल हैं। यह फिल्म 1966 की फिल्म प्यार किये जा द्वारा प्रेरित है और 1999 की पांचवीं सबसे ज्यादा कमाई करने वाली हिंदी फिल्म बन गई। . हिन्दी सिनेमा, जिसे बॉलीवुड के नाम से भी जाना जाता है, हिन्दी भाषा में फ़िल्म बनाने का उद्योग है। बॉलीवुड नाम अंग्रेज़ी सिनेमा उद्योग हॉलिवुड के तर्ज़ पर रखा गया है। हिन्दी फ़िल्म उद्योग मुख्यतः मुम्बई शहर में बसा है। ये फ़िल्में हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और दुनिया के कई देशों के लोगों के दिलों की धड़कन हैं। हर फ़िल्म में कई संगीतमय गाने होते हैं। इन फ़िल्मों में हिन्दी की "हिन्दुस्तानी" शैली का चलन है। हिन्दी और उर्दू (खड़ीबोली) के साथ साथ अवधी, बम्बईया हिन्दी, भोजपुरी, राजस्थानी जैसी बोलियाँ भी संवाद और गानों में उपयुक्त होते हैं। प्यार, देशभक्ति, परिवार, अपराध, भय, इत्यादि मुख्य विषय होते हैं। ज़्यादातर गाने उर्दू शायरी पर आधारित होते हैं।भारत में सबसे बड़ी फिल्म निर्माताओं में से एक, शुद्ध बॉक्स ऑफिस राजस्व का 43% का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि तमिल और तेलुगू सिनेमा 36% का प्रतिनिधित्व करते हैं,क्षेत्रीय सिनेमा के बाकी 2014 के रूप में 21% का गठन है। बॉलीवुड भी दुनिया में फिल्म निर्माण के सबसे बड़े केंद्रों में से एक है। बॉलीवुड कार्यरत लोगों की संख्या और निर्मित फिल्मों की संख्या के मामले में दुनिया में सबसे बड़ी फिल्म उद्योगों में से एक है।Matusitz, जे, और पायानो, पी के अनुसार, वर्ष 2011 में 3.5 अरब से अधिक टिकट ग्लोब जो तुलना में हॉलीवुड 900,000 से अधिक टिकट है भर में बेच दिया गया था। बॉलीवुड 1969 में भारतीय सिनेमा में निर्मित फिल्मों की कुल के बाहर 2014 में 252 फिल्मों का निर्माण। . हंगामा (2003 फ़िल्म) हंगामा 2003 में बनी हिन्दी भाषा की कॉमेडी फिल्म है। इसका निर्देशन प्रियदर्शन ने किया। . हैलो ब्रदर (1999 फ़िल्म) हैलो ब्रदर 1999 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . हो जाता है प्यार (2005 फ़िल्म) हो जाता है प्यार 2005 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . हीरालाल पन्नालाल (1999 फ़िल्म) हीरालाल पन्नालाल 1999 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . जोरू का गुलाम (2000 फ़िल्म) जोरू का गुलाम 2000 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . घरवाली बाहरवाली (1998 फ़िल्म) घरवाली बाहरवाली 1998 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . विस्फोट (2002 फ़िल्म) विस्फोट 2002 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . खिलाड़ी ४२० (2000 फ़िल्म) खिलाड़ी ४२० 2000 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . खुल्लम खुल्ला प्यार करें (2005 फ़िल्म) खुल्लम खुल्ला प्यार करें 2005 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . इसकी टोपी उसके सर (1998 फ़िल्म) इसकी टोपी उसके सर 1998 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . कारतूस (1999 फ़िल्म) कारतूस 1999 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . कितने दूर कितने पास (2002 फ़िल्म) कितने दूर कितने पास 2002 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . कुछ तो है (2003 फ़िल्म) कुछ तो है 2003 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . कुछ ना कहो हिन्दुस्तानी फ़िल्म है। इस फ़िल्म में ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन हैं। इस फ़िल्म का संगीत बहुत अच्छा है। श्रेणीः2003 में बनी हिन्दी फ़िल्म. कुछ खट्टी कुछ मीठी (2001 फ़िल्म) कुछ खट्टी कुछ मीठी 2001 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . क्या दिल ने कहा 2002 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . क्या कूल हैं हम (2005 फ़िल्म) क्या कूल हैं हम 2005 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। द्वार्थी पदों तथा अबतक थोड़े अश्लील समझे जाने वाले शब्दों के खुल्लम-खुल्ले प्रयोग के कारण यह फिल्म बहुत चर्चित हुई थी। इसमें रितेश देशमुख, तुषार कपूर, नेहा धूपिया, ईशा कोप्पिकर की मूख्य भूमिकाएँ हैं। . क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता (2001 फ़िल्म) क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता 2001 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . अब्बास और मस्तान बर्मावाला दो भाई हैं जो बॉलीवुड में थ्रिलर और ऐक्शन फिल्मों के निर्देशन (डायरेक्शन) के लिए जाने जाते हैं। ये प्रायः अपनी फिल्मों में अक्षय कुमार, बॉबी देओल, अक्षय खन्ना, बिपाशा बसु व करीना कपूर आदि को कास्ट करते हैं। इन दोनों ने बॉलीवुड की कुछ महान फ़िल्में डायरेक्ट की हैं जैसेः खिलाड़ी, बाज़ीगर, सोल्जर, अजनबी, बादशाह, ऐतराज़, हमराज़, 36 चाइना टाउन, रेस और रेस 2. अभिनेता वह पुरुष कलाकार है जो एक चलचित्र या नाटक में किसी चरित्र का अभिनय करता है। अभिनेता परिकल्पना एवं दर्शक के बीच माध्यम का काम करता है। जो दी गयी भूमिका को किसी मंच (चलचित्र, नाटक, रेडियो) द्वारा दर्शक के लिए प्रस्तुत करता है। अभिनय की कला का ज्ञान एवं अभिनेता के भाव प्रस्तुतीकरण को सार्थक बनाता है। . अखियों से गोली मारे (2002 फ़िल्म) अखियों से गोली मारे 2002 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . अंगारे (1998 फ़िल्म) अंगारे 1998 में बनी हिन्दी भाषा की फिल्म है। . यहां पुनर्निर्देश करता हैः रज़ाक ख़ान (हिन्दी फ़िल्म कलाकार)।
c2120dc83b97b0e0b7a170b1b901b192a20bd4df0d9b70943df3dbe0bef2258d
pdf
अ० भा० कां० कमेटीकी बैठकमें बहिष्कारपर बहस हमारे घरमें अगर किसीने गोमांस फेंक दिया हो तो हम उसे निकाल फेकेगे अथवा उसे किसी गरीबको दे देंगे ? सम्भव है वह किसी गरीबके कामका हो; लेकिन जिस वस्तुको इस्तेमाल करनेमे हम पाप मानते हैं वह दूसरोको कैसे दें ? हम अपना सड़ा-गला भोजन किसी अन्यको खानेके लिए देगे अथवा उसे नष्ट कर डालेगे ? समाजकी स्थिति आज इतनी विषम है कि कुछ लोग सड़े हुए भोजनसे भी पेट भरनेके लिए तैयार है। लेकिन उन्हें सड़ा हुआ भोजन देनेमें हमारी सज्जनता अथवा कुलीनता निहित नहीं है, इतना तो आप कबूल करेंगे ही । हमने निश्चय किया है कि हम पहली अगस्तको खादी नहीं तो कमसे-कम स्वदेशी कपड़ा पहनकर चौपाटीपर इकट्ठे होंगे । हमारी इच्छा है कि एक भी व्यक्ति खादी अथवा स्वदेशी वस्त्र पहने बिना चौपाटीपर न आये । क्या आप यह चाहते हैं कि गरीब वहाँ न आये ? आपके उतारे हुए विदेशी वस्त्र पहनकर वे सभामे कैसे आ सकते है ? हम बड़े जबरदस्त अन्नदानी है लेकिन अपनी दयामे हम विवेक खो बैठते हैं। हमारी उतारन गरीबोका शृंगार क्यों होनी चाहिए ? गरीबोंको दान दिया ही क्यो जाये ? हम गरीबको स्वावलम्बी बनायें यही हमारा दान हो सकता है। हमारा आन्दोलन ही गरीबोको अपने जैसा बनाने का है। अपने जैसेका अर्थ गरीबोंको धनवान बनाना नही परन्तु यह है कि वे नंगे-भूखे न रहें । हमें जैसे श्वासोच्छ्वास लेनेका हक है वैसे ही पापीसे-पापी व्यक्तिको भी यह अधिकार है। ऐसा किसी भी शास्त्रमें नहीं लिखा कि उन्हें खाने-पीने अथवा पहननेओढ़नेका हक नहीं है । भीख माँगनेका अधिकार किसे है ? जो व्यक्ति साधु है, जिसने हमें ज्ञानका दान दिया है और देता है उसके अतिरिक्त किसी दूसरेको भिक्षा माँगनेका अधिकार नहीं है। हम भिक्षा देकर भूल करते हैं, पाप करते है । हमारे अनेक सदाव्रत आलस्य और पापकी निशानी है, ऐसी मेरी मान्यता है । हिन्दुस्तान में ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि किसी भी व्यक्तिको हाथ पसारनेकी जरूरत ही न रहे । हमें अगर गरीबोंको स्वावलम्बी बनाना है तो उन्हें उद्यम सिखाना ही पड़ेगा । मेरे पास आज ही एक अंग्रेज इस विषयपर बातचीत करनेके लिए आया था। उसे मैं समझा रहा था कि क्या तुम किसी गरीबको अपना हैट या अपना सूट देना उचित समझोगे ? इस समय आप जितने लोग यहाँ उपस्थित है आपके सिरोंपर मुझे ऐसी पगड़ी अथवा टोपी दिखाई नहीं देती जिसका गरीबके लिए कुछ उपयोग हो । बहनोंकी रंग-बिरंगी साड़ियोंका गरीब क्या करेंगे? उन्हें वे पहनेंगे ही नही । अगर हमने सोच-विचार किया होता तो हमारा पहरावा गरीबों के पहरावेसे कुछ मिलता-जुलता होता । काठियावाड़की अहीरिनोंको मैं जानता हूँ । वे आपकी दी हुई साड़ियोंको फेक ही देंगी । क्या किसी भी गरीब स्त्रीको आपकी रेशमी साड़ीकी जरूरत है ? क्या अकाल - ग्रस्त लोगोंको हम रेशमी साड़ियाँ भेजेगे ? क्या उनमे हम बुद्धिभेद उत्पन्न करेंगे ? गीतामें बुद्धिभेद करनेकी मनाही की गई है । हम अपनी व्यक्त वस्तुएँ अगर गरीबोंको देंगे तो उससे उनकी आत्मा शीतल होगी; ऐसा आप क्यों मानते हैं ? जब वे यह समझ जायेंगे कि हमने उन्हें वे वस्तुएँ दी हैं जिन्हें काममें लाना हम पाप मानते है तो वे हमें बदुआ देंगे ? अगर आपको अकाल-पीड़ितोंसे सहानुभूति है तो आप उन्हें उन्हीं वस्तुओंमें से दें जो आपके अपने इस्तेमालके लिए है। आप जो खादी पहनने जा रहे है उसमें से थोड़ी खादी आप गरीबोंको क्यों नहीं दे देते ? पुण्य कोई सहल वस्तु नही है । अपने पास पड़े विदेशी कपड़ेको हम विदेशोंको भेज सकते हैं, फिर उनकी होली किसलिए करें ? इस कपड़ेको तैयार करनेमें मानव जातिने जो श्रम किया है उसे हक ही पानीमें क्यों फेकें ? मैं तो विदेशके प्रति भी सभ्य व्यवहार करनेवाला व्यक्ति । हम क्यों न मिलका कपड़ा खरीदकर उन लोगोंको भेजें ? मै इतना तो मानता हूँ कि इस कपड़ेको यहाँ [ गरीब लोगोंको ] दे देनेमें जितना दोष है उतना स्मरना भेजनेमें नही है। कुछ एक वस्तुएँ अमुक स्थानपर ही पापमय होती हैं, सदा और सब स्थानोंपर पापमय नहीं होतीं । विदेशी कपड़ेपर भी यही बात लागू होती है। यूरोपके देशोंके लिए अथवा जो देश अधिकतर विदेशी कपड़ेपर निर्भर करते हैं और जहाँ कपास पैदा ही नहीं होती उनके लिए विदेशी कपड़ा पापमय नही होता । यूरोपमें बने किन्तु हमारे देश में आये हुए कपड़ेको हम वापस यूरोप भेज सकते हैं । इस सम्बन्धमें मुसलमान भाइयोंसे मेरा बहस करना उपयोगी नहीं हो सकता इसलिए मै झुक गया और मैने विदेशी कपड़ेके स्मरना भेजे जानेकी छूट दे दी, लेकिन हमारा प्रथम कर्त्तव्य तो उसकी होली करना ही है । अब प्रश्न यह है कि जिस वस्तुपर मनुष्य जातिने परिश्रम किया है उसको कैसे नष्ट किया जा सकता है ? लेकिन जगत्मे ऐसी कौन-सी वस्तु है जिसपर परिश्रम किया गया हो और फिर जिसका नाश न हुआ हो ? मेरी पगड़ी सुन्दर बँधी हुई है - और मेरे भाई तो पगड़ी बाँधनेका धन्धा करते हैं -- लेकिन अगर मेरी पगड़ी में प्लेगके कीटाणु भर जायें तो चूँकि यह पगड़ी मेरे भाईने बाँधी है इसलिए क्या मुझे उसको नष्ट नहीं करना चाहिए ? मेरा फर्ज तो उसे नष्ट करना ही है। मनुष्य देहको हम संसार-सागरको पार करनेकी नौका मानते हैं । ईश्वरने ऐसी महत्त्वपूर्ण वस्तुओंके नाशकी भी व्यवस्था की है । वह तो अनेक वस्तुओंका नाश करता है । क्या हम उसकी अपेक्षा अधिक समझदार है ? अपनी गढ़ी हुई वस्तुओंको नष्ट करनेका हमें अधिकार है । जिन कपड़ोंको हमने स्वदेशी समझ लिया है और जिनके बारेमें हमें यह समझाया गया है कि वे स्वदेशी हैं, उनका त्याग करनेकी हमसे किसलिए अपेक्षा की जातो है ? स्वदेशीका अर्थ आजतक एक ही था, अब दूसरा अर्थ किया जाता और थोड़े समय बाद क्या कुछ और ही अर्थ नहीं किया जायेगा ? तो क्या हर बार हमें अपने वस्त्र निकालकर देते रहना चाहिए ? हमें अगर कोई चिरायता समझकर संखिया देगा तो क्या हम उसे खा लेंगे ? यह प्रश्न पूछने योग्य ही नहीं है। मुझे अगर कोई पारा चढ़ा हुआ पैसा देता है और उसे अगर मैं अठन्नी के रूपमें बाजारमें चलाने जाता हूँ तो क्या पुलिस मुझे नहीं पकड़ेगी ? जो वस्तु हमें खोटी लगे उसको हमें उसी क्षण त्याग देना चाहिए । वैसे मैंने १९१९ में स्वदेशी की जो व्याख्या की थी उसकी वही व्याख्या आज भी है। जिस दिन मैंने यह अ० भा० कां० कमेटीकी बैठक में बहिष्कारपर बहस व्याख्या की थी उस दिन मेरे तनपर खद्दर भी नही था । जिसका कोई अस्तित्व ही न था उसे मैं हिन्दुस्तान के आगे किस तरह पेश कर सकता था ? आज तो सूत और खादीका ढेर लगा है । और अब तो हमें सिर्फ आत्मविश्वासकी जरूरत है। स्वदेशीकी व्याख्याका रूपान्तर तो हमने अपनी सुविधानुसार किया है । मनुष्य हर तरहकी गुलामीसे छूट सकता है लेकिन उसे अपने साथियोका गुलाम तो बनना ही पड़ता है । मुझे भी उस समय भाई उमर सोबानी और भाई शंकरलाल बैकरके कथनको मान्यता प्रदान करनी पड़ी और मैने उनकी खातिर एक नये व्रतकी सृष्टि की जिसके अनुसार यहाँकी रुईसे यहाँकी मिलमें कते सूतके बुने हुए कपड़ेका प्रयोग किया जा सकता है । लेकिन बात इतनेपर ही रुकी नही । बहन रामीबाई कामदारको इसमें भी मुश्किल दिखाई दी, इसलिए मैंने फिर तीसरे व्रतकी रचना की। लेकिन खरी स्वदेशी तो एक ही है । मै आज सबसे यही व्रत लेनेके लिए कह रहा हूँ । कपड़ों की होली जलाने से क्या अहिंसा-व्रत भंग नहीं होता ? मैल धोने में हिंसा नहीं होती। जिससे आत्माका पतन होता है वह पाप है । कुछ- एक मामलोमें हिसा अनिवार्य है। शास्त्रोंका कहना है कि श्वासोच्छ्वास में हिंसा है। इसके अतिरिक्त वनस्पतिमें भी प्राण हैं और हम वनस्पति खाते हैं; लेकिन उसे खानेमें हिसा है, ऐसा हम नहीं मानते । सूक्ष्मदर्शक यन्त्रसे देखें तो पता चलेगा कि पानीमें भी कीटाणु भरे हुए होते हैं । दूधमें भी कीटाणु बिलबिलाते हुए दिखाई देते हैं, तिसपर भी हम पानी पीनेमें दोष नहीं देखते और दूध तो बहुत पुष्टिकारक खुराक मानी गई है। मै इस समय आपके सम्मुख जो बोल रहा हूँ उसमें भी कुछ हदतक हिसा निहित है। लेकिन ऐसी हिंसा अनिवार्य है और उसमें हम पाप नहीं मानते। जहाँ एक कौरसे निबाह हो सके वहाँ अगर हम दो खाते है तो वह पाप है । 'गीता' में कहा गया है, अगर हम अल्पाहारी नहीं बनते तो हम चोर हैं । तिसपर भी हम भारी भोज देते हैं; पग-पगपर 'गीता' के वचनोंको भंग करते है । अतएव ऐसा प्रश्न कैसे पूछा जा सकता है ? अश्रद्धा होते हुए भी लज्जा, भय आदि कारणोंसे कोई अपने विदेशी कपड़ोंमें से थोड़े बहुत कपड़े निकालकर दे दे और बादमे वैसे ही विदेशी कपड़े खरीद ले तो उससे देशको लाभके बदले हानि ही होगी। इसलिए विदेशी कपड़े क्यों इकट्ठे किये जायें ? विदेशी कपड़ों में निहित गुलामीके बारेमें लोगोंको बताकर 'यथेच्छसि तथा कुरु' क्यों न कहें ? हम किसीपर अश्रद्धा अथवा अविश्वास कैसे रख सकते हैं ? हम दूसरोंको पाखण्डी क्यों मानें ? हम यह कैसे मानें कि किसीने अपने मनमें मैल रखकर हमें कपड़े दिये है ? तथापि व्यक्ति किसी भी वृत्तिसे सत्कार्य क्यों न करे, उससे लाभ ही होता है। अगर कोई व्यक्ति डरके मारे सच बोलता है तो उतनेसे भी उसके झूठ बोलनेपर जगत्की जो हानि होती वह न होगी । अशुभ भावसे यदि कोई व्यक्ति अच्छा कार्य करेगा तो इससे स्वयं उसीकी हानि होगी, उसे उस कार्यका पुण्यफल १. देखिए खण्ड १५, पृष्ठ २०२-४ । नहीं मिलेगा; लेकिन जगत्को उसके कार्य में निहित अच्छाईका लाभ अवश्य मिलेगा। भयवश विदेशी कपड़ा देनेवाले और स्वदेशी पहननेवाले को स्वदेशी व्रत पालन करनेका पुण्यफल भले ही न मिले लेकिन उसके स्वदेशी पहननेसे देशके कारीगरको रोजी मिलेगी और उसके कार्यसे इतना हित तो होगा ही । लेकिन हमें तो यही मानना चाहिए कि हर किसीने जो कुछ दिया है सो शुद्ध निष्ठासे दिया है । 'यथेच्छसि तथा कुरु" इस वाक्यका प्रयोग भी भूलसे भरा हुआ जान पड़ता है । श्रीकृष्णने यह वाक्य कब कहा ? अर्जुनको पूरी तरह अपने वश में कर लेनेके बाद ही। उन्होंने अर्जुनको उसके कर्त्तव्य के बारेमें बताया, खूब अनुनय-विनय की और अन्तमें कहा कि "जो तेरी इच्छा हो सो कर " । हमें भी लोगोंको समझाना चाहिए, उनके आत्म-सम्मानकी भावनाको जगाना चाहिए और अगर तब भी वे न मानें तो हम उनसे कहें कि आपकी जो इच्छा हो सो करें । हमें किसीको मारनेकी इच्छा नहीं करनी चाहिए । बल्कि खुद मरनेके लिए तैयार होना चाहिए । हम इसके लिए भी तैयार नहीं तो कमसे कम हमें विदेशी कपड़ेका बहिष्कार तो करना ही चाहिए । कुछ किये बिना शान्त बैठे रहनेमें धर्म नहीं है । मैं अगस्तकी पहली तारीखतक ऐसी सभाओंमें जाऊँगा । लेकिन बादमें तो जाना भी बन्द कर दूंगा । ३१ अगस्ततक मँ स्वदेशीकी बात करूंगा और बाद में वह भी छोड़ दूंगा । मैं तो व्यावहारिक बनिया हूँ । जबतक मुझे यह लगेगा कि इन तिलोंमें तेल है तबतक मैं उन्हें पेरूँगा, लेकिन बादमें उन्हें छोड़ दूंगा। मुझे और बहुत सा दूसरा व्यापार करना है । प्रतिदिन ८-१० आने कमानेवाले लोग किस तरह विदेशी कपड़ेका बहिष्कार करेंगे, १०० से १५० रुपये वेतन पानेवाले विदेशी कपड़े निकाल बाहर कर नये स्वदेशी अथवा खावीके वस्त्र कैसे बनवा सकते है ? वे क्या कर्ज लें ? क्या भिक्षा माँगे ? अथवा अबसे विदेशी कपड़ा न लेनेका व्रत लेकर सन्तोष मानें ? ऐसे गरीब व्यक्ति भी विदेशी कपड़े रूपी मैलको निकालेंगे ही, बादमें भले खादीकी भीख माँगे, मित्रोंसे उधार माँगे अथवा मजूरी करें; और इस बीच लंगोटीभर कपड़ेसे निर्वाह करें । दृढ़ संकल्प हमें अनेक कठिनाइयोंसे उबार लेगा। संकल्प एक तरहकी ईश्वर प्रार्थना है और यह अवश्य फलीभूत होता है। [ गुजरातीसे ] नवजीवन, ११-९-१९२१ २२४. भाषण : बम्बईमें स्वदेशीपर' श्री गांधीने कहा कि ३० जूनको भारतीयोंने अपने देशके प्रति अपना कर्तव्य पूरा किया है और उन्हें इसका गर्व होना चाहिए, क्योंकि उन्होंने समझ लिया है कि वे किसी कामको सरकारी मदद या संरक्षणके बिना कर सकते है । धनाभावके सम्बन्धमे हमारा भय अब दूर हो गया है और अब भी मुझे बिना माँगे ही पारसी, मुसलमान और हिन्दू मित्र तिलक स्वराज्य-कोषके लिए धन भेजते जा रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि भारतीय अपनी मातृभूमिके प्रति अपना कर्तव्य पहचान रहे हैं। मुझे विश्वास है कि यदि इकट्ठा किया गया यह धन ठीकसे खर्च किया जायेगा तो एक करोड़ रुपया तो क्या चार करोड़ भी इकट्ठा हो जायेगा । परन्तु मे साल पूरा होनेसे पहले ही स्वराज्य चाहता हूँ । इसका अर्थ यह हुआ कि हमे और रुपया इकट्ठा नहीं करना होगा। परन्तु मनुष्यकी चेती कब होती है ? होती तो ईश्वरकी चेती ही है। इसलिए सम्भव है मेरी इच्छाएँ पूरी न हों। यदि सभी भारतीय पुरुष - और स्त्री अपने देशके प्रति अपना कर्त्तव्य पूरा करें तो सफलता मिले बिना नहीं रह सकती। अब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीने निर्णय किया है कि हमें अपनी शक्ति अधिकसे-अधिक खादी तैयार करने में लगानी चाहिए। स्वदेशीके बिना हमें स्वराज्य नहीं मिल सकता । जो कपड़ा इस देशमें तैयार किया जाता है उसे पहनना भारतीय पसन्द नहीं करते। वे तो सिर्फ वही कपड़ा पसन्द करते हैं जो इंग्लैंड, फ्रांस या जापानसे आता है। क्योंकि उनका खयाल है कि देशमें बना कपड़ा इतना सुन्दर और कलात्मक नहीं होता जितना कि उसे होना चाहिए। यदि वे ऐसा सोच सकते हैं तो स्वराज्य कैसे प्राप्त कर सकते हैं ? अन्न और वस्त्र भारतके दो फेफड़े है और यदि वे रोगी हुए तो देश अधिक दिनतक जिन्दा नहीं रहेगा। इस देशमें कितने ही करोड़ लोग किसी भी दिन भरपेट भोजन नहीं पाते। यदि आप उनके बारेमें सोचें तो आपको मालूम हो जायेगा कि भूखों मरते उन भारतीयोंके लिए अन्न मुहैया करना आपका कर्त्तव्य है। यदि आप इस देशका इतिहास पढ़ें तो आपको विदित होगा कि जबसे भारतने कातना-बुनना छोड़कर विदेशी कपड़ा अपनाया तबसे भारत गरीबी भोग रहा है। और जबतक आप लोग इन बातोंका हल नहीं निकालेंगे तबतक आपके कष्ट बने रहेंगे। अगर करोड़पती पारसी लोग अपनी सारीकी सारी दौलत इस देशके निर्धन व्यक्तियों को दे डालें तो भी उनका संकट दूर न होगा। क्या हमें इन करोड़ों १. गांधीजीने पह भाषण एक्सेल्सियर थियेटर में पारसी राजकीय सभाके तत्त्वावधान में आयोजित पारसियोंकी एक भारी सभामें दिया था । लोगोंको सदावर्तके सहारे रखना है ? या वे उन्हें स्वावलम्बी बनाना चाहते है ? इन लोगोंको तो अपने ही प्रयाससे, अपने ही उद्योगसे अपनी जीविका कमानी चाहिए और अपने लिए वस्त्र प्राप्त करना चाहिए। उन्हें अपनी जरूरतें पूरी करनेके लिए दूसरोंके आश्रित रहना कदापि नहीं सिखाना चाहिए । इस देशमे गरीबोंको काम देनेका एक मार्ग है और वह है भारतीयोंका खद्दर पहनने लगना । कुछ लोग शायद मुझसे यह प्रश्न करें कि ये सब गरीब लोग अहमदाबाद और बम्बई जैसे शहरों में जहाँ मजदूरोंकी इतनी कमी है क्यों नहीं आ जाते में नहीं समझता कि भारतके गरीब अपने घर छोड़कर मिलोंमें काम करने के लिए शहरोंमे जा बसेंगे। मान लीजिए कि वे ऐसा करते भी है तो परिणाम क्या होगा ? उस हालत में भारतको भूखे रहना होगा, क्योंकि तब हल कौन चलायेगा और आपके लिए गेहूँ तथा अन्य खाद्यान्न कौन पैदा करेगा। तब भारत एक जंगल जैसा हो जायेगा और जनता भूखों मरने लगेगी। इसलिए सारी आबादीका शहरोंमें बसना सम्भव नहीं है। जबतक इस देश में एक भी व्यक्तिको भूखा रहना पड़ता है तबतक भारतीयोंका कर्त्तव्य है कि मितव्ययितासे काम लें और व्यर्थका ऐश-आराम त्याग दे । इसीलिए में अपने मित्रोंसे कहा करता हूँ कि वे चाहे जैसे भी सुधार प्राप्त कर लें, कौंसिलोंमें चाहे जैसे भी प्रस्ताव क्यों न पास करा लें जबतक वे इस देशसे गरीबी नहीं दूर कर सकते तबतक उनके सारे प्रयत्न व्यर्थ जायेंगे। मैं अपने पारसी मित्रोंसे अपील करूंगा कि वे भारतकी सच्ची स्थितिका ज्ञान प्राप्त करके उस रोगको पहचाने जिससे देश पीड़ित है और तब स्वदेशी अपनाकर उसे दूर करने का प्रयत्न करें। पारसी सारे देशको दिखा दें कि वे चाहे जितने ऐशोआराममें क्यों न डूबे हों, कीमती चीजों और कपड़ोंको इस्तेमाल करना वे चाहे जितना क्यों न पसन्द करते हों, किन्तु एक बार इस देशकी गम्भीर स्थितिको पहचान लेनेके पश्चात् वे मातृभूमिके प्रति अपना कर्त्तव्य निभाने को तैयार है । वे केवल अन्य जातियोंके साथ कतारमें खड़े न होकर अन्य पिछड़ी जातियोंको स्वराज्यके लक्ष्यको ओर ले जानेमे अगुआ होंगे। कमसे कम मुझे तो इस बातका पूरा विश्वास है कि जो जाति देशके अनेक मामलों में अगुआ रही है वह इस बार भी देशमें अग्रणी बनेगी और पीछे नहीं रहेगी। सभी विभिन्न जातियोंको साथ लेकर चले बिना देश आगे नहीं बढ़ सकता और भारत एक भी जातिको पीछे नहीं छोड़ सकता। पारसी लोग जो अनेकों मामलों में प्रमुख हिस्सा लेते रहे हैं, इस मामले में भी लेंगे, इसके बारेमें मुझे जरा भी सन्देह नहीं है। पारसियोंको यह नहीं कहना चाहिए कि चूँकि उनके पास अभी ३० सितम्बरतक दो महीने का समय है इसलिए वे इस बीच कुछ न त्यागकर अन्तिम दिन ही सब चीजें त्यागेंगे। आगामी सोमवारको पारसी समाजकी परीक्षा होने जा रही है और मैं जानता हूँ कि वे खरे उतरेंगे, क्योंकि मैं अपने पारसी दोस्तों१. इस दिन, पहली अगस्तको बहिष्कार आन्दोलन प्रारम्भ होना था । को अच्छी तरह जानता हूँ। में जिस समाजके साथ इतने वर्ष रह चुका हूँ उसे कैसे नहीं जानूँगा ? जिन स्त्री-पुरुषोंने तिलक स्वराज्य-कोणके लिए इतना धन दिया है, जिन महिलाओंने अपने जेवर त्याग दिये है, उन्हें अब पहली अगस्तको अपने कर्तव्यमे नहीं चूकना चाहिए। इस तारीखसे उन सबको अपने fवदेशी वस्त्र छोड़ देने चाहिए । जिसे पहनना वे पाप समझते है उसे एक क्षण भी अपने पास नहीं रखना चाहिए। उन्हें यह अवश्य जान लेना चाहिए कि इन विदेशी वस्त्रोंको पहनकर वे अपने करोड़ों देशोंको भूखा रख रहे हैं। वे विदेशी वस्त्र नष्ट कर दिये जाने चाहिए और अपने पास कतई नहीं रखने चाहिए, क्योंकि वे पायसे रंगे हुए है। उनकी दृष्टिमें जिसे पहनना पापपूर्ण है वह गरीबोंके लिए भी पहनना पापपूर्ण है और इस लिए मैं उनके कवड़ोंको गरीबोंको दे दिये जानेके पक्षमे नहीं हूँ। परन्तु यदि वे चाहें तो उन कपड़ोंको भारत से बाहर स्मरना भेजा जा सकता है । में आप लोगोंसे खादी पहनने को कहता हूँ; गरीब लोगोंको मिलोंका बना कपड़ा पहनने दीजिए। जो कुछ हाथका बना है वह अधिक कलात्मक, अधिक सुन्दर और कुल मिलाकर मशीनकी बनी चीजसे बेहतर है। मशीनपर जो कुछ बनाया जाता है वह गरीबोंके लिए है । अमीर लोगोंको अपना सूत स्वयं कातना और उसे अपने बुनकरोंके पास भेजना चाहिए, ताकि ये उनकी पसन्दका कपड़ा तैयार कर दें । पहले, जब विदेशी कपड़ा पहनना शुरू नहीं हुआ था, ऐसा ही होता था । हम देशमें प्रचलित सभी प्रकारकी कलात्मक कारीगरीको भूल गये हैं और मिलोंमें तैयार की गई विदेशी चीजोंका प्रयोग करने लगे हैं, केवल इसलिए कि वे फ्रांस या इंग्लैंडसे आती है। क्या आप अपने में किसी प्रकारकी मौलिकता नहीं ला सकते ? हर चीजके लिए विदेशोंका मुँह ताकना क्या अच्छी बात है ? क्या आप लोग अपनी सब कारीगरी भूल बैठे हैं और अपनी जरूरतों को पूरा करनेके लिए विदेशोंके मुहताज बन गये हैं ? मैं उनसे अपील करता हूँ कि stat fadit चीजे त्याग दें और अपने देश के लिए कुछ त्याग करें । जो कुछ आप करेंगे वह वास्तव में आपका त्याग कहा जायेगा, आप तो केवल देशसेवा कर रहे हैं। मुझे खुशी है कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सभी सदस्य जिनकी संख्या लगभग ३०० है, शुद्ध श्वेत खादी पहनकर बम्बई आये हैं। मुझे अक्सर याद आ जाया करता है कि इसके बारेमें श्री पिक्यॉलने क्या कहा था। उन्होंने कहा था कि यदि आप अपनेको किसी नये रंग में रंगना चाहते हैं तो पहले आपको अपनी सारी गन्दगी धोकर उजले बनना होगा आपको कोई अन्य रंगीन कपड़ा अपनाने से पहले शुद्ध सफेद खादी धारण करनी चाहिए। खादीमें पवित्रता है, शुद्धता है और सौन्दर्य है और उसे पहननेवालों को कोई असुविधा भी नहीं होती। वह हमारी भारतीय राष्ट्रीयताका ध्वज है और अब उसे अवश्य पहनने लगना चाहिए। इसके बाद गांधीजीने लोगोंसे कहा कि आप लोगोंके बीच जो शपथ प्रचारित की गई है, उसपर खूब सोचविचार कीजिए और उसपर अपने हस्ताक्षर कीजिए । ऐसा खूब अच्छी तरह विचार करनेके बाद ही कीजियेगा। क्योंकि मै आप लोगोंको लज्जित करके आपसे हस्ताक्षर कराना नहीं चाहता। यह पूर्णतः ऐच्छिक हो; इसमें किसी तरहका भी दबाव नहीं होना चाहिए । बॉम्बे क्रॉनिकल, ३१-७-१९२१ २२५. टिप्पणियाँ श्वेत वस्त्र-सज्जित हिन्दुस्तान तिलक जयन्तीके दिन 'क्रॉनिकल' के सम्पादक श्री पिक्थॉल' खादीकी पोशाक और खादीकी टोपी पहने सभामें आये, यह देख मैं चकित रह गया और उनके छोटे परन्तु शुद्ध विचारोंसे युक्त भाषणको सुन मुझे और भी अधिक खुशी हुई। उन्होंने कहा : यह संघर्ष आत्मशुद्धिका संघर्ष है। थोड़े समयके लिए अगर हिन्दुस्तान सिर्फ श्वेत वस्त्र पहने तो इससे वह कुछ खोयेगा नही । एक बार श्वेत वस्त्र धारण कर अपने उद्देश्यको प्राप्त करने के बाद भले ही हिन्दुस्तान रंग-बिरंगे कपड़े पहने।" हम सफेद खादी पहनते हैं क्योंकि रँगनेका हमारे पास समय ही नहीं है । इसके अतिरिक्त रंग विदेशी होनेके कारण हममें से बहुतोंको पसन्द नही आते । श्री पिक्थॉलको खादीकी शुभ्रतामें हमारे संघर्षकी उज्ज्वलता दिखाई दी यह विचार मुझे बहुत सुन्दर लगा । और यह सच भी है। अभी तो हम जो रंग जहाँसे भी आये उसे ही सुन्दर मान लेते हैं । हकीकतमें यह मैल है । जो रंग समय देखकर और उसके उद्गम स्रोतकी जाँच करने के बाद वस्त्र में दिया जाता है उसीमें कला और सौन्दर्य होता है । बालक द्वारा कागजपर तूलिका फेरनेमें और चित्रकार द्वारा अपनी तूलिकासे रेखाएँ खींचकर चित्रको आत्मा प्रदान करनेमें कितना अन्तर होता है ? अभी तो रंगोंके प्रति हमारा मोह बालक द्वारा तूलिका फेरनेसे पड़े धब्बोंके मोहके समान है । जबतक हिन्दुस्तान के लोग अधिकतर श्वेत वस्त्र धारण नहीं करते तबतक चित्रकारका जन्म नही होगा और हमारे बाजारोंमें चित्र दिखाई नहीं देंगे । जिस तरह चित्रपटके अभावमें बेलबूटे नहीं बनते उसी तरह जबतक हम शुद्ध सफेद खादीकी शुरुआत नहीं करते तबतक आँख और मनको जो भा सके ऐसे सुन्दर डिजाइनवाली खादी भी तैयार नहीं हो सकती । आजके रंग तो धुली पुती कब्र के समान हैं। हिन्दुस्तानकी कलाका विकास चाहनेवाले व्यक्तियोंको विदेशसे आये हुए कपड़ेके कचरेको हटाकर शुभ्र भूमिका तैयार करनी ही होगी । आँगनमें रंग पूरनेसे पहले जैसे हम आँगन साफ करते हैं वैसे ही हमें हिन्दुस्तानके आँगनमें पड़े विदेशी कपड़ेके कचरेको तुरन्त निकाल देना चाहिए। एक पारसी बहन पारसी भाई और बहनें राष्ट्रीय आन्दोलनमें खूब भाग लेने लगे हैं। भाई गोदरेजने तो तिजोरी बनाने के अपने धन्धेको सिर्फ देशके लिए ही चलानेका निश्चय कर १. मार्माड्यूक पिक्थॉल । प्रस्ताव : चुनावके सम्बन्ध में लिया जान पड़ता है। पारसी नौजवान शराबकी दुकानोंपर धरना देनेके लिए निकल पड़े हैं। पारसी सज्जन खादी पहनने लगे हैं। भारतके पितामहकी पौत्री बहन पेरीनने सिरसे पैरतक मोटी खादीकी पोशाक धारण की है । पारसी वहनोंने अपने जवाहरात तिलक स्वराज्य-कोषमें दे दिये हैं। पारसी राजकीय सभाने एम्पायर थियेटरमें तिलक जयन्ती मनाई है। अब बम्बईकी एक पारसी बहनने शराबकी दुकानपर धरना देनेकी इच्छा प्रकट की है और अन्य बहनोंसे भी वैसा करनेके लिए कहा है । उस बहनका कहना है कि अगर अन्य बहनें भी इस कार्य में शामिल हो जायें तो इस समय धरना देनेसे हिंसाका जो भय बना रहता है वह बहुत अंशोंमें दूर हो जायेगा । और अभी हाल ही में हमपर जो यह आरोप लगाया गया है कि धरना देनेवालों में अवांछनीय व्यक्ति भी आ जाते है उस आरोपसे भी हम मुक्त हो जायेगे । इस बहनको मै बधाई देता हूँ । [ गुजरातीसे ] नवजीवन, ३१-७-१९२१ २२६. प्रस्तावः चुनावके सम्बन्ध में [ बम्बई ३१ जुलाई, १९२१] महात्मा गांधीने निम्नलिखित प्रस्ताव पेश कियाः १७. पिछले महीने बंगाल और मद्रासमें हुए अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटीके चुनावों से सम्बन्धित संवैधानिक प्रश्नोंपर किसी पूर्वग्रहके बिना और उनके गुण-दोषोंपर नजर डाले बगैर, और इस तथ्यको देखते हुए कि समस्त भारतमें नये चुनाव अगले नवम्बरमें या उससे पहले अवश्य होंगे और इस बातको भी ध्यान में रखते हुए कि समस्त भारतके कांग्रेस संगठनों के सामने इस समय एक व्यस्त और भारी कार्यक्रम प्रस्तुत है, यह समिति देश-हितके खयालसे इन चुनावोंमें किसी प्रकारका हस्तक्षेप करना या खलल पहुँचाना ठीक नहीं समझती है और बंगाल तथा मद्रासके उन लोगोंको, जिनके दिलोंमें क्षोभ है, सलाह देती है कि वे अपने-अपने प्रान्तोंमें प्रान्तीय संगठनोंको अपना सहयोग दें जिससे कार्यक्रम सुचारु रूपसे चलाया जा सके और वह सफल हो । १. मणिभवन, लैबर्नम रोड, बम्बई में कांग्रेस कार्य-समितिकी बैठक सुबह साढ़े आठ बजे हुई । गांधीजी द्वारा पेश किये गये इस प्रस्तावका मौलाना मुहम्मद अलीने अनुमोदन किया। प्रस्ताव बहुमतसे पास हो गया ।
714b5d1a9c8d4374bf2eb450152d4a71a737eb9fba647b1600f1f539f1761738
pdf
स्वाधीनता का चिरकालपर्यन्त उपभोग कर सकती है। वही स्वाधीनता साकार होती है। यही कल्याण का मार्ग है। यही परमात्म-प्राप्ति का मार्ग है। जो इस मार्ग पर चलेगा, उसका कल्याण होगा। प्रकाश का सन्देश दीपमालिका । अमावस के अन्धकार को चीर कर झिलमिलाते हुए अगणित दीपक मानो यह सन्देश देते हैं कि घनी विपदाओं और निराशाओ के बीच भी साहस व त्याग के ऐसे दीपक जलाओ कि आत्मविकास का पथ प्रकाशमय हो जाये दीपमालिका । अपने नन्हे-नन्हे दीपो की ज्योति से उस प्रकाश की झलक दिखाती है, जिसका विस्तार प्रेम, अहिंसा, सेवा और त्याग के विकास पथ पर फैला रहता है। वह प्रकाश की झलक, जिसका अनुकरण करती हुई आत्म-लक्ष्मी का पदार्पण होता है। ये दीप उस प्रकाश के प्रतीक कहे जायें जो प्रकाश अन्तरात्मा से उत्पन्न होता है और घनीभूत होता हुआ एक दिन परमात्मरूप में परिवर्तित हो जाता है। दीपमालिका के इन दीपों की ज्योतियो मे आत्मविजय की लक्ष्मी मुस्कराया करती है । दीपकों के अन्तर में निहारो, ज्योति मे गहराई से प्रवेश करो तो दिखाई देगा कि पतन और अन्धकार के समुन्दरी तूफान मे जीव-नौका को विकास का मार्ग दिखाने वाले अन्तर्दृष्टि के ऐसे दीप आत्मा के लिए प्रकाशस्तम्भ का काम कर रहे हैं। अत दीपमालिका का पहला आयोजन होना चाहिए- जीवन की स्वच्छता और सजावट का । भावनामय जगत इस प्रकार स्वच्छ व सम्यकप्रकारेण सुसज्जित हो कि मानसिक विकारो के विनाश के साथ साथ सद्विचारो का निर्माण भी हो। इसमें सफल बनने के लिए निर्लेपता तथा शुद्ध कठोर कर्मठता की अधिक आवश्यकता होती है। 108 / चिन्तन-मनन अनुशीलन तमसो मा ज्योतिर्गमय आज दीपमालिका है। अमावस के अन्धकार को चीरकर झिलमिलाते हुए अगणित दीपक मानो यह सन्देश देते हैं कि घनी विपदाओ और निराशाओ के बीच साहस व त्याग के ऐसे दीपक जलाओ कि आत्म-विकास का पथ प्रकाशमय हो जाय । यह ठीक हे कि दीपको की माला से बाह्य प्रकाश तो होता ही है किन्तु इन छोटे-छोटे मिट्टी के लघु दीपो को अन्तर्जगत् का प्रतीक मानकर आत्मक्षेत्र को ज्योतित करना चाहो तो इस दीपमालिका के पर्व का सच्चे दिल से भावनात्मक स्वरूप पहचानने का प्रयास किया जाना चाहिए । दीपमालिका अपने नन्हे-नन्हे दीपो की ज्योति से उस प्रकाश की झलक दिखाती है, जिसका विस्तार प्रेम, अहिंसा सेवा और त्याग के विकास - पथ पर फैला रहता है। वह प्रकाश की झलक, जिसका अनुसरण करती हुई आत्म-लक्ष्मी का पदार्पण होता है। इस पर्व की ऐतिहासिक आधारशिला भी बताती है कि ये दीप उस ज्योति से जल रहे हैं, जिसके लिये विश्व की महान् विभूतियो ने अपने आदर्शों का स्नेहदान दिया है - नया प्रकाश फैलाया है। अत दीपमालिका का पहला आयोजन होना चाहिए - जीवन की स्वच्छता और सजावट का । आपका भावनामय जगत इस प्रकार स्वच्छ व सम्यक्प्रकारेण सुसज्जित हो कि मानसिक विकारो के विनाश के साथ-साथ सद्विचारो का निर्माण भी हो। तदनन्तर आपके वचन और आपके कार्य शुद्धिकृत व नवसज्जायुक्त मन के अनुरूप ढलने लगेगे । इस तरह के व्यक्तिगत जीवन के निर्माण का अभाव होगा कि उस पवित्र सम्पर्क से समाज मे भी उस वातावरण की रचना हो सके- ऐसी प्रेरणा मिलेगी। जितना बाहरी स्वच्छता और सजावट का कार्य आसान है, उतना ही आतरिक एव सामाजिक स्वच्छता व सजावट का कार्य कठिन है । अत इसमे सफल बनने के लिए निर्लेपता तथा शुद्ध कठोर कर्मठता की अधिक आवश्यकता होती है। अत आज के पर्व - दिवस का कर्तव्य है कि इन लघुदीपो की पृष्ठभूमि मे महापुरुषो के दिव्य - चरित्र का पुनीत स्मरण किया जाय और इस मगलपर्व के जागृत सन्देश को इस रूप मे हृदयगम करने का शुभ प्रयास किया जाय कि जिस तरह उन विश्वविभूतियो ने त्याग सच्चे प्रेम और सेवा के पथ पर चलकर अपनी अडिग अकर्मण्यता का परिचय दिया और निज अनुशीलन / 109 के साथ-साथ जगत् के जीवन को प्रकाशित किया, उसी तरह आप भी सत्कर्मठ कर्मण्यता का व्रत ले ओर अपनी समस्त सत्शक्तिया लगाकर निज के एव समाज ओर धर्म के क्षेत्र में प्रगतिशील तथा प्रकाशमान नवीनता का सचार करे । जीवन का बसन्त जीवन मे ऊचे-से-ऊचा विकास सभव है और कोई भी लक्ष्य असभव नहीं है। जीवन के ऊबड़-खाबड रास्तो पर जब कोई पथिक पग बढाता है और उस समय भयकर प्रतिकूलताए अगर उसके कदमो को डगमगा दे तो वह स्थिति परिस्थितियों की दासता के रूप में देखी जायगी। जीवन मे सफलता उस पथिक को मिलती है जो मजबूत कदम बढाता हुआ हर प्रतिकूल परिस्थिति को सभव बनाता हुआ आत्म-विकास के लक्ष्य की ओर अग्रसर होता चला जाता है। ऐसी ही अवस्था मे जीवन का बसन्त खिलता है, जिसके पत्र - पल्लवो की हरीतिमा आत्म-सुख की अनुभूति देती है, पुष्पो की मधुरिम सौरभ आचार एव विचार - वैभव को सुवासित बना देती ओर वासन्ती बहार त्याग की भावनाओ को उभार देती है। जीवन मे प्रस्फुटित होने वाले ऐसे 'नव-बसन्त' का अभिनन्दन करने के लिये आपको अपने सामाजिक जीवन की भी कायापलट करनी पडेगी तब मिथ्या और आत्मघातक सामाजिक रुढियो का दाह-सस्कार इसलिये आप जरूरी महसूस करेगे कि ऐसी मनोवृत्तिया सदेव प्रगतिपथ को अवरुद्ध करती हैं। आप चाहे कि अधोगति मे ले जाने वाले सडे-गले कुसस्कारो, मिथ्या रीति-रिवाजो एव खतरनाक अन्धविश्वासो को भी अपने दैनिक जीवन से चिपकाये रखो और जीवन मे वसन्त के आगमन का भी आह्वान करो, तो ये परस्पर विरोधी बाते एक साथ केसे चल सकती हैं ? अभिमान, ईर्ष्या, द्वेष व ऐसे सभी मनोविकारो को अपनी प्रकृति से विदा देने पर ही वात्सल्य, प्रेम, नम्रता, विश्वबन्धुत्व तथा स्व-स्वरूपरमण एव अन्य नवीन सद्गुणो के अतिथि आपके जीवनरूपी प्रागण मे प्रवेश कर सकते हैं। इनका प्रवेश आत्मा को वसन्तश्री से सुसज्जित कर देगा। 110 / चिन्तन-मनन अनुशीलन प्रकृति पतझड मे जब सूखे पत्तो को नीचे गिरा देती है तभी बसन्त खिलता है। अत आपके समाज मे हो या साधु समाज मे - विकृतियो की सूखी पत्तियो को झाडना ही पडेगा। एकता और सही विकास की कडी मे बध जाने के लिये अहितकर दाभिक प्रवृत्तियो को त्यागना पडेगा। जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा जो कर्म मे शौर्य प्रदर्शित करेगे, वे ही तो आखिर धर्म के विराट् क्षेत्र मे भी साहस ओर सजगता के साथ आगे बढ़ सकेगे। जहा शौर्यत्व का ही अभाव है, वहा तो ऐसे लोगो की किसी भी क्षेत्र मे अपेक्षा नहीं की जा सकती। कर्मशक्ति से भागने वाला, ससार के अपने पुनीत व नैतिक कर्तव्यो से सहज ही स्खलित हो जाने वाला, धर्म की दुनिया मे भी स्थिरचित्त कैसे बना रह सकता है ? कोरी कल्पनाए व वाणीविलास किसी भी क्षेत्र मे कार्य की सपन्नता मे सफल नहीं हो सकता । कार्य की सफलता जिस तत्त्व की तह में निहित है, वह है पुरुषार्थ और उसे जगाये बिना न व्यक्ति जाग सकता है और न ही समाज, बल्कि अन्तरतम का विकास भी इसके बिना साधा नहीं जा सकता। पुरुषार्थ के लिये कठिनतम कार्य भी असभव नहीं होते और जहा असभावना की विचारधारा ही नहीं, वहा रुकना और गिरना कैसा ? वहा तो निरतर बढते रहना है और बीच मे आने वाली आपदाओ से सफलतापूर्वक लडते-भिडते रहना है। इसी पुरुषार्थ के प्रबल आवेग मे नेपोलियन ने ललकार कर कहा था कि असभव शब्द सिर्फ मूर्खो के कोष मे होना है और उसने किसी अपेक्षा से बिल्कुल ठीक कहा था । अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा के लिये महान से महान कार्य सपादन भी कतई असभव नहीं। पौरुष के आगे हमेशा राह होती है । कार्यशक्ति कभी असफल नहीं होती। यह एक तथ्य हे किन्तु फिर भी लोगो मे विपरीत वृत्ति देखी जाती है कि वे सुख ओर आनन्द तो चाहते हैं, मगर काम से घबराते हे. आलस्य की शरण में अधिक जाते हैं। इस तरह उन्हें सफलता नहीं मिलती क्योकि बिना सतत प्रयासो के वह सभव नहीं। कर्म के शूर ही धर्म में भी शूर सिद्ध होते हैं, क्योकि बिना शार्य व पुरुषार्थ के धर्माराधना भी कहा ? प्रमादी व्यक्ति तो कहीं भी सफल नहीं हो चिन्तन-मनन अनुशीलन / 111 सकता । भगवान महावीर ने इसीलिये स्पष्ट कहा है कि 'समय गोयम, मा पमायए' अर्थात् हे गौतम । समय मात्र के लिये भी प्रमाद मत कर । छोटा-से छोटा क्षण भी जहा मनुष्य आलस्य से रग देता है वहा उसमे उसके जरिये कुछ-न-कुछ बुराई घुस ही जाती है। जो नियमोपनियम सिद्धान्त को पुष्ट बनाने वाले हो, शुद्ध- सयमी जीवन की उपयोगिता के लिये समाज व व्यक्ति मे जीवन का सदेश फूकने वाले हो, उन्हे बहुत वर्षों के बने हुए होने पर भी नवीन ही समझना चाहिये । किन्तु विवेक एव आत्म-ज्योति को भुलाने वाले नवीनता के नाम पर विकारी भाव व स्वार्थ के पोषक नेतिक भावहीन सुन्दर शब्दो मे नवीन बने हुए कितने ही नियमोपनियम हो वे प्राचीन शब्द से कहे जाने चाहिए। उन शब्दो मे समय का मापदड ठीक नहीं हो सकता, किन्तु सयमी जीवन की उपयोगिता का मुख्य महत्त्व होता है। इस दृष्टि से तत्त्वो का चयन किया जाना चाहिये न कि आज के किन्हीं जोशीले नवयुवको की तरह कि पुरानी सब चीजे त्याज्य हैं, सभ्यता से पिछडी हुई हैं और नई सभ्यता की सारी चीजे ज्यो-की- त्यो अपनानेयोग्य हैं। मैं उन नवयुवको को भी कहना चाहूगा कि दृढाग्रह अलग चीज है और विवेकपूर्ण समझना अलग बात है एव मेरा खयाल हे सही समझ के लिये प्राचीन एव नवीन का ऊपर जो मापदड बताया गया है, वह सभी दृष्टियो से काफी समुचित जान पडेगा। इस नवीनता की स्फुरणा सर्वप्रथम व्यक्ति को निज के जीवन के लिये ग्रहण करनी चाहिये और नवीनता के अनुभूत रहस्य को दूसरो पर प्रगट करना चाहिये, तभी नवीनता का पूर्ण प्रभाव व्यापक रूप से प्रसारित हो सकता है। किन्तु होता क्या है कि कई सुधारक दूसरो के जीवन मे सुधारमय नवीनता लाने के लिए वडा जोर लगाते हैं और अपने जीवन का खयाल कम रखते हैं। व्यक्ति अपने जीवन में कुछ भी न उतार कर दूसरो से कुछ कहे, यह एक प्रभावहीन तरीका है। 112 / चिन्तन-मनन अनुशीलन जानो और करो यह साधारण विवेक की बात है कि हम कोई कार्य निष्प्रयोजन नहीं करते। एक स्थान से उठकर दो घर भी कहीं जाना होता है तो पहले हम सोचते हैं कि यह हमे किसलिये करना है। करने से पहले जो पूर्व विचारणा है, वही ज्ञान है और इसके प्रकाश मे ही हमारा करना सफल हो सकता है। पहले योजना बनाना और फिर उसका अमल करना ही सफलता की कुज़ी हे । आत्मोत्थान के लिए या किसी कार्य के लिये बिना ज्ञानयुक्त क्रिया के कोई लाभ नहीं। न अधे की तरह इधर-उधर भटकने से कोई प्रयोजन हल हो सकता है, न आखो की रोशनी लेकर एक जगह बैठ जाने से किसी स्थान पर पहुचना तो तभी हो सकता है कि आखे खोलकर ठीक रास्ते पर, आगे बढते जाये। इसके लिये पहले ज्ञान का प्रकाश होना चाहिये ताकिं उस, उजाले में मार्ग ठीक-ठीक दिखाई दे और ठीक उसी के लक्ष्यानुसार आगे बढा जा सके। 'जानो और करो' का सिद्धान्त ही आनन्द प्रदान कर सकता है। कतिपय भाई स्वार्थवशात भोली जनता मे शास्त्रविरुद्ध भ्रमणा फैलाने के लिये ज्ञान और क्रिया के सयुक्त महत्त्व पर आघात करते हैं और धर्म, एव पुण्य की असबद्ध व्याख्याओ का निर्माण करते हे। भले ही इस प्रकार की व्याख्याओ से पहले भोली जनता को भ्रमित करने में सफलता मिल. जाये लेकिन वास्तविक उत्थान चाहने वाले जब इन सिद्धातो के विषय मे गभीरता से सोचेगे तो उन्हें निश्चय ही सत्य के धरातल पर आना पडेगा ! सही बात यही है समाज की गति पारस्परिकता पर निर्भर होती है ओर जब यही मानवीय वृत्ति व्यापक होकर समाज के विशाल आगन मे चारो ओर प्रसारित हो जायेगी, तो फिर सभी नागरिक अपने पारस्परिक व्यवहारो मे इस प्रवृत्ति के अनुसार कार्यरत होगे। इसका निश्चय ही यह फल होगा कि कष्टो का उद्भव ही खत्म होने लगेगा। एक दुख नहीं देगा और दूसरे भी दुख नहीं देंगे। इस तरह ही पहले को कभी दुख का सामना नहीं होगा। चिन्तन-मनन अनुशीलन / 113
63208beab6c9d37e9d6b179f191f3003588ca561d15b82fef0c555e039f5be02
pdf
दो ऐसी शर्तें रखी गयी थीं जो प्रचलित विधानके विरुद्ध थी। सन्धिकी तेरहवीं धारा यह थी कि यदि दोनों सन्धिकारी राजो ( प्रशा और अमेरिका ) मेंसे एकसे किसी तीसरे राजसे लडाई छिड जाय और दूसरे सन्धिकारी राजके जहाजॉपर शत्रुकी सहायता के लिए ऐसी चीजें (जैसे गोला-बारूद, शस्त्र इत्यादि) लदकर जाती हो जिनको पहुँचाना युद्धके समयमे मना है तो यह जहाज जब्त न किये जाकर युद्धको मीयाद भर केवल रोक लिये जायँ । तेईसवी धाराक्ष यह थी कि यदि सन्धिकारी राजमें कभी आपसमें ही युद्ध छिड जाय तो एक दूसरेके व्यापारी जहाजको न जब्त करेंगे, न लूटेगे, न नष्ट करेंगे और न उनके व्यापारमें विघ्न डालनेका प्रयत्न करेगे । लिखी जानेके समय ये शर्तें अपवादस्वरूप ही होती हैं पर यदि प्रधान राज इनपर चलने लग जाये तो काल पाकर नियम अपवाद और अपवाद नियम हो जायगा । अर्थयोतक सन्धियाँ जैसा कि नामसे ही प्रकट है इस प्रकारकी सन्धियाँ कोई नया नियम नही बनातीं । इनका उद्देश्य प्रचलित नियमोको स्पष्ट कर देना है। ऐसा बहुधा होता है कि सम्म राज कुछ नियमोका पालन करते आते हैं पर उन नियमोका कही स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता। यह काम अर्थयोतक सन्धियाँ करती हैं। कभीकभी इस विषय में मतभेद होता है कि अमुक अवस्था के लिए कौन-सा नियम उपयुक्त है। ऐसी दशा में यदि कुछ राज मिलकर स्पष्ट शब्दों में नियमोंको लिख डालते हैं तो उनका यह लेख अर्थयोतक सन्धि ही समझा जाता है क्योकि उसके द्वारा अस्पष्ट प्रचलित नियमोकी स्पष्ट व्याख्या हो जाती है। इस प्रकारकी सन्धिका पहिला उदाहरण १८३७ में मिलता है। इस साल रूस और डेन्मार्कमें एक सन्धि हुई जिसे प्रथम सशस्त्र तटस्थता कहते है। उसमें युद्धके समय तटस्थ राष्ट्रॉके अधिकार स्पष्ट किये गये हैं। उसकी कुछ धाराएँ इस प्रकार हैं* १८५३ के बाद यह धारा नहीं दुहरायी गयी। पहिली सन्धिकी मीयाद १८५३ में पूरी हुई थी । † Armed Neutrality ( १ ) युद्ध करनेवाले राजोंके समुद्र तटॉपर और उनके नौ स्थानोमें सभी जहाज जा सकते हैं । ( २ ) युद्ध करनेवाले राजोकी प्रजाओंकी सम्पत्ति तटस्थ राजोके जहाजोंपरसे जब्त न की जायगी; इत्यादि । हम ऊपर हेगके अन्ताराष्ट्रिय सम्मेलनांका उल्लेख कर आये हैं। इनमें भी प्राय. पूर्वप्रचलित नियमका स्पष्टीकरण, वर्गीकरण और संग्रह किया जाता था। कभी-कभी इस प्रकारकी सन्धियोंसे एक और काम लिया जाता है। ऐसे अवसर आ पड़ते है जब एक बलवान् राज किसी अल्प बलशाली राजको कुछ ऐसे नियमोके माननेपर बाध्य करता है जो प्रचलित विधानके अन्तर्गत नही होते । नियम होते तो हैं नये पर छोटे राजकी प्रतिष्ठा बचाने के लिए उन्हें अर्थयोतक सन्धिके रूपमें लिखते है जिससे यह प्रतीत हो कि यह नये नियम नहीं हैं प्रत्युत पुराने नियमोकी व्याख्या मात्र हैं। विधायक सन्धियाँ यह नाम ही बतलाता है कि इस प्रकारको सन्धियाँ नये नियम बनाती हैं। आजकल अन्ताराष्ट्रिय जीवन इतना जटिल हो गया है कि साधारण और प्रचलित नियम सर्वथा पर्याप्त नहीं होते। इसलिए समय-समयपर नये नियमोंकी आवश्यकता पड़ती है। यह प्रायः निश्चित है कि नये नियमोंके बनाते समय सभी राजोंके प्रतिनिधि एकन्न नहीं होते पर यदि प्रमुख राज मिलकर कुछ नियमोको बनायें और अन्य राज, कमसे कम अन्य प्रमुख राज, उसका विरोध न करें तो वह काल पाकर सर्वमान्य हो जाते है । इस प्रकारकी सन्धियोके कई उदाहरण हैं। पहिले यह निश्चय नही था कि युद्धकालमें योद्धाओं और तटस्थोमें समुद्रपर कैसा सम्बन्ध होना चाहिये अर्थात् योद्धाओंको तटस्थोंके साथ छेडछाड़ करनेका कहॉतक अधिकार है। संवत् १९१३ मे पेरिस नगरमें एक सन्धि लिखी गयी जिसे पेरिसकी घोषणा कहते । इस घोषणाको इस विषयकी नियमावली कह सकते हैं ( जो नियम निर्धारित f The Declaration of Paris (1856) हुए उनका यथास्थान आगे चलकर उल्लेख होगा ) । इसपर पहिले-पहिले ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, जर्मनी, आस्ट्रिया, साहिनिया और तुर्कीके हस्ताक्षर हुए। इसके बाद क्रमश चालीस अन्य राजोके हस्ताक्षर हो गये; पर अमेरिकाके संयुक्त राजने आजतक हस्ताक्षर नहीं किये। फिर भी जब-जब काम पडा है वह इस घोषणा के अनुसार ही व्यवहार करता रहा है, इससे यह अनुमान होता है कि उसे भी यह नियम स्त्रीकार है । कुछ ऐसी सन्धियाँ होती है जो नये नियम तो नहीं बनाती पर इस प्रकारके नये निश्चय करती हैं जिनका प्रभाव अन्ताराष्ट्रिय जगत्पर पढे विना नही रह सकता । इनको भी सुविधा के लिए विधायक सन्धियाँके ही अन्तर्गत मानते है । १९३५ में वर्लिनकी सन्धिके द्वारा सर्विया, माण्टिनीओ और रूमानिया तुर्क साम्राज्यसे निकालकर स्वतंत्र कर दिये गये । यद्यपि सन्धिमें थोड़ेसे राज ही सम्मिलित थे पर उनके इस निश्चयका प्रभाव सारे अन्ताराष्ट्रिय जगत्पर पड़ा। इसलिए उस संधिको विधायक संधि कह सकते हैं। प्रथम महासमरके पश्चात् यूरोपमें जो संधियाँ हुई थीं इसी ढंगकी थीं । जब किसी राजके सामने कोई ऐसा अन्ताराष्ट्रिय प्रश्न आता है जिसकी व्यवस्थाके विषय में उसका मंत्रिमण्डल स्त्रयं निर्णय करनेमें असमर्थ होता है तो वह अपने देशके प्रख्यात शास्त्रियो अर्थात् विधानशास्त्र के ज्ञाताशास्त्रियोंकी से सम्मति लेता है। यह विद्वान् लोग जो व्यवस्था देते उसका मानना अनिवार्य तो नहीं होता पर अपने देशके ही शास्त्रियोंसे सम्मति माँगकर फिर उसका तिरस्कार करना भी सुकर नहीं होता। यदि वह राज भी जिससे विवाद चल रहा हो, इस सम्मतिको मान ले तव तो वह सम्मति और भी मान्य हो जाती है। निष्पक्ष विद्वानांकी सम्मतियाँका यही महत्व है कि अधिकांश राज उन्हें मान लेते हैं । यदि दो राजोंमे किसी विषयमें मतभेद हो जाय तो उसे दूर करनेके दो ही मार्ग हैं-युद्ध या समझौता। समझौता कभी-कभी तो आपसकी लिखा-पढीसे हो जाया करता है पर बहुधा नहीं भी होता । तव दोनों राज मिलकर किसी तीसरे राजको या तीन-चार राजाँको पन्च मान लेते हैं। इस पन्चायतके निर्णयको लेते हैं। राष्ट्रसंघने तो एक अन्ताराष्ट्रिय न्यायालय ही स्थापित कर दिया था। अब संयुक्त राज-संघटनने पुन, अन्ताराष्ट्रिय न्यायालय स्थापित किया है। यद्यपि इन न्यायालयांके सामने विशेष-विशेष प्रश्न ही आते हैं पर इनके निर्णयों में बहुधा सिद्धान्तकी बाते रहती है। यह ठीक वैसी ही बात है जैसे कि साधारणत हाईकोर्ट और प्रिवीकौसिलके न्यायाधीशोके महत्त्वपूर्ण निर्णय भविष्य के लिए प्रमाण ( नज़ीर ) हो जाते हैं । युद्धके समय कई बढे जटिल प्रश्न उपस्थित होते हैं। प्रत्येक राजको शत्रुके जहाजोको पकड लेने और उनपरकी सारी सम्पत्ति जब्त कर लेने का अधिकार होता है। विशेष अवस्थाओंमें, जिनका उल्लेख आगे होगा, शत्रुके अतिरिक्त तटस्थ राजोके जहाज़ भी पकड़े जाते हैं। पकडनेवाले जहाज़ इन्हें अपने देश लाते हैं। वहाँ एक विशेष न्यायालय युद्धकालके लिए बैठाया जाता है जिसे सामरिक न्यायालय कहते हैं। इस न्यायालयको इन मामलोंका निर्णय करना पडता है। काम बडा टेढा होता है। एक ओर न्याय और अन्ताराष्ट्रिय विधानके अस्पष्ट नियम होते है, दूसरी ओर अपने देशको युद्ध में फँसा देखकर यह भाव स्वतः होता है कि जो उसके विरोध में खड़ा हो या विरोधियोंको सहायता दे उसे कडा दण्ड दिया जाय, पर जो निष्पक्ष न्यायाधीश होते हैं उनके निर्णय स्वभावत, निर्भीक होते हैं। ऐसे न्यायाधीश अपने ढेशकी सरकारकेविरुद्ध निर्णय करने में भी सङ्कोच नहीं करते। ऐसे निर्णय स्वभावतः अन्य देशो में भी प्रमाणस्वरूप हो जाते है । जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं अन्ताराष्ट्रिय प्रश्नोंका सबसे प्रामाणिक निर्णय सन्धियों द्वारा होता है । सन्धियाँ प्राय प्रकाशित की जाती हैं मत. उनके तात्पर्यसे सभी परिचित हो जाते हैं। राजोंके पत्र-व्यवहारके लिए साधारणतः यह नियम उपयुक्त नही है । यह पत्र व्यवहार प्राय विशेष प्रश्नांके सम्बन्धमें होता है जिनसे अन्य लोगोंसे कोई सम्बन्ध नहीं होता। इसलिए वह प्रायः प्रकाशित भी नही किया जाता । यदि प्रकाशित किया भी जाय तो उसका महत्व केवल राजोके पत्रव्यवहार ऐतिहासिक होगा। पर कभी-कभी ऐसे प्रश्न उठ जाते हैं जिनमें कोई सिद्धान्त अन्तर्गत होता है। ऐसे पत्र-व्यवहारके प्रकाशित हो जानेसे उस सिद्धान्तपर प्रकाश पडता है। इसके कई उदाहरण है। जर्मनीके सम्राट् षष्ठ चार्ल्सने कुछ अंग्रेज महाजनोंसे ऋण लिया था और उसे चुकानेके लिए उन्होंने साइलीशिया प्रान्तकी वार्षिक आयका एक भाग नियत कर दिया। संवद् १७९९ में यह प्रान्त प्रशाके नरेश baftes हाथमें आया। उसने भी यह वचन दिया कि ऋण पूर्ववत् चुकाया जाता रहेगा। यह बात दस वर्पतक रही। इस बीच में प्रशा और इंग्लैण्डमें कुछ अनबन हो गयी और अंग्रेजोने प्रशाके कुछ जहाज ज़ब्त कर लिये। झडरिककी सम्मतिमें यह अन्याय था और उन्होंने इसके बदले अंग्रेज महाजनांका ऋण देना बन्द कर दिया। इसपर बहुत कुछ पत्र-व्यवहार चला । अंग्रज सरकारकी ओरसे यह दिखलाया गया कि राजकी अनबनके कारण महाजनोंको क्षति पहुॅण्वाना अनुचित है। प्रशाकी सरकारने भी अन्तमें इस तर्कको स्वीकार कर लिया। साइलीशियन ऋणका प्रश्न तो १८१३ मे सन्धि द्वारा तय हो ही गया पर जिस सिद्धान्तपर अंग्रेजोंने आग्रह किया था उसे अन्य राजोने भी स्वीकार कर लिया और इस पत्र व्यवहारको अन्ताराष्ट्रिय जगत्मे एक नये विधानको प्रचलित करनेका श्रेय प्राप्त हो गया । अन्ताराष्ट्रिय विधानके एक आधारका उल्लेख शेप है। अभीतक जितने आधारोका जिक्र किया गया है उनमें प्रायः दो या तीन राजोके सहयोगको आव श्यकता है। कभी-कभी एक राज भी विधानमें प्रामाणिक परिवर्तन कर सकता है। जितने नियम हैं वह सब एक साथ तो बने हैं नहीं, ज्यों-ज्यो आवश्यकता प्रतीत हुई त्यों-त्यो नियम बनते गये । युद्धके समय शत्रुके जहाजोके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, इस विपय में कोई ठीक नियम न थे । १७१८ में फ्रेज सरकारने अपने जहाजोंके लिए कुछ नियम बनाये। यह नियम इतने अच्छे प्रतीत हुए कि अन्य राजाने भी इन्हें मान लिया। इसी प्रकार १९२० में अमेरिकन सरकारने अपनी सेनाके लिए कुछ नियम बनाये । यह नियम भी शीघ्र ही सर्वमान्य हो गये । यह तो स्पष्ट ही है कि किसी एक राजका अपने भृत्योके नाम भेजा हुआ निर्देश स्वतः कोई अन्ताराष्ट्रिय महत्त्व नहीं रखता पर जब अन्य नियमोंके अभाव में दूसरे राज भी उस निर्देशके अनुसार व्यवहार करने लग जाते हैं तो वह 'निर्देशकोटिसे निकलकर अन्ताराष्ट्रिय विधानका एक अग हो जाता है। ऊपर जिन सात आधारोंका उल्लेख किया गया है उन्हींपर अन्ताराष्ट्रिय विधानकी भित्ति खडी है, पर यह बात कदापि न भूलना चाहिये कि अन्ताराष्ट्रिय विधान अन्य विधानोसे भिन्न है। उसके साथ अभीतक कोई निश्चित दण्डधर नहीं है। उसके नियमोंका पालन इसलिए होता है कि बहुत से नियम बुद्धिसंगत है अतः उनको माननेमे सुविधा होती है और उनको मानना सभ्यताका परिचायक समझा जाता है । यह डर रहता है कि जो राज इन नियमांकी उहण्ड अवहेलना करेगा उससे सारा सभ्य जगत् असन्तुष्ट होकर एक प्रकारका असहयोग करने लग जायगा। फिर भी जो राज अपनेको बलवान् समझता है वह लोकमतकी भी उपेक्षा कर बैठता है। सब नियम घरे ही रह जाते हैं पर बलशाली राज अपनी मनमानी कर डालते हैं। इतना अवश्य है कि आजकल धीरेधीरे लोकमत प्रबल होता जा रहा है। स्यात् कभी ऐसा भी समय आ जाय जब कोई उसके विरुद्ध आचरण करनेका साहस न कर सके । संयुक्त राज-संघटनके स्थापित हो जानेसे यह आशा और भी इन हो गयी है । पाँचवाँ अध्याय दौत्य ग्राह एक बडा ही रोचक विषय है। प्राचीन कालसे ही एक राजसे दूसरे राजमें दूत भेजनेकी प्रथा चली आती है । जङ्गली जातियोतकको इसकी आवश्यकता प्रतीत होती है। दूत सर्वत्र अवध्य माना गया है। प्राचीन कालमे और जङ्गली जातियोंमें भी परराजसे आये हुए दूतको मारना घृणित कार्य समझा जाता था । जिस प्रकार मनुष्योका काम बिना एक दूसरेसे मिले-जुले नहीं चल सकता उसी प्रकार राजोके लिए भी एक दूसरेसे सम्पर्क और संसर्ग रखना आवश्यक और अनिवार्य होता है। जिन व्यक्तियोके द्वारा यह सम्बन्ध स्थापित और प्रचलित होता है अर्थात् जो व्यक्ति इस काम के लिए राजीके प्राचीन आर्य-काल प्रतिनिधि होते हैं उन्हें दूत कहते हैं। आर्यकालमें एक राज॑से दूसरे राजमें दूत भेजनेकी बराबर प्रथा थी। कभी-कभी दूत शब्दके अन्तर्गत 'चार' का भी अर्थ ले लिया जाता है पर दोनोंमे बडा अन्तर है। 'चार' गुप्त 'रूपसे भेष बदलकर भेद लेने जाता था। वह छिपा जासूस था ।वह यह नहीं कहता था कि मै अमुक राजका भेजा हुआ हूँ। उसके पफडे जानेपर उसको भेजनेवाला राज भी उसकी रक्षा के लिए कोई प्रकट प्रयत्न नही करता था। परन्तु दूतकी यह बात न थी। वह स्पष्ट रूपसे आता-जाता था । उसके लिए यह नियम था-'अविज्ञातो दूत परस्थानं न प्रविशेतिगच्छेदा' 8 अर्थात् बिना बतलाये हुए, दूत न तो परस्थानमें प्रवेश करे. न परस्थानसे बाहर निकले। यह हम ऊपर कह चुके हैं कि दूत अवध्य होता था। इसे विषय में यह • इस अभ्यायमें जो गद्य सूत्र दिये गये हैं वह श्रीमत्सोमदेव सूरिके 'नीति वाक्यामृतम्' से लिये गये है।
a87a48c036d8e39ccda66f6c1f01e532183acedd5ee4be45c62b46672b4ce77f
pdf
हम लोगों के पास आ जायेंगे और सब मिलकर हिंदू विश्वविद्यालय देखने चलेंगे । दूसरे दिन प्रातःकाल पूर्व निश्चय के अनुसार प्रेमचंदजी हम लोगों पास पहुंच गये । उसी दिन शाम की गाड़ी से दिल्ली वापस जाने का विचार था । इस कारण यह निश्चय किया गया कि होटल से उसी समय सामान उठा लिया जाय और उसे किसीके यहा रखकर तागे से विश्वविद्यालय चला जाय । सामान लिये लिये दिन-भर घूमना अच्छा प्रतीत नही होता । निश्चय तो हो गया, परंतु प्रश्न यह उठा कि सामान कहां रखा जाय। जिन सज्जनो से मेरा परिचय था, उनके स्थान वहां से बहुत दूर थे । प्रेमचंदजी का मकान भी काफी दूर था। फलतः मैंने उनसे कहा कि कोई पास की ऐसी जगह वतलाइये, जहां सामान रख दिया जाय। उन्होंने उत्तर दिया कि मुझे तो वनारस के स्थानों या व्यक्तियों से विशेष परिचय नहीं है। मैं ऐमा कोई स्थान कैसे बताऊं । इस उत्तर से हमारे आश्चर्यान्वित होने पर वह खिलखिलाकर हंसे, जैसाकि वह प्रायः हसा करते थे । प्रेमचंदजी की वह हंसी उनकी अरती ही चीज थी। कभी-कभी यह समझना कठिन हो जाता था कि वह क्यो हंसे। कोई बाह्य कारण समझ में नहीं आता था । असल वात यह थी कि उनकी हंसी उनके हृदय की सादगी का एक प्रत्यक्ष उद्गार हुआ करती थी। वह बच्चों को सो सरल हंसी थी, प्रौढ़ों को-सी नियमित या पेचीदा हंसी नहीं । उनके मित्र जानते हैं कि कई अशों में वह अंत तक बच्चों की तरह सरल रहे । सामान कहां रखा जाय, इस प्रश्न पर देर तक विचार होता रहा। इसी बीच में तांगा आ गया और हमारा सामान उठने लगा । जब हम लोग उसमें बैठ गये और तांगा चलने लगा, तब मैंने प्रेमचंदजी से कहा, "अच्छा, तो यह बात रही कि रास्ते में जो आदमी आपको पहचानकर 'नमस्ते' या 'जयरामजी की' करे, सामान उसोके सुपुर्द किया जाय।" इसपर प्रेमचंदजी फिर ठहाका मारकर हंसे और बोले, "तब तो आपका सामान विश्वविद्यालय तक ही पहुंचेगा ।" तांगा चल दिया और उन दुकानों के पास से गुजरने लगा, जहा प्रेमचंदजी के उपन्यास बिक रहे थे। परंतु किसोने उन्हें पहचानने वा कष्ट नही उठाया । नाम से उन्हें हजारों आदमी पहचानते होंगे, परंतु सूरत से पहचाननेवाले विरले ही होंगे। सामान रखने की समस्या पर तर्क-वितर्क करते हुए और हंसते हुए शहर की सीमा पर हम पहुच गये और लगभग निराश हो चुके थे कि एक गांधी टोपीवाले साइकिल सवार सज्जन ने नमस्कार किया । हमारी आशा हरी हो उठी । तांगा खड़ा करके मैंने उन सज्जन से पूछा कि क्या आप हमें ऐसा कोई स्थान बता सकते हैं, जहां हम दिन-भर के लिए सामान रख सकें ? उत सज्जन ने हममे से किसीको पहचान लिया या उन्हे हम लोगों की दशा पर दया आ गई, यह ठीक-ठीक कहना कठिन है। उन्होंने एकदम उत्तर दिया, "आइये, मेरे पीछे-पीछे चले आइये । सामान रखवा देता हूँ हम उन दयालु सज्जन के पीछे अपना तांगा लेकर चल दिये । वह हमें एक गली में ले गये और एक बहुत बड़े पुराने ढंग के सदर दरवाजे के सामने खडा कर गये । दरवाजे पर दो बंदूकधारी सिपाही पहरा दे रहे थे। उस राज्जन ने उनसे अकेले में कुछ बातचीत की और फिर हमसे सामान रख देने को कहा । सामान उतारकर दरबान के साथ की कोठरी में रख दिया । पहचान के लिए मेरा एक विजिटिंग कार्ड उस पर नत्थी कर दिया। इस प्रकार सामान सुरक्षित स्थान पर रखकर और सज्जन को धन्यवाद देकर हमलोग तागे में बैठकर चल दिये । तागे के कुछ दूर पहुंचने पर हम लोग स्वयं अपनी असावधानी पर आश्चर्य करने लगे। न वह सज्जन हमारे परिचित थे और न सिपाही । यह भी मालूम नहीं था कि मकान किसका है। बातों में सब सामान देकर चल दिये, यह वस्तुतः अचंभे की बात थी। मुझे अधिक आश्चर्य इस यात वा था कि यह कार्य मेरी पत्नी के साथ से बहत धिक सावधान हैं। मालूम होता है कि हम दोनों की परछाई उस मय उन पर भी पड़ गई थी । दोपह के बाद हम लोग विश्वविद्यालय से लौटे । जबसे सामान सिपाइयों के सुपुर्द करके चले थे, तबसे हम लोग अपनी असावधानी पर आश्चर्यान्वित थे। परिस्थिति की नवीनता का मजा ले रहे थे और विष्य के बारे में सदिग्ध थे । लौटने पर सामान मिलेगा या नहीं, स प्रश्न का उत्तर एक-दूसरे से मांग रहे थे । यों अपने सहज आशादी स्वभाव के कारण मैं यही कहे जा रहा था कि सामान अवश्य मलेगा, परंतु कहा और कैसे मिलेगा, मुझे भी मालूम नहीं था । हां सामान रखा था, वहां सदर दरवाजे पर पहुंचे, तो स्थिति उलझी दिखाई दी। जिन सिपाहियों ने हमसे सामान संभाला था, वे ड्यूटी जा चुके थे और जहां सामान रखा था, वहां उसके कोई निशान नही थे । सिपाहियों से सामान के बारे में पूछा गया तो उन्होंने प्रश्न किया, "आप कहां से आये है ?" जब उन्हें बताया गया कि हम दिल्ली से आये हैं, तो उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखकर मानो आखोंही आंखो में सलाहकर उत्तर दिया कि आप ठहरिये पूछकर बताते हैं। मामला रहस्यमय होता जा रहा था । हमारा सामान वापस देने में पूछने की क्या जरूरत थी ? अब तो हम आँखों-ही-आखों से सलाह करने लगे कि अब क्या होगा और क्या किया जाय । सिपाहियों ने ठहरने को कहा था, और ठहरने के सिवा चारा हो क्या था ! ठहरकर उत्तर की प्रतीक्षा करने लगे । थोडी देर में ऊपर की मंजिल से लौटकर सिपाही ने कहा, "आप लोग उधर कुरसी पर बैठें, दीवानजी अभी आते हैं।" स्थिति और भी पेचीदा हो गई ! वीच में यह दीवानजी कहां से कूद पड़े ! थोड़ी देर में दीवानजी आये । अधेड़ उम्र के एक दरवारी सज्जन थे। हमारे पास आकर बैठ गये और बहुत नम्रता से कहा, "आप लोगों के आने से रानीजी बहुत खुदा हुई हैं। उनकी इच्छा है कि आप जलपान करें।" दीवानजी के इस निवेदन ने हम सबकी स्मृति को मानो खींचकर 'चंद्रकांता संतति' के स्थानक पर पहुंचा दिया। बनारस शहर का बहुत वडा मकान, सामान नदारत, एक दीवानजी और एक रानीजी और हम लोग राहगोर ! कहानी का कथानक तैयार मालूम होता था । मैंने प्रेमचंदजी के कान में कहा, "आज उपन्यास सम्राट के संग से उपन्यास का मसाला बनेगा, ऐसा प्रतीत होता है।" इसपर दीवानजी की उपस्थिति को भुलाकर हमलोग हंसने लगे । ऐसा जान पड़ता था, मानो सामान पर कब्जा करने के बाद अब जेबो पर हाथ साफ करने का इरादा है। इधर हालत यह हो रही थी, उधर हम लोगों के दिलों में यह उत्सुकता बढ रही थी कि देखें, आखिर मामला क्या है । अगर यह मकान तिलिस्म है, तो लोग तिलिस्म मे से भी तो निकलते ही रहे है । अत मे हमने दीवानजी को उत्तर दिया, "यह तो आप लोगों की कृपा है । यो हम लोग इस समय जलपान के आदो नही हैं, तो भी जब रानीजी का आग्रह है, तो इन्कार भी नही कर सकते ।" इसपर धन्यवाद देते हुए दीवानजी उठकर चले गये और थोड़ी देर मे लौटकर हमे ऊपर लिवा ले गये । कई सीढ़ियों और कई दरवाजों में से होते हुए हम एक खूब सजे हुए ड्राइंग रूम में पहुंचे, जिसकी बडी विशेषता यह थी कि उसमें खिडकियो और दरवाजो पर बहुत बड़े रंगीन रेशमी परदे टंगे हुए थे। हमलोग कोच पर बिठलाये गये । थोड़ी देर में साफ-सुथरे नौकर चाय का सामान लाकर हमारे सामने रख गये । जब चाय का सामान आ गया, तो हमें चुपचाप बैठे देखकर दीवानजी ने कहा, "शुरू कीजिये ।" हम प्रतीक्षा में थे । आशा थी कि रानीजी दर्शन देंगी। पर हमे बड़ा आश्चर्य हुआ, जब पता चला कि रानीसाहिवा परदानशीन हैं और वहा नहीं आ सकेंगी। उन्होंने हमें नमस्कार भेजे। उस समय हमने अनुभव किया कि उस परदे के पीछे, जो अंदर की दीवार के मध्य में टंगा हुआ था, कुछ सरसराहट-सी हुई । रहस्य और भी गंभीर हो गया । रानीसाहिबा की ओर में दावत है और वह दिखाई नहीं देती । सामान वापस देने की कोई उपन्यास- सम्राट प्रेमचंद चर्चा नहीं और मकान भी ऐगा है कि निलाकर भी सड़क तक आवाज नही पहुंचाई जा सकती। एक बार मन में संदेह उठा कि नमकीन या मिठाई में नशे या बेहोशी को कोई चीज मिली हुई न हो । फिर आंसों-ही- आंखों से सलाह की और अंत में सर्वसम्मति से निश्चय किया गया कि इस परीक्षण को अंततक पहुंचाया जाय । निश्चित होकर चाय पी। अत मे दीवानजी को और उनके द्वारा रानीसाहिया को धन्यवाद करके उठ खड़े हुए। तबतक भी दीवानजी ने सामान की कोई चर्चा नहीं की। जब मैंने उन्हे प्रेमचंदजी का और अपना परिचय देना आरंभ किया, तो वह हंसकर बोले कि आपका परिचय तो हमें सामान में लगे विजिटिंग कार्ड से मिल गया था। दीवानजी के उत्तर में सामान शब्द आने से हमें कुछ ढाढस हुआ कि आखिर मामान की जवाबी रसीद तो मिल गई । उसी सिलसिले को जारी रखते हुए मैंने दीवानजी से कहा कि हमे आज दिल्ली वापस जाना है। सामान निकलवा दीजिये, तो हम लोग स्टेशन चले जायं । दोवानजी ने बड़े शिष्टाचार से उत्तर दिया कि सामान की चिंता न कीजिये, वह स्टेशन पर पहुंच जायगा । पाठक अनुमान लगा सकते है कि इस उत्तर ने रहस्य को कितना अधिक गंभीर बना दिया होगा । हम लोग अपने-आपको बिलकुल लाचार अनुभव करने लगे। अब तो उस मकान से बाहर जाना भी एक समस्या बन गई । हमने यहा, "तो हमे स्टेशन जाने की आज्ञा दीजिये ।" इसका दीवानजी ने जो उत्तर दिया, वह अजीब था। कम-सेकम उस समय वह बहुत ही चक्करदार मालूम हुआ । उन्होंने कहा, "आप लोग थोड़ी देर बैठिये । मैं अभी प्रबंध करने जाता हूं ।" यह कहकर दीवानजी कमरे से बाहर हो गये और हम लोग थोड़ी देर के लिए अपनी उपस्थिति की 'चंद्रकांता संतति' के दृश्यों से तुलना करने के लिए स्वतंत्र हो गये। दिल मे कितनी घबराहट रही हो, पर प्रत्यक्ष मे हम काफी उत्साह से हंसते रहे । थोडी देर में दीवानजी लौटकर आये और कहा कि चलिये, गाड़ी हाजिर है । जय दरवाजे पर पहुंचे, तो पहरे के सिपाहियों ने बाकायदा सलामी दी। सामने देखा तो सडक पर एक बहुत शानदार लंडो गाड़ी खड़ी हुई थी, जिसमें चौकडी जुतो हुई थी। दो वरदीवारी सिपाही पीछे और एक आगे कोचवान के पास तैनात थे । कोचवान भी पूरे वेश मे था । दीवानजी ने हमको गाड़ी में विटलाते हुए कहा, "सामान आपको स्टेशन पर मिल जायगा ।" गाडी चल दी, तो प्रेमचंदजी खूब जोर से हंसे और बोले कि ऐसी गाड़ी बनारस में है, यह मैंने पहली बार जाना है । इसपर मैं चढूंगा, यह मुझे स्वप्न में भी खयाल नहीं था । इस प्रकार परिस्थिति पर विनोद करते हुए जब स्टेशन पर पहुंचे, तो देखते क्या हैं कि हमारा सामान प्लेटफार्म पर पड़ा है और रियासत के दो सिपाही उसकी रक्षा कर रहे हैं। हम लोगो ने गाड़ी से उतरकर अपना सामान संभाल लिया । मेरी पत्नी ने शिष्टाचार को पूरा करते हुए कोचवान को और सिपाहियों को दो-दो रुपये इनाम में दिये । हमें छोड़कर प्रेमचंदजी को वह गाड़ी उनके घर तक पहुंचाने गई और हम दिल्ली की गाड़ी पर सवार हो गये । उस समय हम यह पूछना भूल गये कि जिनकी कृपा से हमारा आतिथ्य हुआ, वह रानीसाहिवा किस रियासत की थी। कुछ वर्ष पीछे दोवान महोदय का पत्र आया । उसमें उन्होंने यह दुखद समाचार लिखा कि वह देवी, जो वसौली की राजमाता थीं, स्वर्गलोक सिधार गई हैं और इस कारण दीवानजी की नौकरी भी छूट गई । जनश्रुति प्रसिद्ध है कि प्रकृति मनुष्यों के निर्माण में दो पीढ़ियों में अपना हिसाब पूरा कर लेती है। इंग्लैंड के प्रसिद्ध लेखक और वक्ता लाई मैकॉले के पिता के बारे में कहा गया है कि वह बहुत कम बोलते थे, यहांतक कि उनके बोलने की औसत घंटे में चार वाक्यों की होती थी और लार्ड मैकॉले ? वह तो पहले दर्जे के बावक थे। उन्हें चायगोष्ठी का तानाशाह कहा जाता था । पिता और पुत्र मे थोड़ी-बहुत समानता तो रहती है, परंतु अधिकतर विषमताएं ही पाई जाती हैं । अपवाद हो सकता है, परंतु सामान्य नियम यह है कि पिता और पुत्र का 'टाइप' एक होते हुए भी रूप बदल जाता है। श्री देवदास गाधी इस नियम के अपवाद नही थे । वह सामान्य नियम के बढ़िया दृष्टांत थे ! उनकी रूपरेसा वही थी, जो उनके जगविदित पिता श्री मोहनदास करमचंद गांधी की थी, परंतु उसमे भरे हुए रंग बहुत कुछ मिन्न थे । यह बात स्पष्टता से मैंने तब अनुभव की, जब १९३० के नमक सत्याग्रह में हम दोनों कई महीने तक दिल्ली के डिस्ट्रिक्ट जेल मे साथ-साथ रहे । मनोवैज्ञानिक अध्ययन की दृष्टि से जेल को अत्यंत उपयुक्त परीक्षणशाला कह सकते हैं । वहां कोई व्यक्ति देरतक मुंह पर नकाब नही रख सकता । जल्दी या देर मे उसका असली रूप प्रकट हो ही जाता है । यही कारण है कि स्वाधीनता संग्राम की जेल यात्राओं में सत्याग्रही देशभक्तों ने परस्पर व्यवहार द्वारा कई पूज्य मूर्तियों को टूटते और कइयों को बनते देखा। जेल मे मनुष्य के आंतरिक गुण और अवगुण सात परदों को फाड़कर बाहर निकल आते हैं। मैं अपना सौभाग्य समझता हूं कि मनोविज्ञान की उस प्रयोगशाला में मुझे अनेक महापुरुषों के सूक्ष्म निरीक्षण का अवसर मिला । देवदासजी का पूरा परिचय भी मुझे जेल में ही मिला । यों वह मेरा और उनका प्रथम परिचय नहीं था। प्रथम परिचय गंगा पार की गुरुकुल भूमि में हुआ था । जव महात्माजी ने दक्षिण अफरीका से निवृत्त होकर भारत को अपना कार्यक्षेत्र बनाने का निश्चय किया, तो उन्होंने यहां आने से पूर्व अपने आश्रम के बालकों को गुरुकुल कांगडी में कुछ समय तक निवास के लिए भेज दिया था। उन बालकों में देवदासजी भी थे। उस समय हम लोगों पर उनकी सौम्यता का बहुत गहरा असर हुआ। प्रार्थना के समय वह बड़ी तन्मयता से भजन गाते थे । वह अपनी आयु के अन्य बालकों से विशेष समझदार प्रतीत होते थे । कुछ महीनों तक गुरुकुल में रहकर आश्रम के सव छात्र साबरमती चले गये, जहां महात्माजी का प्रसिद्ध 'सत्याग्रह आश्रम स्थापित हो रहा था। उसके पश्चात बहुत समय तक देवदासजी से मिलने का अवसर नहीं मिला । मैं गुरुकुल छोडकर दिल्ली आ गया और अध्यापक से पत्रकार वन गया । देवदासजी भी दक्षिण में हिंदी प्रचार का कार्य करके अंत में दिल्ली आ गये और यहां के सार्वजनिक जीवन में भाग लेने लगे । दिल्ली मे रहकर भी बहुत दिनों तक हम दोनों को परस्पर मिलने का अवसर नहीं मिला । १९३० के अंत मे देश भर मे नमक सत्याग्रम-संग्राम का बिगुल बज गया। मुझे दिल्ली के अधिकारी सत्याग्रह आरंभ करने से कुछ पहले ही जेल में ले गये थे। मेरे जेल जाने पर दिल्ली में एक सार्वजनिक सभा हुई। उसमें देवदासजी का भी भाषण हुआ। उस भाषण में देवदासजी ने मेरे संबंध में कुछ शब्द कहते हुए एक ऐसे तार को हिला दिया, जिसकी झंकार मुझे जेल की ऊंची दीवारों के अंदर भी सुनाई दे गई। उन्होंने लोगों को देशभिक्त के एक गीत के कुछ पद सुनाकर कहा, "यह गीत इंद्रजी का बनाया हुआ है और इसे हमने तब याद किया था, जब हम छात्रावस्था में गुरुकुल में रहे थे। तब यह गीत प्रार्थना के समय गुरुकुल में गाया जाता था और अब सत्याग्रह आश्रम मे गाया जाता है ।" गोत का प्रारंभिक पद यह था : ऐ मातृभूमि, तेरे चरणों में सिर नवाऊं । मुझे जेल में देवदासजी के भाषण का समाचार सुनकर दो बातें याद मा गईं । एक तो याद आ गई उनकी वह सौम्य भूति, जो पहले-पहल गुरुकुल में देखी थी और दूसरी याद आ गई यह बात कि सचमुच मैंने एक ऐसा गीत लिखा था। मैं तो उस गीत को सर्वथा भूल ही गया था। मैंने छात्रावस्था में हिंदी और संस्कृत में कविताएं और गीतियां लिखी अवश्य थीं, परंतु मैं कवि नहीं हूं । इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मुझे अपनी बनाई कविताएं माद नहीं रहती। यह भी याद नहीं कि कोई कविता लिखी भी थी। जब अपनी पूर्वावस्था की लिखी कविता को सुनता हूं, तो ऐसा भान होता है कि यह कविता कभी सुनी थी । देवदासजी ने लगभग २० वर्षों के पश्चात मुझे स्मरण करा दिया कि मैं कभी कविता भी किया करता था । इसके लगभग एक सप्ताह पश्चात देवदामजी अनेक अन्य मित्रो के साथ जेल मे आ गये । हम सब लोग दिल्ली जेल की पुरानी गोरा वारक में ठहराये गये थे। उन दिनो जेल के दरोगा पं० वधावाराम थे, जिन्हें हम हरिण्यकशिपु की पुरी में प्रह्लाद भक्त को उपाधि दिया करते थे। कई वर्षों के पश्चात देवदासजी के बाह्य आकार को बहुत बदला हुआ देखकर पहले कुछ आश्चर्य हुआ। उनका शरीर भारी हो गया था और वापू के हल्के शरीर से मेल नहीं खाता था । आंखों के नीचेऊपर के आवरणों में कुछ भारीपन दिखाई देता था। मैंने अपने मन में युवा देवदासजी का जो महात्माजी के अनुरूप चित्र खीच रखा था, उससे कुछ भिन्न पाया । परंतु जब कुछ दिन रहकर अधिक परिचय प्राप्त हुआ, तब दो बातें स्पष्टता से अनुभव होने लगी। एक यह कि ऊपर दिनचर्या में देवदासजी अपने पिता से बहुत हो भिन्न हैं और दूसरी यह कि स्वभाव और शोल में वह दीपक से जले हुए दीपक के समान पिता के सहा ही उज्ज्वल हैं। उन दिनों उनकी दिनचर्या यह थी कि प्रातःकाल वह सूर्योदय के साथ या कुछ पीछे सोकर उठते थे । महात्माजी सुबह तीन बजे उठनेवाले और देवदासजी सूर्योदय की प्रतीक्षा करने वाले दर्शकों को बड़ा भेद प्रतीत होता था। धीरे-धीरे नित्यकर्म
8da6bd5ce4eb8d40d20d2a5826ab59550b9622e0ccf4bda0e0cdbfaae1169efc
pdf
से होकर गुज़रे थे, "क्या मुझे भी मुक्त होने के लिए उन अवस्थाओं से होकर नहीं जाना पड़ेगा?" अर्थात क्या विभ्रम से मुक्त होने के लिए हम सब को विभ्रम का अनुभव नहीं कर लेना होगा? इसलिए, क्या प्रश्न यह नहीं हैः "क्या मुक्त होने हेतु कुछ विशिष्ट प्रारूपों का, ढांचों का अनुसरण करने या उन्हें स्वीकार करने एवं उन प्रारूपों के हिसाब से जी लेने से समझ का आगमन होता है?" उदाहरण के लिए, मान लें कि कभी किसी वक्त आप किन्हीं खास धारणाओं में विश्वास किया करते थे, पर अब आपने उन्हें परे हटा दिया है, आप मुक्त हैं और आपमें बोध है, समझ है। और मैं उधर आता हूं एवं देखता हूं कि आप कुछ विशेष विश्वासों के अनुसार जीते रहे और फिर आपने उन्हें त्याग दिया व समझ उपलब्ध कर ली। तो मैं खुद से कहता हूं, "मैं भी उन विश्वासों का अनुसरण करूंगा या उन विश्वासों को स्वीकार कर लूंगा और आखिरकार बोध तक, समझ तक पहुंच ही जाऊंगा।" निश्चित ही यह एक गलत प्रक्रिया है, है ना? जो महत्त्व की बात है, वह है समझना। क्या समझ समय का मसला है? यकीनन नहीं। अगर आपकी किसी चीज़ में दिलचस्पी है, तो समय का सवाल ही नहीं उठता। आपका पूरा अस्तित्व एकाग्रता से, पूरी तरह उस चीज़ में तल्लीन होता है। समय का सवाल तो इसमें तभी आता है, जब आप कोई फल, कोई परिणाम प्राप्त करना चाहते हैं । अतः यदि आप बोध को, समझ को एक लक्ष्य की तरह मानकर चलते हैं जिसे आपने हासिल करना है, तब आपको समय की दरकार होती है, तब आप 'तत्काल कर लेने' या 'स्थगित कर देने की बात उठाते हैं। परंतु समझ निश्चित ही एक परिणाम प्रक्रिया नहीं है। समझ का बोध का आगमन तब होता है, जब आप शांत होते हैं, जब मन निश्चल होता है। और यदि आप मन के निश्चल होने की आवश्यकता को देख लेते हैं, तो समझ तत्काल ही घटित होती है। प्रश्न : आपके अनुसार सच्चे अर्थों में ध्यान क्या है ? कृष्णमूर्ति : ध्यान का उद्देश्य क्या है? और आप ध्यान को किस अर्थ में लेते हैं? मुझे मालूम नहीं कि आपने कभी ध्यान किया है क्या; अतः आइए, यह पता लगाने के लिए साथ-साथ प्रयोग करें कि सच्चे अर्थों में ध्यान क्या है। आप इस बारे में केवल मेरे कथन को ही न सुनें, अपितु हमें साथ-साथ अन्वेषण तथा अनुभव करना है कि सत्य ही में ध्यान होता क्या है। क्योंकि ध्यान महत्त्वपूर्ण है, है कि नहीं? यदि आप नहीं जानते कि सम्यक्, सही ध्यान क्या है, तो स्वयं का ज्ञान नहीं हो सकता है, और बिना स्वयं को जाने ध्यान का कोई मतलब नहीं है। किसी कोने में बैठकर अथवा किसी बगीचे या गली में इधर-उधर टहलने और ध्यान करने की कोशिश करने का कोई अर्थ नहीं है। यह एक खास निजी किस्म की एकाग्रता तक ले जाता है, जो एक को पृथक करके बाकी का बहिष्कार है। आप लोगों में कुछ ने इन सब विधियों को निश्चित ही आज़माकर देखा होगा। अर्थात आप किसी विशिष्ट विषय पर एकाग्रता साधते हैं, जब आपका मन यहांवहां भटक रहा होता है तो उसे एकाग्र हो जाने के लिए मजबूर करने की कोशिश करते हैं, और जब यह बात बनती नहीं है तो आप प्रार्थना कर लेते हैं। यदि हम वास्तव में जानना चाहते हैं कि सम्यक् ध्यान क्या है, तो हमें यह मालूम कर लेना होगा कि वे मिथ्या क्रियाएं क्या-क्या हैं, जिन्हें हमने ध्यान कहा है। निश्चित ही, एकाग्रता ध्यान नहीं है क्योंकि यदि आप निरीक्षण करें, तो एकाग्रता की प्रक्रिया में एक को विलग करके शेष का बहिष्कार है और इसलिए इसमें भटकाव है। आप किसी चीज़ पर एकाग्र होने की कोशिश करते हैं व आपका मन किसी और चीज़ में भटकने लगता है; और किसी एक विषय पर केंद्रित हो जाने की लड़ाई निरंतर चला करती है जबकि मन साफ मना कर देता है और फिर भटकने लगता है। और इस तरह एकाग्र होने के प्रयास में, एकाग्रता सीखने में, जिसे गलती से ध्यान कह दिया जाता है, हम सालों बिता देते हैं। फिर प्रार्थना का प्रश्न नहीं आता है। स्पष्ट है कि प्रार्थना परिणाम तो देती है, अन्यथा लाखों लोग प्रार्थना न किया करते। प्रार्थना में कुछ विशेष शब्द-समूहों को लगातार दोहरा कर मन शांत बना लिया जाता है, मन शांत तो हो जाता है। और उस शांति में कुछ संकेत, कुछ अनुभूतियां, कुछ प्रत्युत्तर प्राप्त होते हैं। पर है यह अभी भी मन की युक्ति का ही एक भाग, क्योंकि एक प्रकार के सम्मोहन से आप मन को एकदम शांत बना सकते हैं । और उस शांति में कुछ प्रच्छन्न, छिपे हुए उत्तर प्रकट होते हैं, जो अचेतन से तथा चेतन मन के बाहर से आते हैं। लेकिन यह अभी भी एक ऐसी अवस्था ही है, जिसमें बोध नहीं है, समझ नहीं है। और ध्यान पूजा- भक्ति भी नहीं है - चाहे वह भक्तिभाव किसी चित्र के प्रति हो या फिर किसी सिद्धांत के प्रति, क्योंकि मन की बनाई चीजें भी मूर्तिपूजा के दायरे में ही आती हैं। हो सकता है कोई व्यक्ति किसी मूर्ति को न पूजता हो, इसे मूढ़ता और अंधविश्वासपूर्ण बुतपरस्ती मानता हो, लेकिन वह भी ज़्यादातर लोगों की तरह मन की बनाई चीज़ों की पूजा तो करता है, तो यह भी बुतपरस्ती ही हुई। अतः किसी चित्र या धारणा या किसी गुरु-महात्मा के प्रति भक्तिपूर्ण होना, समर्पित होना ध्यान नहीं है । प्रत्यक्षतः यह स्वयं से पलायन का ही एक रूप है। यह बड़ा विश्रामदायक पलायन है, पर है तो पलायन ही। सदाचारी बनने के लिए निरंतर प्रयत्नरत रहना, भली-भांति अपनी जांच-परख तथा अनुशासन के माध्यम से सद्गुणों की प्राप्ति करते रहना भी ध्यान नहीं है। हममें से अधिकतर लोग इन प्रक्रियाओं में उलझे हुए हैं, और चूंकि इनसे हमें स्वयं का बोध नहीं होता है, अपने बारे में समझ नहीं प्राप्त होती है, ये भी सही ध्यान का तरीका नहीं हैं। खुद को समझे बिना आपके पास आखिर सम्यक् विचार का, सही सोच का आधार ही क्या है? उस समझ के बिना आप जो कर लेंगे, वह इतना ही होगा कि आप अपने संस्कारों के प्रत्युत्तर का, उनकी पृष्ठभूमि का अनुसरण करने लगेंगे। और ऐसे संस्कारग्रस्त प्रत्युत्तर ध्यान नहीं हैं। लेकिन इन प्रत्युत्तरों, इन प्रतिक्रियाओं के प्रति सजग होना, ताकि स्व की हलचलें, स्व के रंग-ढंग पूरी तरह से समझ में आ जाएं - यही तरीका सही ध्यान का तरीका है। जीवन से पीछे हट जाना ध्यान नहीं है। ध्यान अपने आप को समझने की एक प्रक्रिया है। और जब कोई अपने आपको केवल चेतन स्तर पर नहीं अपितु भीतर के सभी प्रच्छन्न स्तरों पर भी समझना शुरू करता है, तब प्रशांति का आगमन होता है। जिस मन को ध्यान करके, बाध्य करके अनुसरण करके स्थिर किया जाता है, वह मन स्थिर नहीं होता है। वह तो एक अवरुद्ध, गतिहीन मन होता है। वह ऐसा मन नहीं होता, जो सतर्क, निष्क्रिय एवं सर्जनात्मक ग्रहणशीलता में समर्थ हो । ध्यान में सतत प्रेक्षण की, जागरूकता की, प्रत्येक शब्द, प्रत्येक विचार तथा भाव के प्रति सजगता की दरकार होती है, जिससे हमारे अस्तित्व की, अपने होने की अवस्था उद्घाटित होती है, साफ पता चलती है, जो छिपी थी वह भी, और जो सतह पर है वह भी; और चूंकि इसमें बहुत मेहनत लगती है, हम हर किस्म की, छलावे से भरी और राहत देने वाली चीज़ों के ज़रिये पलायन करते रहते हैं और इसे ही ध्यान कह दिया करते हैं। यदि व्यक्ति यह देख पाता है कि स्वयं का ज्ञान ही ध्यान का प्रारंभ है, तब यह समस्या असाधारण रूप से रोचक तथा जीवंत बन जाती है। क्योंकि यदि आपको स्वयं का ही ज्ञान नहीं है, तो आप जिसे ध्यान कहते हैं, उसके अभ्यास में लगे रह सकते हैं, और इस पर भी अपने सिद्धांतों में, अपने परिवार में, अपनी संपत्ति में आसक्त बने रह सकते हैं, या फिर अपनी संपत्ति को छोड़-छाड़ कर आप किसी अवधारणा के प्रति, किसी विचार के प्रति आसक्त हो सकते हैं और उसमें इस कदर केंद्रित, एकाग्र रह सकते हैं कि उसी अवधारणा को आप और - और अधिक निर्मित करते चले जाएं। निश्चित ही, वह ध्यान नहीं है। अतः स्व-ज्ञान ही ध्यान का आरंभ है, और स्व-ज्ञान के बिना ध्यान होता ही नहीं है। और जब कोई स्व-ज्ञान के इस प्रश्न की और गहराई में जाता है, तो न केवल ऊपर का, प्रकट मन शांत, मौन हो जाता है, बल्कि प्रच्छन्न मन के विभिन्न स्तर भी प्रकाश में आते हैं। जब सतही मन चुप होता है, तब चेतना की छिपी हुई, अचेतन परतें अपना प्रक्षेपण करने लगती हैं, वे अपनी अंतर्वस्तु को प्रकट करती हैं, वे अपने इशारे ज़ाहिर करती हैं, ताकि हमारे अस्तित्व की समग्र प्रक्रिया को पूर्णरूपेण समझा जा सके। तो मन नितांत निश्चल हो जाता है - यह निश्चल है, इसे निश्चल बनाया नहीं गया है। इसे निश्चल हो जाने के लिए किसी पारितोषिक द्वारा, भय द्वारा बाध्य नहीं किया गया है। तब एक खामोशी होती है, मौन होता है, जिसमें यथार्थ अस्तित्व में आता है। परंतु वह मौन ईसाई मौन, हिंदू मौन या बौद्ध मौन नहीं है। वह मौन बस मौन है, उसका कोई नाम नहीं है। यदि आप ईसाई या हिंदू या बौद्ध मौन के पथ का अनुसरण करेंगे, तो आप कभी मौन नहीं होंगे। जो मनुष्य यथार्थ का अन्वेषण करना चाहता हो, उसे अपनी संस्कारबद्धता का पूरी तरह से परित्याग करना होगा - चाहे वह संस्कारबद्धता ईसाई हो, हिंदू हो, बौद्ध हो या किसी अन्य समुदाय की हो । ध्यान के माध्यम से, अनुसरण के माध्यम से पृष्ठभूमि को मजबूत कर लेना केवल मन की गतिहीनता, मन की मंदता लाता है और मैं कतई निश्चित नहीं हूं कि यही वह नहीं है, जो हममें से अधिकतर लोग चाहते हैं, क्योंकि कोई प्रारूप, कोई ढांचा बना लेना और उसका अनुसरण करना अपेक्षाकृत बहुत आसान है। किंतु पृष्ठभूमि से मुक्त होना संबंध में निरंतर जागरूकता की, निरीक्षण की मांग करता है। जब एक बार वह मौन आ जाए, तो एक असाधारण सर्जनशीलता की स्थिति होती है - ऐसा नहीं है कि आप कविताएं लिखेंगे ही, चित्र बनाएंगे ही; हो सकता है आप ऐसा करें, या हो सकता है आप यह सब न करें। लेकिन उस मौन के पीछे नहीं भाग सकते, उसकी नकल नहीं उतारी जा सकती, अनुकरण नहीं किया जा सकता - उस हालत में वह मौन नहीं रह जाता। आप इस तक किसी मार्ग द्वारा नहीं पहुंच सकते। यह तब वजूद में आता है, जब स्व के, 'मैं' के तरीके समझ लिए जाते हैं और उस स्व का अपनी तमाम हलचलों और खुराफात के साथ अंत हो जाता है। अर्थात मन जब सर्जन करना बंद कर के दे, तो सर्जन विद्यमान होता है। अतएव मन को सरल होना होगा, शांत होना होगा - 'होगा' तो गलत है : यह कहने में कि मन को शांत होना होगा, बाध्यता निहित है - और मन तभी शांत होता है, निश्चल होता है, जब स्व की, 'मैं' की समग्र प्रक्रिया का अवसान हो चुका हो । जब स्व के सारे तौर-तरीके समझ लिए गए हों, और इसलिए स्व की गतिविधियों का अंत हो गया हो, मौन केवल तभी होता है। वह मौन ही सच्चे अर्थों में ध्यान है। और उस मौन में ही शाश्वत का आविर्भाव होता है। यदि संभव हो, तो इस शाम मैं ध्यान के बारे में चर्चा करना चाहूंगा। मैं इस बारे में बात करना चाहूंगा, क्योंकि मुझे लगता है कि यह विषय जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। 'ध्यान' को समझने के लिए और इसमें गहराई से पैठने के लिए सबसे पहले हमें शब्द और तथ्य को समझना होगा। कारण कि हममें से अधिकतर लोग शब्दों के गुलाम हैं। 'ध्यान' शब्द से ही अधिकतर लोगों में एक विशेष भावदशा, एक तरह की संवेदनक्षमता, शांति, कुछ न कुछ उपलब्ध करने की अभीप्सा जागने लगती है। किंतु शब्द वह वस्तु नहीं है, क्योंकि शब्द को, प्रतीक को, नाम को यदि कोई पूरी तरह न समझे, तो यह भयावह होता है। तब यह बाधा बन जाता है, मन ही को दासता में बांध लेता है। और शब्द की, प्रतीक की हममें जो प्रतिक्रिया होती है, वही हममें से अधिकतर को कर्मरत करती है, क्योंकि शब्द जिस तथ्य को व्यक्त कर रहा है, उसका हमें भान नहीं होता, एहसास नही होता। हम तथ्य तक, 'जो है' तक अपने मतों, निर्णयों, मूल्यांकनों के साथ, अपनी स्मृतियों के साथ पहुंचते हैं। इस तरह हम कभी भी तथ्य को, 'जो है', उसे देख नहीं पाते हैं। मुझे लगता है कि इस बात को स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। किसी भी अनुभव को, मन की किसी भी अवस्था को, वास्तविक तथ्य, वस्तुस्थिति को, 'जो है' उसे भली भांति समझना हो, तो हमें शब्दों की गुलामी छोड़नी पड़ेगी - और यह काम बहुत कठिन होता है। उसे नाम देना, कोई शब्द देना अनेक स्मृतियां जगाता है; और ये स्मृतियां तथ्य का अतिक्रमण करती हैं, उस तथ्य को, 'जो है' उसे नियंत्रित करती, ढालती, दिशा देती हैं। अतः हमें इस विभ्रम के प्रति असाधारण रूप से सजग होना होगा और देखना होगा कि शब्द तथा वस्तुस्थिति, 'जो है' के बीच द्वंद्व न हो। और यह मन के लिए बहुत दुष्कर कार्य है, जिसके वास्ते अचूक और स्पष्ट होने की आवश्यकता होती है। बिना स्पष्टता के वस्तुओं को हम जैसी वे हैं, वैसी ही नहीं देख पाते । वस्तुओं को जैसी वे हैं, ठीक वैसी, अपने मतों, निर्णयों, स्मृतियों के बिना देख पाने में असाधारण सौंदर्य होता है। हमें किसी पेड़ को, बिना कोई भ्रम बीच में लाए, वैसा ही देखना होता है जैसा कि वह है; इसी तरह किसी झील के ऊपर संध्या के आकाश को हम देखते हैंहैं - सिर्फ देखते हैं, शब्द दिए बिना, प्रतीकों, विचारों, स्मृतियों को जगाए बिना, और इस प्रकार देखने में अद्भुत सौंदर्य होता है। एवं सौंदर्य परमावश्यक है। अपने आस-पास जो कुछ भी है, प्रकृति हो, लोग हों, विचार हों, उन्हें कदर देना, उनके प्रति संवेदनशीलता ही सौंदर्य है। यदि संवेदनशीलता नहीं हो तो स्पष्टता भी नहीं आ पाती, ये दोनों संयुक्त हैं, समानार्थक हैं। यह स्पष्टता अनिवार्य हो जाती है, यदि हमें समझना हो कि ध्यान क्या है । ऐसा मन जो भ्रमित है, धारणाओं, अनुभवों, इच्छा के तमाम आग्रहों में जकड़ा हुआ है, वह केवल अंतद्वंद्व ही निर्मित करता है। और उस मन को जिसे वस्तुतः ध्यान की स्थिति में होना हो, न केवल शब्द के प्रति, बल्कि उस अनुभव या उस स्थिति को नाम देने की स्वयंचालित अनुक्रिया के प्रति भी सजग होना होगा तथा उस स्थिति अथवा अनुभव को, वह जो भी अनुभव हो, चाहे जितना क्रूर, चाहे जितना वास्तविक, चाहे जितना मिथ्या हो - उसे कोई नाम दे देना मात्र ही स्मृति को दृढ़ता देता है, जिसे लादे हुए हम अगले अनुभव की ओर अग्रसर होते हैं। कृपया मुझे यह ध्यान दिलाने दें कि जिस बारे में हम बात कर रहे हैं, उसे समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यदि आप इसे नहीं समझ लेते हैं, तो वक्ता के साथ आप ध्यान की इस संपूर्ण समस्या में सहयात्रा नहीं कर पाएंगे। जैसा कि हमने कहा, ध्यान जीवन की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बातों में से एक है, या संभवतः जीवन में यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि ध्यान न हो, तो मस्तिष्क तथा मन एवं विचार की सीमाओं से परे जाने की कोई संभावना नहीं रहती। और ध्यान की इस समस्या में प्रवेश करने के लिए प्रारंभ में ही सदाचार की नींव रखनी होगी। मेरा तात्पर्य समाज द्वारा आरोपित सदाचार से नहीं है, उस नैतिकता से नहीं है जो भय, लोभ, ईर्ष्या, किसी तरह के दंड या पुरस्कार के माध्यम से पोषित होती है। मैं उस सदाचार की बात कर रहा हूं, जो तब स्वाभाविक रूप से, स्वतः ही, सहजता से, बिना किसी द्वंद्व या अवरोध के आता है, जब अपने आपको जाना जाता है। स्वज्ञान के बिना, स्वयं को जाने बिना, आप चाहे जो कर लें, संभवतः ध्यान की स्थिति आ ही नहीं सकती। 'स्वज्ञान' से मेरा अभिप्राय है अपने प्रत्येक विचार, प्रत्येक भावदशा, प्रत्येक शब्द, प्रत्येक भावना को जानना; अपने मन की गतिविधि को जानना - न कि किसी 'परम स्व', 'विराट स्व' का ज्ञान; ऐसा कुछ नहीं है; 'उच्चतर स्व', 'आत्मन्' अभी भी विचार के क्षेत्र में ही हैं। विचार आपके संस्कारों का परिणाम है, विचार आपकी स्मृति का प्रत्युत्तर है - चाहे वह स्मृति पुरखों की हो अथवा तात्कालिक हो। तो पहले गहन व अचल रूप से उस सदाचार को जीवन में लाए बिना, जो स्वज्ञान के माध्यम से आता है, मात्र ध्यान करने का प्रयास नितांत प्रवंचनापूर्ण और पूरी तरह व्यर्थ है। देखिए, यह बात उनके लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है, जो इस सबको संजीदगी से समझना चाहते हैं, क्योंकि यदि आप यह नहीं कर पाते तो आपका ध्यान और आपका वास्तविक जीवन जुदा रहते हैं, इनमें दूरी बनी रहती है - इतनी अधिक दूरी कि चाहे आप आसन- मुद्राएं लगा कर अनिश्चित काल तक ध्यान करते रहें, सारी उम्र आप अपने नासाग्र से आगे कुछ नहीं देख पाएंगे; कोई आसन आप लगा लें, चाहे जो आप करते रहें, उसका कुछ मतलब नहीं होगा। अतः जो मन जांच-पड़ताल करता है- जांच-पड़ताल शब्द का प्रयोग मैं जान-बूझ कर कर रहा हूं - कि ध्यान क्या है, उसे यह नींव रखनी ही होगी, जो स्वाभाविक रूप से अपने आप ही, निष्प्रयास ही सहजता के साथ रखी जाती है जब स्वज्ञान होता है। और यह समझना भी महत्त्वपूर्ण है कि यह स्वज्ञान, स्वयं को जानना क्या है, यह है 'मैं' के प्रति, जिसका स्रोत स्मृतियों के ढेर में है, बिना कुछ चयन किए, सजग होना- मैं अभी सजगता के अर्थ में जाऊंगा - इस 'मैं' के प्रति बिना किसी व्याख्या के सचेत होना, मन की गति का अवलोकन मात्र करना। किंतु वह अवलोकन हो नहीं पाता है, जब आप अवलोकन के माध्यम से केवल संग्रह करते हैं कि क्या करना है, क्या नहीं करना है, क्या उपलब्ध करना है, क्या उपलब्ध नहीं करना है। और यदि आप ऐसा करते हैं, तो स्व के रूप में मन की गति की जीवंत प्रक्रिया पर रोक लगा देते हैं। तात्पर्य यह कि मुझे तथ्य का, वास्तविक का, 'जो है' उसका अवलोकन करना होगा, उसे देखना होगा। यदि मैं इस तक किसी मत, किसी धारणा के साथ आता हूं, जैसे कि 'मुझे यह नहीं करना होगा' या 'ऐसा करना होगा' जो स्मृति की प्रतिक्रियाएं ही हैं - तब 'जो है' की गति में अवरोध आते हैं, बाधा पड़ती है, अतएव सीखना नहीं हो पाता। वृक्ष से होकर बहती हवा का अवलोकन करना हो, तो आप उसका कुछ कर नहीं सकते, वह वेग से बह सकती है, या सौम्यता से, सौंदर्य पूर्वक बह सकती है। आप, जो इसका अवलोकन कर रहे हैं, इसे नियंत्रित नहीं कर सकते। आप इसे आकार नहीं दे सकते, आप ऐसा नही कह सकते, "मैं इसे मन में संजो रखूंगा"। यह तो बस होती है। आप इसे याद तो रख सकते हैं। परंतु यदि आप इसे याद रखते हैं, और अगली बार वृक्ष से गुजरती हवा को निहारते समय उस याद को बीच में ले आते हैं, तो आप वृक्ष में हवा के प्राकृतिक बहाव को नहीं देख पाते, बल्कि केवल अतीत के बहाव को याद कर रहे होते हैं। इसलिए आप सीख नहीं रहे होते, अपितु जो आप पहले से जानते हैं, उसमें बस कुछ जोड़ रहे होते हैं। तो एक स्तर पर जानकारी, अगले स्तर के लिए बाधा बन जाती है। मुझे उम्मीद है कि यह बात एकदम स्पष्ट है। क्योंकि जिस बात को अब हम समझने जा रहे हैं, उसके लिए एक ऐसे मन की दरकार है जो पूरी तरह स्पष्ट हो, पूर्वपहचान की किसी भी गति के बिना देख और सुन पाने में समर्थ हो। अतः पहले तो हमें बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए, भ्रमित नहीं रहना चाहिए। स्पष्टता अनिवार्य है। 'स्पष्टता' से मेरा अभिप्राय है, चीज़ों को जैसी वे हैं ठीक वैसी ही देख पाना; बिना किसी मत के, 'जो है' को देखना; अपने मन की गति को देखना, इसका बहुत करीब से, भली-भांति परिश्रमपूर्वक, किसी प्रयोजन के बिना, दिशा-निर्देश के बिना अवलोकन करना । इस प्रकार मात्र अवलोकन के लिए अद्भुत स्पष्टता की आवश्यकता होती है, अन्यथा आप अवलोकन नहीं कर सकते। यदि आपने घूमती हुई चींटी का, जो कुछ भी वह करती है उस सबका निरीक्षण करना हो, तो अगर ऐसा करने में आप चींटी के बारे में विविध जैविक तथ्यों को बीच में लाते हैं, तब वह जानकारी आपके देखने में रुकावट बन जाती है। इस तरह आप तत्काल यह देखने लगते हैं कि कहां जानकारी आवश्यक होती है, और कहां जानकारी बाधा बन जाती है। तो अब कोई उलझन नहीं रहती। जब मन स्पष्ट, अचूक होता है, गहन व मूलभूत विवेचना में समर्थ होता है, तो यह निषेध की अवस्था में होता है। हममें से अधिकतर लोग बातों को आसानी से स्वीकार कर लेते हैं, हम इतने भोले, आशुविश्वासी होते हैं, क्योंकि हम तसल्ली चाहते हैं, सुरक्षा चाहते हैं, उम्मीद का एहसास चाहते हैं, हम चाहते हैं कोई हमारा उद्धार कर दे - दिव्यात्माएं, मसीहा, गुरु, ऋषि-मुनि, आप इस समस्त बखेड़े से परिचित ही हैं! हम तुरंत, आसानी से स्वीकार कर लेते हैं, और उतनी ही आसानी से अपने मन के मौसम के मुताबिक, अस्वीकार भी कर देते हैं । चीज़ें स्वयं के भीतर जैसी हैं, वैसी ही देख पाने का भाव 'स्पष्टता' है। क्योंकि यह जो स्वयं है, यह संसार का ही एक भाग है। व्यक्ति स्वयं ही संसार की गतिशीलता है। जिसे हम 'स्वयं' कह रहे हैं, वह बाह्य अभिव्यक्ति है, जो भीतर की ओर उन्मुख गति है - यह उस ज्वार-तरंग की तरह है जो बाहर की ओर प्रवाह लेती है, और फिर भीतर लौट आती है। संसार से भिन्न स्वयं पर आपका एकाग्र होना, अवलोकनरत होना आपको अलगाव की ओर ले जाता है, व्यक्ति-विलक्षणता, मन के असंतुलन और अकेला करने वाले भयों और ऐसी अन्य दशाओं की तरफ ले जाता है। किंतु यदि आप संसार का अवलोकन करते हैं, और संसार की गति का अनुसरण करते हुए उसी गति पर आरूढ़ होकर भीतर की ओर लौटते हैं, तब आपके और संसार के बीच कोई विभाजन नहीं होता, तब आप सामूहिक से विपरीत वैयक्तिक नहीं होते। और अवलोकन का यह भाव आवश्यक है, जो अन्वेषी भी है - जो खोज रहा हैऔर साथ ही अवलोकन कर रहा है, सुन रहा है, सजग है। मैं 'अवलोकन' शब्द का प्रयोग उस अर्थ में कर रहा हूं। अवलोकन का कार्य ही अन्वेषण का कार्य है। यदि आप स्वतंत्र नहीं है, तो खोज नहीं कर सकते। इसलिए खोजने के लिए, अवलोकन के लिए, स्पष्टता होनी ज़रूरी है; स्वयं के भीतर गहराई से खोजने के लिए आपको हर बार इस तक नये सिरे से आना होगा। तात्पर्य यह कि उस अन्वेषण में, उस खोज में आपने कभी कोई परिणाम उपलब्ध नहीं किया होता है, आप कभी किसी सीढ़ी पर नहीं चढ़े होते हैं, और आप ऐसा कभी नहीं कहते, 'अब मैं जानता हूं।' कोई सीढ़ी नहीं है। यदि आप चढ़ते भी हैं, तो आपको तत्काल नीचे आना होता है, ताकि आपका मन अवलोकन करने, देखने, सुनने के लिए अतिशय संवेदनशील रहे। इस अवलोकन करने, सुनने, देखने, निरीक्षण करने में ही सद्गुण का वह असाधारण सौंदर्य आता है। अपने आप को जानने से आने वाले सद्गुण के अतिरिक्त अन्य कोई सद्गुण नहीं होता। तब वह सद्गुण जीवंत, ऊर्जस्वी, सक्रिय होता है - न कि कोई मृत लक्षण जिसका आपने अभ्यास कर लिया है। और वह नींव आवश्यक है। अर्थात अवलोकन, स्पष्टता तथा सद्गुण ध्यान के लिए नींव हैं, उस अर्थ में जिसकी हमने बात की है - उस अर्थ में नहीं जो आपने सद्गुण को दिया हुआ है कि उसे दिन-ब-दिन अभ्यास से बढ़ाते हैं, वह तो प्रतिरोध मात्र होता है। तब, वहां से हम तथाकथित प्रार्थनाओं, किसी कोने में बैठ कर शब्दों, मंत्रों के तथाकथित जप, और किसी विशेष वस्तु या शब्द या प्रतीक पर मन को एकाग्र करने के प्रयत्न, जो कि संकल्पपूर्वक आयोजित ध्यान है - इन सबके निहितार्थों को देख सकते हैं। ध्यान से सुनिएगा। जानते-बूझते किसी आसन- मुद्रा में बैठने या तय करके, सचेत रूप से ध्यान के लिए विशेष कुछ करने का आशय यही है कि आप अपनी ही कामनाओं, अपनी ही संस्कारबद्धता के क्षेत्र में खेल खेल रहे हैं; और इसलिए यह तो ध्यान नहीं है । यदि कोई अवलोकन करे तो भली-भांति देख सकता है कि जो लोग वैसा ध्यान करते हैं, उन्होंने मन में तमाम तरह की छवियां बना रखी होती हैं; वे कृष्ण, ईसा मसीह, बुद्ध को देखने लगते हैं और सोच लेते हैं कि उन्हें कुछ उपलब्ध हो गया है - जैसे कि जो ईसाई होता है वह ईसा मसीह को देखता है। अब यह जिस प्रकार होता है, वह बिलकुल सीधी, एकदम स्पष्ट बात है; यह उसके अपने संस्कारों, अपने भय, अपनी आशाओं, अपनी सुरक्षा की कामना का प्रक्षेपण होता है। ईसाई ईसामसीह को देख लेता है, जैसे आप राम को अथवा अपने किसी भी इष्ट देवता को देखते। इन दर्शनों में कुछ भी असाधारण नहीं है। ये आपके अचेतन की उपज हैं, जो कि अत्यधिक संस्कारग्रस्त, भय में प्रशिक्षित रहा है। जब आप थोड़े से शांत होते हैं, तो यह अपनी प्रतिमाओं, प्रतीकों, धारणाओं सहित झट से ऊपर आ जाता है। तो दर्शनों, भावसमाधियों, चित्रों और प्रत्ययों का कुछ भी, किसी भी तरह का मूल्य नहीं है। यह तो इस तरह है, जैसे कोई व्यक्ति कुछ मंत्र, वाक्यांश या नाम बार-बार दोहराता चला जाए। जब आप किसी नाम को बारंबार पुनः दोहराते रहें, तो ज़ाहिर है कि यही होता है कि आप अपने मन को स्तब्ध, मूढ़ बना देते हैं और उस मूढ़ता में यह शांत हो जाता है। यह ऐसे ही है जैसे आप मन को शांत बनाने के लिए कोई मादक द्रव्य ले लें - इस तरह के द्रव्य होते हैं - और उस स्तब्धता की, नशे की अवस्था में आपको दर्शन होने लगते हैं। स्पष्टतः ये सब आपके अपने समाज, अपनी संस्कृति, अपनी आशाओं और भयों की उपज है; यथार्थ से इनका कुछ भी लेना-देना नहीं है। प्रार्थनाओं की भी यही स्थिति है। वह व्यक्ति जो प्रार्थना करता है, उस व्यक्ति की तरह है जिसकी नज़र किसी और की जेब पर है। व्यापारी, राजनेता और प्रतिस्पर्द्धा में लगा सारा समाज शांति के लिए प्रार्थना तो करता है, लेकिन ये सारे वह सब कुछ करने में लगे हैं, जिससे युद्ध, घृणा और वैमनस्य उपजते हैं - इसका कोई अर्थ, कोई औचित्य नहीं है। आपकी प्रार्थना एक याचना है, आप कुछ ऐसा मांग रहे हैं जिसे मांगने का आपको कोई अधिकार नहीं है - क्योंकि आप जी ही नहीं रहे हैं, आप सदाचारी नहीं हैं। आप अपने जीवन को समृद्धि देने के लिए कुछ ऐसा चाहते तो हैं, जो शांतिमय हो, महान हो, परंतु कर आप वह सब कुछ रहे हैं जो इसके विपरीत है व इसे विनष्ट करता है : अधम, क्षुद्र, मूढ़ बनते जा रहे हैं। तो प्रार्थनाएं, दिव्यदर्शन, किसी कोने में सीधे होकर बैठना, सही तरीके से सांस लेना, अपने मन के साथ कुछ न कुछ करते रहना, ये सब बचपने की, अपरिपक्व बातें हैं, इन सबका उस व्यक्ति के लिए कोई महत्त्व नहीं है, जो इस बात के पूरे तात्पर्य को समझना चाहता है कि ध्यान क्या है। अतः वह व्यक्ति जिसे यह समझना हो कि ध्यान क्या है, उस तरह की बातों को पूरी तरह त्याग देता है, चाहे उसका काम छूट जाए; वह नौकरी पाने के लिए किसी क्षुद्र देव के पास नहीं जा पहुंचता - इस तरह का खेल आप सब खेलते हैं। जब आप किसी प्रकार के दुख में होते हैं, परेशान होते हैं, मंदिर की ओर रुख करते हैं, और स्वयं को धार्मिक कहा करते हैं! - यह सब आपको पूरी तरह, एकदम से परे करना होगा, ताकि यह आपको छू तक न सके। यदि आपने यह कर लिया है, तो हम इस समस्त प्रश्न में आगे बढ़ सकते हैं कि ध्यान क्या है। आपमें अवलोकन, स्पष्टता, स्वज्ञान और उससे उद्भूत सदाचार का होना आवश्यक है। सदाचार वह है, जो हर समय अच्छाई में पुष्पित होता है; हो सकता है आप कोई गलती कर बैठें, आपसे बुरे काम हो जाएं, लेकिन वे समाप्त हो चुके होते हैं; आप आगे बढ़ रहे होते हैं, अच्छाई में खिल रहे होते हैं क्योंकि आप स्वयं को जान रहे होते हैं। उस नींव को रख कर, तब आप प्रार्थनाएं, शब्दों का बुदबुदाना और आसन-मुद्रा लगाना एक तरफ हटा सकते हैं। तब आप इस बात की पड़ताल शुरू कर सकते हैं कि अनुभव क्या होता है। अनुभव क्या है, इसे समझना बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि हम सब अनुभव चाहते हैं। एक तो हमारे रोज के अनुभव होते हैं - दफ्तर जाना, झगड़ना, डाह रखना, ईर्ष्यालु, क्रूर, प्रतिस्पर्द्धारत, कामातुर होना। जीवन में दिन-प्रतिदिन, चेतन या अचेतन रूप से, हम प्रत्येक प्रकार के अनुभव से गुजरते हैं। और हम अपने जीवन की सतह पर जीते रहते हैं, बिना सौंदर्य के, बिना किसी गहराई के; हमारे पास अपना ऐसा कुछ नहीं है जो मौलिक, नैसर्गिक, सुस्पष्ट हो। हम सब दोयम दर्जे के नकलची मनुष्य हैं, दूसरों को उद्धृत करते रहते हैं, दूसरों का अनुसरण करते रहते हैं, शंख की तरह खोखले हैं। और स्वभावतः हमें रोज के अनुभव से भिन्न अधिक अनुभूति की चाह होती है। अतः हम या तो ध्यान के माध्यम से, या कुछ नवीनतम मादक द्रव्य लेकर ऐसी अनुभूति प्राप्त करना चाहते हैं। एल एस डी 25 इन्हीं नये मादक द्रव्यों में से एक है; और जिस क्षण आप इसे लेते हैं, आपको लगता है कि आपने 'झटपट रहस्यदृष्टि' का अनुभव कर लिया है- ऐसा नहीं है कि मैंने इस द्रव्य को लेकर देखा है । ( हंसी) हम गंभीरता से बात कर रहे हैं। आप ज़रा सी उकसाहट पर हंस पड़ते हैं, इसलिए आप गंभीर नहीं हैं, आप स्वयं को देखते हुए एक-एक कदम करके इसमें प्रवेश नहीं कर रहे हैं, आप केवल शब्दों को सुन रहे हैं और उन पर सवार हो कर बहे जा रहे हैं - जैसा न करने के लिए मैंने आपको इस वार्ता के आरंभ में ही चेता दिया था। तो ऐसे मादक द्रव्य होते हैं, जो आपकी चेतना को फैलाते से लगते हैं तथा उतने से समय के लिए आपको उच्च संवेदनक्षम बना देते हैं। और उस बढ़ी हुई संवेदनक्षमता की दशा में आप वस्तुओं को देखते हैं : वृक्ष आश्चर्यजनक रूप से जीवंत लगने लगता है, चटख, स्पष्ट और निस्सीम सा। अथवा आप यदि धार्मिक वृत्ति के हैं, तो आपको उस तीव्र संवेदन वाली हालत में शांति और प्रकाश का एक असाधारण बोध होने लगता है; आपके द्वारा जो भी देखा जा रहा है उसके और आपके बीच भेद नहीं रहता, आप वही हो जाते हैं; जैसे पूरा सृष्टि-विस्तार आप ही का अंश होता है। और फिर आप इन मादक द्रव्यों के लिए ललकने-तरसने लगते हैं क्योंकि अब आपको और अनुभव चाहिए, और अधिक विस्तृत, और अधिक गहरा अनुभव, जिससे आपकी आशा बंधी होती है कि वह आपके समस्त जीवन की सार्थकता प्रकट करेगा, और इस तरह इन द्रव्यों पर आपकी निर्भरता शुरू हो जाती है। तो भी, आपको जब ये अनुभव होते हैं, आप उस समय भी होते विचार के ही क्षेत्र में हैं, वह क्षेत्र ज्ञात का ही होता है। तो आपको अनुभव को समझना होगा; अनुभव अर्थात किसी चुनौती को दिया गया प्रत्युत्तर जो प्रतिक्रिया बन जाता है, और वह प्रतिक्रिया आपके विचार, आपकी भावना, आपके अस्तित्व को आकार देती है। तथा आप इसमें और-और अनुभव जोड़ते चले जाते हैं, आप सोचते हैं कि आपको अधिकाधिक अनुभव होते रहें। जितनी अधिक स्पष्ट इन अनुभवों की स्मृति होती है, उतना ही अधिक आपको ख्याल होता है कि आप जानते हैं। लेकिन यदि आप गौर करें तो पाएंगे कि जितना अधिक आप जानते हैं, उतने ही अधिक छिछले और खाली आप हो जाते हैं। तो आपको न केवल वह समझना होगा जो आपको पहले मैंने कहा है, अपितु अनुभव की इस असाधारण मांग को भी समझ लेना होगा। अब हम आगे बढ़ सकते हैं। ऐसा मन जो किसी भी प्रकार के अनुभव की तलाश में है, अभी भी समय के, ज्ञात के क्षेत्र में ही है, स्व-प्रक्षेपित इच्छाओं के क्षेत्र में ही है। जैसा कि मैंने वार्ता के प्रारंभ में कहा था, तय करके किया गया ध्यान केवल भ्रम की ओर ले जाता है। तो भी, ध्यान की आवश्यकता तो स्पष्ट है। संकल्पपूर्वक, सोच-बूझ कर किया गया ध्यान केवल आपको विभिन्न प्रकार के आत्म-सम्मोहन, आपकी अपनी इच्छाओं, अपने संस्कारों द्वारा प्रक्षेपित तमाम तरह के अनुभवों की ओर ले जाता है, और ये इच्छाएं, ये संस्कार आपके मन को आकार देते हैं, आपके विचार इनसे नियंत्रित होने लगते हैं। इसलिए वह व्यक्ति जो ध्यान की गहन अर्थवत्ता को वस्तुतः समझना चाहता हो, उसे अनुभव के अभिप्राय को भी समझ लेना होगा; और यह भी आवश्यक है कि उसका मन तलाशते रहने से मुक्त हो । यह बहुत कठिन होता है। मैं अब इसी पहलू की विस्तार से चर्चा करूंगा। इन सब बुनियादी बातों को सहज, स्वतःस्फूर्त, सरल रूप से कह लेने के बाद अब हमें यह पता लगाना होगा कि विचारों को नियंत्रित करने का अर्थ क्या होता है। क्योंकि इसी की तो आप तलाश में हैं। जितना अधिक आप विचार को नियंत्रित कर पाते हैं, उतना अधिक आप ध्यान में आगे बढ़ गए हैं ऐसा सोचने लगते हैं। मेरे देखे तो, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, भावात्मक किसी भी प्रकार का नियंत्रण क्षतिकारक है। कृपया इसे ध्यान से सुनें। यह न कहने लगें, "तब तो जो मुझे पसंद हो, करूंगा"। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं। नियंत्रण में, वश में करना, दमन, अनुकूलन, विचार को किसी विशेष सांचे में ढाल लेना, ये सारी बातें आ जाती हैं और यह भी कि वह सांचा, वह प्रारूप इस बात की खोज की अपेक्षा अधिक महत्त्व का हो जाता है कि सत्य क्या है। तो किसी भी प्रकार का नियंत्रण - वह प्रतिरोध, दमन या उदात्तीकरण चाहे जिस रूप में हो - मन को अतीत के अनुसार, उन संस्कारों के अनुरूप जिनमें आप पले-बढ़े हैं, किसी विशेष समुदाय के संस्कारों तथा ऐसी ही अन्य - अन्य बातों के मुताबिक ढालने लगता है। ध्यान क्या है - यह समझना बहुत आवश्यक है। अब कृपया सावधानीपूर्वक सुनें। मुझे पता नहीं कि आपने पहले कभी इस प्रकार का ध्यान किया भी है या नहीं, शायद नहीं किया है। पर अब आप इसे मेरे साथ करने जा रहे हैं। हम यह यात्रा साथ-साथ करने वाले हैं, शाब्दिक रूप से नहीं अपितु वास्तव में, इस सबसे गुज़रते हुए ठीक उस छोर तक जाना है, जहां तक शाब्दिक संप्रेषण की पहुंच है। अर्थात यह ऐसा ही है, जैसे कि हम उस द्वार तक साथ-साथ जाएं, और तब आप या तो उस द्वार से होकर जा सकते हैं, या द्वार के इस ओर ही ठिठक सकते हैं। आप द्वार के इस ओर ही रुक जाएंगे, यदि आपने वास्तव में, तथ्यतः वह सब नहीं किया है जिस बारे में बात की जा रही है - इसलिए नहीं कि वक्ता यह कह रहा है, बल्कि इसलिए, क्योंकि यह स्वस्थ, संतुलित व तर्कसंगत बात है और हर जांच, हर परीक्षा में खरी उतरेगी। तो अब साथ-साथ हम ध्यान में उतरने जा रहे हैं - तय करके किये जाने वाला ध्यान नहीं, क्योंकि वैसा कुछ तो होता ही नहीं है। ध्यान तो ऐसा है जैसे कोई खिड़की खुली छोड़ दे, हवा को जब आना होगा, आ जाएगी- फिर वह हवा जो भी लाए, जैसी भी वह बयार हो। किंतु यदि आप हवाओं के आने की अपेक्षा रखें, प्रतीक्षा करें, क्योंकि आपने खिड़की खुली छोड़ रखी है, तो वे कभी नहीं आएंगी। अतः खिड़की का खुलना प्रेम की वजह से, स्नेह और स्वतंत्रता की वजह से हो, इसलिए नहीं कि आप कुछ चाहते हैं, और यही सौंदर्य की अवस्था है, यही मन की वह स्थिति है, जो देखती है और कुछ मांग नहीं करती। सजग होना मन की एक असाधारण स्थिति है - अपने परिवेश के प्रति, वृक्षों के प्रति, उस गाते हुए पक्षी के प्रति, पीछे छूटते सूर्यास्त के प्रति सजग होना; उन चेहरों, उन मुस्कानों के प्रति सजग होना, सड़क की गर्द के प्रति सजग होना; धरती के सौंदर्य, डूबते सूरज के सामने खड़े ताड़ और पानी की छोटी सी लहर के प्रति सजग होना - बस केवल सजग, जागरूक होना, बिना किसी चयन के । कृपया इसे अब करें, जब आप साथ यात्रा कर रहे हैं। इन पक्षियों को सुनें, इन्हें नाम न दें, कौन सा पक्षी है यह न पहचानने लगें, बल्कि सिर्फ सुनें, उस ध्वनि को सुनें। अपने विचारों की हलचल को सुनें, उन्हें नियंत्रित मत करें, आकार न दें, यह न कहें, "यह सही है, वह गलत है", बस उनके साथ बढ़ें। यह सजगता है, जिसमें कोई चयन, चुनाव नहीं है, निंदा नहीं है, निर्णय नहीं है, कोई तुलना या व्याख्या नहीं है, बस अवलोकन मात्र है। ऐसी सजगता आपके मन को अत्यंत संवेदनक्षम, संवेदनशील बनाती है। जिस क्षण आप नाम देते हैं, आप वापस लौट चुके होते हैं, आपका मन मंद बन जाता है, क्योंकि उसी का आपको अभ्यास पड़ा हुआ है। सजगता की उस स्थिति में अवधान, सावधानता होती है - नियंत्रण नहीं, एकाग्रता नहीं। अवधान है - इसका अर्थ है, आप पक्षियों को सुन रहे हैं, आप सूर्यास्त को देख रहे हैं, आप वृक्षों की हलचल के रुक जाने को देख रहे हैं, गुज़रती हुई कारों की आवाज़ आपको सुनाई पड़ रही है, आप वक्ता को सुन रहे हैं और आप इन शब्दों के अर्थ के प्रति सावधान हैं, आप अपने विचारों और भावनाओं के प्रति एवं इस अवधान की गतिमयता के प्रति सावधान हैं। आप व्यापक रूप से, बिना कोई सीमा बनाए, न केवल चेतन स्तर पर अपितु अचेतन तल पर भी सावधान हैं। अचेतन कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है, इसलिए अचेतन की आपको जांच-पड़ताल करनी होगी। मैं 'अचेतन' शब्द का इस्तेमाल किसी पारिभाषिक शब्द या तकनीक के तौर पर नहीं कर रहा हूं। मनोवैज्ञानिक इसे जिस अर्थ में लेते हैं, उस अर्थ में मैं इसका प्रयोग नहीं कर रहा हूं, बल्कि मैं उसकी बात कर रहा हूं, जिसके प्रति आप सचेत नहीं होते। क्योंकि हममें से अधिकतर लोग मन की सतह पर ही जिया करते हैं : दफ्तर जाते हैं, कोई तकनीक या जानकारी हासिल करते हैं, झगड़ते रहते हैं, और इसी तरह की और चीज़ें किया करते हैं। हम अपने अस्तित्व के उस गहरे तल की ओर कभी ध्यान नहीं देते, जो हमारे समुदाय का, प्रजातीय आनुवंशिक अवशिष्टों का, समग्र अतीत का - केवल व्यक्ति के रूप में आपके अतीत का ही नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र के अतीत का - और उसकी दुश्चिंताओं का परिणाम है। जब आप सो जाते हैं, तो यह सब कुछ अपने-आप को स्वप्नों के रूप में प्रक्षेपित करता है, और फिर उन स्वप्नों की व्याख्या की बात आती है। स्वप्न उस मनुष्य के लिए पूरी तरह अनावश्यक हो जाते हैं, जो जागा हुआ है, सतर्क है, जो देख रहा है, सुन रहा है, सजग है, अवधानयुक्त है, सावधान है। अब ऐसा अवधान अत्यधिक ऊर्जा की मांग करता हैः वह ऊर्जा नहीं जो आपने अभ्यास के द्वारा, अविवाहित रह कर या इसी तरह की अन्य बातों से इकट्ठी की है - वह सब तो लोभ की ऊर्जा है। मैं स्वज्ञान की, स्वयं को जानने की ऊर्जा की बात कर रहा हूं। चूंकि आप यह सही नींव रख चुके हैं, उसी से ऊर्जा आती है अवधान के लिए, जिसमें एकाग्रता वाला अभिप्राय नहीं होता। एकाग्रता तो वर्जन है, बहिष्कार है - आप उस संगीत को सुनना चाहते हैं और वह भी सुनना चाहते हैं जो वक्ता कह रहा है, इसलिए आप अपने भीतर उस संगीत का प्रतिरोध करते हैं और वक्ता को सुनने का प्रयत्न करते हैं; अतः आप वास्तव में पूर्ण अवधान, अपना पूरा ध्यान नहीं दे रहे होते। आपकी ऊर्जा का एक हिस्सा उस संगीत का प्रतिरोध करने में जा रहा है और दूसरे हिस्से से आप वक्ता को सुनने का प्रयास कर रहे हैं, इसलिए आप पूरी तरह नहीं सुन रहे हैं, अतएव आप पूर्ण अवधान, पूरा ध्यान नहीं दे रहे हैं। अतः यदि आप एकाग्र होते हैं, तो केवल प्रतिरोध कर रहे होते हैं, बहिष्कार कर रहे होते हैं। किंतु ऐसा मन जो अवधानयुक्त है, बिना कुछ वर्जित किए एकाग्र भी हो सकता है। तो इस अवधान से एक ऐसे मस्तिष्क का प्रादुर्भाव होता है जो मौन है, मस्तिष्ककोशिकाएं स्वतः ही शांत हैं - उन्हें शांत बनाया नहीं गया है, उन्हें अनुशासित करके, बाध्य करके, ज़बरदस्ती अनुकूलित नहीं किया गया है। किंतु चूंकि यह समग्र अवधान स्वाभाविक रूप से, स्वतः ही बिना किसी प्रयास के, सहजता से घटित हुआ है, मस्तिष्क की कोशिकाओं को विकृत जड़, रुक्ष, कठोर नहीं बना दिया गया है। मुझे आशा है, आप यह सब समझ रहे हैं। जब तक स्वयं मस्तिष्क कोशिकाएं ही अद्भुत रूप से संवेदनशील, जीवंत नहीं होतीं, कठोर बना कर, ठोक-पीट कर, अतिकार्य से बोझिल होकर, ज्ञान के किसी खास विभाग में विशेषज्ञता द्वारा नहीं, अपितु जब तक वे असाधारण रूप से संवेदनक्षम नहीं हो जातीं, वे शांत नहीं हो सकतीं। तो आवश्यक है कि मस्तिष्क शांत हो, पर साथ ही हर प्रतिक्रिया के प्रति संवेदनशील हो, इस सारे संगीत, आवाज़ों, पक्षियों के प्रति सजग हो, इन शब्दों को सुन रहा हो, सूर्यास्त होता देख रहा हो - किसी भी दबाव, असर या तनाव के बिना। मस्तिष्क का शांत होना आवश्यक है, क्योंकि ऐसी शांति के बिना जो अप्रेरित है, जिसे कृत्रिम रूप से नहीं लाया गया है, स्पष्टता संभव नहीं है । ऐसी स्पष्टता केवल तभी आ सकती है, जब अवकाश होता है, खाली जगह होती है। और आपके भीतर अवकाश तब होता है, जिस क्षण मस्तिष्क पूर्णतः शांत किंतु अत्यधिक संवेदनशील होता है, निर्जीव नहीं। और इसी कारण यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि आप सारा दिन क्या करते हैं। परिस्थितियों द्वारा, समाज द्वारा, आपके नौकरी-धंधों और विशेषज्ञता द्वारा, किसी दफ्तर में तीस या चालीस साल निर्दयता से घिसते- पिसते - इस सबके द्वारा मस्तिष्क कठोर बना दिया जाता है, उसकी असाधारण संवेदनशीलता नष्ट हो जाती है और मस्तिष्क का शांत होना ज़रूरी है। तब उसी से संपूर्ण मन, जिसमें मस्तिष्क भी शामिल है पूरी तरह निश्चल होने में समर्थ होता है। यह निश्चल मन अब कुछ नहीं खोज रहा है, इसे किसी अनुभव की प्रतीक्षा नहीं है, यह कतई किसी अनुभव से नहीं गुज़र रहा है। मुझे आशा है कि आप यह सब समझ पा रहे हैं। शायद आप नहीं समझ रहे हैं - पर इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। आप केवल सुनें। मुझसे सम्मोहित न हों, लेकिन इस बात के सत्य को सुनें। और शायद फिर कभी, जब आप बाज़ार में टहल रहे हों, बस में बैठे हों, किसी जल प्रवाह को, या हरे-भरे लहलहाते धान के खेत को निहार रहे हों, यह सच अनजाने ही, दूर देश से आती किसी सांस की तरह आपको स्पर्श कर ले। इसलिए तब मन, बिना किसी दबाव के, बिना किसी बाध्यता के, पूर्णतः निश्चल हो जाता है। यह निश्चलता विचार द्वारा निर्मित नहीं है, क्योंकि विचार तो समाप्त हो चुका है, विचार का पूरा का पूरा यंत्र अब रुक चुका है। विचार का अंत आवश्यक है, नहीं तो विचार, और अधिक छवियां, और धारणाएं, और भ्रम उपजाता रहेगा - और, और, और। इसलिए आपको विचार के इस पूरे के पूरे यंत्र को समझना पड़ेगा - यह नहीं कि विचार करना रोकें कैसे। यदि आप विचार के समस्त यंत्र को समझ लेते हैं, जो कि स्मृति का प्रत्युत्तर, साहचर्य व पहचानना, नाम देना, तुलना तथा मूल्यांकन है - यदि आप इसे समझ लेते हैं, तो स्वभावतः विचार का अवसान हो जाता है। जब मन पूर्णतः निश्चल होता है, तब उस निश्चलता से, उस निश्चलता में, एक बिलकुल अलग तरह की गति होती है। वह गति विचार द्वारा, समाज द्वारा, आपने जो पढ़ा है या नहीं पढ़ा है उस सबके द्वारा निर्मित गति नहीं है। वह गति समय व अनुभव की नहीं है, क्योंकि उस गति में कोई अनुभव नहीं है। एक निश्चल मन में कोई अनुभव घटित नहीं होता है। एक प्रखर जगमगाते प्रकाश को कुछ और अधिक नहीं चाहिए होता है, वह अपना प्रकाश स्वयं होता है। वह गतिशीलता किसी दिशा की ओर गति नहीं करती है, क्योंकि दिशा में तो समय निहित है। उस गतिमयता का कोई कारण नहीं है, क्योंकि जिसका कुछ कारण होता है, उसका कोई कार्य अर्थात परिणाम भी होता है और वह कार्य पुनः कारण बन जाता है - और इस प्रकार से कारण और कार्य की अंतहीन शृंखला बनती जाती है, जो परिणाम होता है, वह फिर कारण बना करता है। तो अब न कहीं कोई परिणाम है, न कारण है, न प्रयोजन है, न ही किसी अनुभव का एहसास है। अतएव चूंकि मन पूर्णतः निश्चल है, स्वाभाविक रूप से निश्चल है क्योंकि आप वह नींव रख चुके हैं, इसका जीवन से प्रत्यक्ष संबंध है, यह दैनंदिन जीवन से विच्छिन्न, अलग नहीं है । यदि मन वहां तक जा पाया है, तो वह गतिमयता ही सर्जन है। तब अभिव्यक्ति की बेचैनी नहीं होती है, क्योंकि जो मन सर्जन की स्थिति में है, उससे अभिव्यक्ति हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। इस संपूर्ण मौन में मन की जो स्थिति है - उसमें गति होगी, उसकी अपनी गतिशीलता होगी, अज्ञात में, उसमें जिसे कोई नाम नहीं दिया जा तो जो ध्यान आप किया करते हैं, यह ध्यान नहीं है जिसकी हम बात कर रहे हैं। यह ध्यान शाश्वत से शाश्वत की ओर है, क्योंकि आप नींव रख चुके हैं, समय पर नहीं, अपितु यथार्थ पर वे चीज़ें जिन्हें विचार ने पावनता के रूप में गढ़ा है, वे पावन नहीं हैं। वे तो जीवन को कोई सार्थकता दे देने के लिए प्रदत्त शब्द मात्र हैं, क्योंकि आप जैसा जीवन जी रहे हैं, वह तो पावन नहीं है, पवित्र नहीं है। पवित्र शब्द तो समग्र से आता है, जिसका अर्थ है स्वस्थ, संतुलित, अतएव पवित्र । उस शब्द में वह सब सन्निहित है। तो वह मन - ज़रा इसे समझिए - जो विचार के माध्यम से कार्यरत है, उस पावन को पा लेने के लिए चाहे जितना इच्छुक हो, अभी भी समय के क्षेत्र में विखंडन के क्षेत्र में ही क्रियाशील है, तो क्या मन अविखंडित, समग्र हो सकता है? यह सब समझना, ध्यान क्या है इसे समझने का ही अंश है। मन, जो कि क्रम विकास का, समय का उत्पाद है, उतने सारे प्रभावों, उतनी सारी चोटों, क्लांतियों, इतने सघन दुःख, गहरी चिंता की उपज है, इन्हीं सब में जकड़ा हुआ है। और यह सब विचार का ही परिणाम है। जैसा कि हमने कहा है, विचार का स्वभाव ही खंडित होना है, और मन, जिस स्थिति में यह अब है, विचार का ही नतीजा है। तो क्या मन विचार की गतिविधि से मुक्त हो सकता है? क्या मन पूर्णतः अखंडित हो सकता है? क्या आप जीवन को समग्र रूप में देख सकते हैं? क्या मन समग्र हो सकता है, जिसका अर्थ है उसका एक भी खंड न हो। इसलिए यहां अध्यवसाय की, कर्मठता की बात आती है। मन तब समग्र होता है, जब यह अध्यवसायी होता है, जिसका अर्थ है, यह परवाह लेता है, इसमें गहन स्नेह, अथाह प्रेम होता है, जो नर-नारी के प्रेम सेनितांत भिन्न है। तो ऐसा मन जो समग्र है, अवधानयुक्त होता है, सावधान होता है, इसलिए ध्यान रखता है, परवाह करता है और इसमें प्रेम के गहन स्थायी भाव की गुणवत्ता होती है। ऐसा मन ही वह समग्रता है। तब आप उस स्थल पर आते हैं, जब यह अन्वेषण आरंभ होता है कि ध्यान क्या है। अब हम पावन के अन्वेषण में आगे बढ़ सकते है। कृपया सुनें, यह आपका जीवन है, अपना हृदय तथा मन इस बात का पता करने में लगाएं कि जीवन जीने का एक बिलकुल भिन्न ढंग कौन-सा है। जिसका अर्थ है, जब मन समस्त नियंत्रण का परित्याग कर दे। इसके ये मायने नहीं हैं कि आप एक ऐसी ज़िन्दगी जीने लगें, जिसमें जो चाहे किया करें, खुद को हर इच्छा, हर वासना भरी झलक या प्रतिक्रिया, हर सुख, सुख की दौड़ की मांग के हवाले कर दें, बल्कि यह पता लगाएं कि क्या आप किसी भी नियंत्रण के बिना, कोई भी बंदिश लगाए बिना अपना दैनिक जीवन जी सकते हैं। यह ध्यान का ही एक हिस्सा है। इसका अर्थ है कि व्यक्ति में अवधान का, सावधानी का यह गुण होना आवश्यक है । वह अवधान ही इस बारे में अंतर्दृष्टि को जन्म देता है कि विचार की सही जगह क्या है; विचार खंडनशील होता है, तथा जहां नियंत्रण होता है, वहां नियंत्रक और नियंत्रित होते हैं, जो कि विखंडन है। तो किसी भी नियंत्रण के बिना जीवन का ढंग पता लगाने के लिए अपार अवधान की, अनथक अनुशासन की दरकार होती है, और यह वैसा अनुशासन नहीं है जिसके आप अभ्यस्त हैं, जो दमन, नियंत्रण, अनुसरण मात्र है, अपितु हम बात एक ऐसे अनुशासन की कर रहे हैं, जिसका अर्थ होता है सीखना। अनुशासन शब्द शिष्य शब्द से आया है। शिष्य वह है, जो सीख रहा हो । अब यहां न कोई शिक्षक है, न शिष्य हैः आप ही शिक्षक हैं और आप ही शिष्य हैं, यदि आप सीख रहे हैं। और सीखने का यह कृत्य ही अपनी व्यवस्था स्वयं लाता है। अब विचार ने इस बात का पता लगा लिया है कि इसकी जगह, सही जगह क्या है। तो अब मन पर भौतिक प्रक्रिया के रूप में होने वाली उस गतिविधि का बोझ नहीं है, जो कि विचार है। जिसका अर्थ यह है कि मन पूरी तरह खामोश है, मौन है। यह स्वाभाविक रूप से मौन है, इसे मौन बनाया नहीं गया है। जिसे मौन बना लिया गया हो, शांत बना लिया गया हो, वैसा मन तो बंजर है। पर जब मन मौन होता है, खामोश होता है, तो उस खामोशी में, उस रिक्तता में कुछ नयाघटित होता है। तो क्या यह मन, आपका मन, बिना नियंत्रण के, बिना विचार की गतिविधि के पूर्ण रूप से मौन हो सकता है, निश्चल हो सकता है? यह स्वाभाविक रूप से मौन हो जाएगा, यदि आपको वह अंतर्दृष्टि मिल जाय - वह अंतर्दृष्टि, जो विचार को इसके सही स्थान पर ले आती है। तब फिर विचार की अपनी एक सही जगह होती है, अतएव मन शांत हो जाता है। आप समझ रहे हैं कि शांत शब्द का, मौन शब्द का क्या अर्थ होता है? ऐसा है कि आप मन को कोई मादक द्रव्य ले कर, किसी मंत्रपाठ के द्वारा, उसको लगातार, बारबार दोहराकर शांत तो कर सकते हैं, ज़ाहिर है कि तब आपका मन चुप पड़ ही जाएगा। पर ऐसा मन एक मंद, मूढ़ मन होगा। फिर एक शांति वह है, जो दो ध्वनियों के मध्य में होती है। दो सुरों के बीच एक खामोशी होती है। फिर शाम की एक चुप्पी है, जब पंछी खूब बोलियां बोल लेने, चहचहा लेने के बाद सोने चले गए हैं और एक भी पत्ता नहीं खड़क रहा है, हवाएं थम गई हैं और फिज़ा पूरी तरह से खामोश है, किसी शहर में नहीं बल्कि जब आप कहीं बाहर होते हैं, कुदरत के साथ, पेड़ों के आस-पास, या आप किसी नदी के किनारे बैठे होते हैं तो एक चुप्पी उतर आती है धरती पर, और आप उस चुप्पी का ही हिस्सा होते हैं। तो अलग-अलग ढंग की शांति होती है, पर जिस शांति की बात हम कर रहे हैं, मन के मौन की, उस मौन को खरीदा नहीं जा सकता, आप उसका अभ्यास नहीं कर सकते, वह ऐसा कुछ नहीं है जिसे एक भद्दी जिंदगी के मुआवज़े के तौर पर, ईनाम की शक्ल में आप हासिल कर लें। यह तो तभी घटित होता है, जब यह विद्रूप जीवन एक अच्छे जीवन में रूपांतरित हो जाए, यहां अच्छे से मेरा तात्पर्य वैभव से नहीं, अपितु शुभता के, अच्छाई के जीवन से है; उस शुभता के, सुंदरता के खिलने पर ही उस मौन का आगमन होता है। और आपको इस प्रश्न पर भी सोच-विचार करना है कि सुंदरता क्या है। सौंदर्य होता क्या है? क्या आप कभी इस प्रश्न में गए हैं, या इसका जवाब आप किसी किताब में ढूंढ़ लेंगे और मुझे या एक-दूसरे को बताने लगेंगे कि उस किताब के मुताबिक सौंदर्य क्या है। तो क्या है सौंदर्य? क्या आपने यहां बैठे हुए इस शाम ढलते सूरज को देखा? वक्ता के पीछे की ओर सूरज ढल रहा था। क्या आपने उसे देखा? क्या आपने उस रोशनी को, पत्ते पर झलकती उस रोशनी की शान को महसूस किया? या फिर आप यह सोचते हैं कि सौंदर्य तो ऐंद्रिय है, इंद्रिय-संवेदन का विषय है, और जो मन पवित्रताओं की खोज में लगा है, उसे सौंदर्य में आकृष्ट नहीं होना चाहिए, सौंदर्य से उसे क्या लेना-देना, इसलिए आपको तो बस उस छोटी सी छवि पर एकाग्रता साधे रखनी है, जिसका शुभ के रूप में प्रक्षेपण आपने ही विचार द्वारा किया है। तो आपको यह मालूम करना होगा, यदि आप पता लगाना चाहते हैं कि ध्यान क्या है तो आपको यह पता लगाना होगा कि सौंदर्य क्या है। चेहरे का सौंदर्य, चरित्र का सौंदर्य - नहीं, चरित्र नहीं, क्योंकि चरित्र तो एक मामूली-सी बात है, जो आपकी परिवेशगत प्रतिक्रिया पर निर्भर करती है और उस प्रतिक्रिया का पोषण ही चरित्र कहलाता है। कर्म का सौंदर्य, व्यवहार की, आचरण की सुघड़ता, वह अंदरूनी खूबसूरती, जिस ढंग से आप चलते हैं, बात करते हैं, जो आपके हाव-भाव होते हैं, मुद्राएं होती हैं, उन सबकी सुंदरता, यह सभी कुछ सौंदर्य है। और इसके बिना ध्यान मात्र एक पलायन, सांत्वना, निरर्थक क्रिया बन जाता है। फिर सादगी में एक सौंदर्य है, अपरिग्रह का विराट सौंदर्य - अपरिग्रह संन्यासी का नहीं, अपितु उस मन का अपरिग्रह जिसमें व्यवस्था आ गई है। व्यवस्था तब आती है, जब आप उस समस्त अव्यवस्था को समझ लेते हैं, जिसमें आप रह रहे हैं और उस व्यवस्था में से एक सहज व्यवस्था उदित होती है, जो कि सदाचार है। अतः सदाचार, व्यवस्था ही परम अपरिग्रह है, न कि दिन में तीन बार खाने का निषेध अथवा उपवास या सिर मुंडाना या वैसी ही तमाम बातें। तो एक व्यवस्था है, जो कि सौंदर्य है; प्रेम का सौंदर्य है, करुणा का सौंदर्य है। फिर एक साफ-सुथरी गली का, किसी भवन के सुरुचिपूर्ण शिल्प का सौंदर्य है, एक वृक्ष का, प्यारी सी पत्ती का, फैली हुई बड़ी-बड़ी शाखाओं का सौंदर्य है, इस सबको निहारना सौंदर्य है, न कि संग्रहालयों में जाते रहना और सौंदर्य के बारे में लगातार बातें बनाते रहना। एक मौन मन की शांति ही इस सौंदर्य का सार है। चूंकि यह मौन है और विचार का कोई खेल-खिलौना नहीं है, अतः इस मौन में, इस शांति में उसका आगमन होता है, जो अविनाशी है, जो पुनीत है, पावन है। और उस पावन के आगमन के साथ ही जीवन पावन बन जाता है, आपका जीवन पावन बन जाता है, हमारा संबंध पावन बन जाता है, सब कुछ पावन बन जाता है क्योंकि आपने उसका स्पर्श कर लिया है, जो कि पावन है। हमें इस बात का भी पता लगाना होगा कि क्या ध्यान में कुछ ऐसा है अथवा ऐसा कुछ नहीं है जो शाश्वत है, कालातीत है; जिसका अर्थ यह है कि क्या मन, जिसका पोषण समय के क्षेत्र में ही होता रहा है, क्या ऐसा मन उसका पता लगा सकता है या उस तक आ सकता है या उसे देख सकता है, जिसका विस्तार अनंतता से अनंतता तक है? इसका अभिप्राय है कि क्या मन समय से रहित हो सकता है - हालांकि यहां से वहां जाने और इस प्रकार की बातों के लिए समय आवश्यक है, क्या वह मन, वही मन जो समय के अंतर्गत कार्यरत है, यहां से वहां मनोवैज्ञानिक रूप से नहीं अपितु शारीरिक रूप से जा रहा है, क्या ऐसा हो सकता है कि वह मन अतीत से, वर्तमान से, भविष्य से रहित हो ? क्या वह मन संपूर्ण शून्यता में हो सकता है? इस शब्द से भयभीत न हों। चूंकि यह रिक्त है, इसलिए इसमें विस्तीर्ण अवकाश होता है। क्या आपने कभी अपने मन का निरीक्षण किया है कि क्या इसमें कोई भी अवकाश है? अवकाश, आप समझ रहे हैं, बस थोड़ा सा रिक्त स्थल ? या सब कुछ भरा-भराया है ? इसमें भीड़ भरी है आपकी चिंताओं की, आपकी यौनवासना की अथवा उसके निषेध की, आपकी उपलब्धियों, आपकी जानकारी, आपकी महत्त्वाकांक्षाओं, भयों, आपकी दुश्चिंताओं की, आपकी क्षूद्रताओं की भीड़ ही भीड़ है। ऐसा मन कैसे उस स्थिति को समझ सकता है, जिसमें उसके भीतर विराट अवकाश है, जिसमें वही विराट अवकाश है? अवकाश हमेशा विराट होता है। अवकाश, आकाश सदैव विराट ही होता है। ऐसा मन जिसके भीतर दैनिक जीवन में यह अवकाश नहीं है, संभवतः उस तक कभी नहीं आ सकता जो शाश्वत है, और इसी कारण ध्यान असाधारण रूप से महत्त्वपूर्ण हो जाता है। वह ध्यान नहीं जिसका आप सब अभ्यास करते हैं, वह तो ध्यान कतई नहीं है, पर जिस ध्यान की हम बात कर रहे हैं, वह मन में रूपांतरण ले आता है। केवल ऐसा मन ही धार्मिक मन है। और ऐसा धार्मिक मन ही एक भिन्न संस्कृति को जन्म देता है, यह अलग ही संबंध, जीवन जीने का एक अलग ही ढंग ले आता है, इसमें उस पावनता का भाव अतएव महान सौंदर्य एवं आर्जव होता है, ईमानदारी होती है। और इस सबका आगमन सहज-स्वाभाविक रूप से, बिना किसी संघर्ष के, निष्प्रयास ही होता है। चेन्नई, 15 दिसम्बर 1974 कमरा उस आशिष से परिपूर्ण हो उठा। इसके पश्चात जो कुछ घटित हुआ, उसे शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना लगभग असंभव है; शब्द कितने निर्जीव होते हैं, उनका सुनिश्चित और तय अर्थ होता है और जो घटित हुआ, वह शब्दों तथा वर्णन की क्षमता से पूर्णतया परे था। यह समस्त सृष्टि का केंद्र था; यह एक पावनकारी गांभीर्य था, जिसने मस्तिष्क को हर विचार व हर भावना से मुक्त कर परिमार्जित कर दिया था। इसका यह गांभीर्य बिजली सा था जो नष्ट कर देती है, जलाकर भस्म कर देती है; इसकी गहनता को मापा जाना संभव न था, यह अचल, अभेद्य था, अविकंप और प्रत्यक्ष किंतु आकाश सा निर्भार। यह नेत्रों में था, श्वासों में था। जिन नेत्रों ने देखा, जिन्होंने अवलोकन किया, वे नेत्र स्थूल चक्षुओं से वैसे तो पूर्णतः भिन्न थे, तथापि वे थे वही। वहां बस देखना मात्र रह गया था, वे आंखें जो समय-आकाश से परे देख रही थीं। इसमें एक अभेद्य गरिमा थी और थी एक ऐसी शांति जो समस्त गतिशीलता का, समस्त कर्म का सार-स्वरूप तत्त्व है। इसे कोई पुण्य स्पर्श नहीं करता, क्योंकि यह समस्त पुण्य से और सभी मानवसम्मत निर्णयों से परे है। वहां केवल प्रेम था, जो अत्यंत भंगुर था, कोमल था, और इसलिए इसमें सभी सद्यःजात वस्तुओं जैसी सुकुमारता थी, आकस्मिक आघात से अपनी रक्षा न कर पाने की कोमलता, सुभेद्यता, भंगुरता थी, तथापि वह इन सबसे मुक्त था अतएव अविनाशी था, इसे कोई संज्ञा नहीं दी जा सकती थी, यह ज्ञान से अस्पर्शित था। इसे कोई विचार कभी न भेद सकता था; कोई कर्म इसे छू भी न सकता था। यह विशुद्ध था, स्पर्श से परे; और इसीलिए प्रति क्षण मर्त्य होते हुए सुंदर था। यह सब मस्तिष्क को प्रभावित करता हुआ जान पड़ता था, अब यह पूर्व की तरह नहीं था (विचार कितनी सतही चीज़ होता है, आवश्यक, किंतु सतही) । इसकी विद्यमानता के कारण संबंध रूपांतरित हो गए से लगते थे। जैसे कोई भयानक झंझावात, कोई विनाशकारी भूकंप नदियों के रुख को बदल देता है, प्राकृतिक भूदृश्य को परिवर्तित कर देता है, धरती में गर्त निर्मित कर देता है, वैसे ही इसने विचार के रूपाकार को संतुलन दे दिया है, हृदय की रचना को बदल डाला है। यह एक मेघाच्छन्न दिवस था, काले बादलों के भार से बोझिल; सुबह वृष्टि हुई थी और वातावरण में ठंडक आ गई थी। घूमने के पश्चात यद्यपि हम लोग बातें तो कर रहे थे, पर हमारा अधिक ध्यान धरती के सौंदर्य पर, मकानों पर तथा वृक्षों के गहरे रंगों की छटा पर था। अप्रत्याशित रूप से अचानक उस अलभ्यप्राय शक्ति और दृढ़ता की एक चमक कौंधी जो कि शरीर को स्तब्ध कर देने वाली थी। देह मानो ठिठक कर निश्चल हो गई हो, और अपने नेत्र बंद कर लेने पड़े, ताकि मूर्च्छा न आए। यह विभंजनकारी था, और ऐसा जान पड़ा जैसे वह सब कुछ जो वहां था, एकाएक अस्तित्वरहित हो गया हो। और उस शक्ति की अचलता ने तथा उसकी सहवर्ती विध्वंसात्मक ऊर्जा ने, दृष्टि तथा श्रवण शक्ति की सारी सीमितताओं को जलाकर भस्मसात् कर दिया था। यह कुछ ऐसा विराट था, जिसका वर्णन किया जाना असंभव है और जिसकी ऊंचाई तथा गहराई अनवगम्य है, उसे जाना नहीं जा सकता। आज पौ फटने के साथ ही, सुबह-सवेरे, जब आकाश में एक भी मेघ न था, और हिमढके पर्वत बस आभासमान ही हुए थे कि अपने नेत्रों तथा कंठ में उस अभेद्य शक्ति की उपस्थिति के बोध से जाग गया; यह स्थिति कुछ ऐसी लग रही थी, जिसे छुआ जा सकता है, कुछ ऐसा, जिसका न होना कभी संभव ही न हो । प्रायः एक घंटे तक यह विद्यमान रही और मस्तिष्क रिक्त रहा। यह ऐसा कुछ नहीं था जिसे विचार पकड़ ले और रोककर स्मृति में संचित कर ले, ताकि फिर कभी इसे स्मरण कर सके। यह तो बस विद्यमान था, और समस्त विचार मृत था । विचार क्रियाधर्मी होता है और उसी परिप्रेक्ष्य में इसका उपयोग भी है; विचार इसके बारे में नहीं सोच सकता क्योंकि विचार समय है; और यह तो समस्त काल तथा परिमाण के पार था। विचार, कामना इसके सातत्य अथवा पुनरावृत्ति हेतु प्रयास नहीं कर सकते, क्योंकि विचार व कामना तो सर्वथा अनुपस्थित थे। फिर यह क्या है जो इसे लिख लेने के लिए स्मरण रखता है? केवल यंत्रचालित अंकन, परंतु यह अंकन, यह शब्द वह वस्तु नहीं है। प्रायः रात्रि-भर वर्षा होती रही थी, जिसके फलस्वरूप ठंड काफी बढ़ गई थी; ऊंची पहाड़ियों तथा पर्वतों पर ढेर सारी ताज़ा बर्फ जमा हो गई थी। और हवा में भी चुभन सी थी। हरे-भरे मैदान असाधारण रूप से उज्ज्वल थे, और उनकी हरीतिमा चमत्कृत कर देने वाली थी। लगभग पूरे दिन पानी बरसता रहा था और तीसरे पहर के जाते-जाते आकाश खुलने लगा और सूर्य पर्वतों के मध्य दिखलाई देने लगा। हम एक ऐसे रास्ते पर चल रहे थे, जो कई गांवों से होकर गुज़रता था, जो फार्म हाउसों के बीच से मुड़ता-घूमता हुआ, हरे-भरे मैदानों से होकर जाता था। बिजली के उच्चशक्ति के तार ढोने वाले भीमकाय स्तंभ सांध्य आकाश की पृष्ठभूमि में चमत्कारी ढंग से खड़े थे। चपल मेघ और उनकी सन्निधि तक पहुंचती उत्तुंग लौह संरचनाएं, सुंदरता और शक्तिमत्ता का एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत कर रही थीं। लकड़ी के पुल पर से पार जाते हुए, इस सारी वृष्टि से उमड़ आई धारा अपने यौवन के चरम पर दिखलाई देती थी; यह एक ऐसी ऊर्जा और शक्ति के साथ तीव्र वेग से बहती जा रही थी, जो केवल पर्वत से निकलने वाली धाराओं में ही देखी जा सकती है। ऊपर तथा नीचे की ओर, पत्थरों और वृक्षों से भरे किनारों के बीच दृढ़तापूर्वक बंधी हुई उस धारा पर दृष्टि डालते समय, काल की गति का, अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का पूरा भान था; पुल वर्तमान था और इस वर्तमान से ही होकर समस्त जीवन गतिमान तथा प्राणवान था, चिन्मय और चेतन था। पर इस सबसे परे उस बारिश से धुली और कीचड़ सनी गली में वह अन्यतम, वह जगत विद्यमान था जिसे मानव विचार, उसकी गतिविधियां तथा उसकी अंतहीन वेदनाएं कभी स्पर्श तक नहीं कर सकतीं। यह जगत आशा अथवा विश्वास की उत्पत्ति न था। उस समय यद्यपि इस ओर पूर्ण एकाग्रता न थी, क्योंकि देखने, अनुभव करने तथा गंध लेने हेतु तब कितनी ही वस्तुएं वहां पर थीं; मेघ थे, पर्वतों के पार धूसर-नील आकाश था, और उसके मध्य स्थित सूर्य भी था; चमकदार मैदानों पर फैला सांध्य आलोक था तथा गोशालाओं एवं फार्म हाउसों के चारों ओर खिले लाल फूलों की गंध भी थी। इस अलौकिकता ने वहां पर इस सबको आवृत कर लिया था, कोई छोटी से छोटी वस्तु भी विस्मृत नहीं की गई थी; और शैया पर जाग्रत पड़े होने की इस अवस्था में, यह वृष्टि की तरह से उमड़ती हुई, मन और हृदय को परिव्याप्त करते हुए प्रविष्ट हुई। और इसके गहन सौंदर्य का, इसकी उत्कटता और प्रेम का स्पर्श बोध में उतरने लगा। यह प्रेम वह नहीं है, जिसे प्रतिमाओं में ढालकर मंदिरों में पूजा जाता है; यह प्रेम वह नहीं है जिसका प्रतीकों, चित्रों और शब्दों आदि के द्वारा आह्वान किया जाता है; यह प्रेम वह भी नहीं है जो ईर्ष्या और डाह के वेश में होता है; वरन् यह ऐसा प्रेम है, जो विचार तथा भावना से विमुक्त है, जो स्वतः संचालित स्वच्छंद गतिशीलता है। इसका सौंदर्य स्व-परित्याग के भावोद्रेक से युक्त होता है। यदि यह संयम से रहित हो, तो उस सौंदर्य में भावोद्रेक का अभाव रहेगा। संयम मन के क्षेत्र की कोई वस्तु नहीं होती, जिसे त्याग, दमन और अनुशासन के माध्यम से एकत्रित किया जा सके। इन सबका तो अनायास सहज रूप में पर्यवसान हो जाना आवश्यक है, क्योंकि उस अन्यतम के लिए इनका कोई प्रयोजन नहीं है। एक बाढ़ की तरह यह अपनी अमित विपुलता के साथ भीतर बरस गया। इस प्रेम का न तो कहीं केंद्र था, और न परिधि थी और यह इतना परिपूर्ण, ऐसा अभेद्य था, कि इसमें कोई छाया तक विद्यमान न थी, जो इसे स्पर्श कर सकती हो; अतः यह सदैव मिटाया भी जा सकता था। अपने अंतःकरण में भी हम सदा बाह्यपरक दृष्टि का ही प्रयोग करते हैं; जानकारी से हम और अधिक जानकारी की दिशा में आगे बढ़ते हैं, सदैव इसकी वृद्धि करने में ही संलग्न रहते हैं; और यदि कभी जानकारी से मुक्ति का प्रयत्न भी किया जाता है तो वह भी पुनः वृद्धि का ही एक और नया प्रकार मात्र होता है। और हमारी चेतना हजार स्मृतियों तथा परिचयों-मान्यताओं से निर्मित है; इसमें थरथराती पत्ती के प्रति हमारी चेतना, फूल के प्रति, उस मनुष्य के हमारे समीप से गुज़रने के प्रति, मैदान में दौड़ रहे उस बच्चे के प्रति, इसी प्रकार चट्टान के, निर्झर के, चटकीले लाल पुष्प तथा सुअरबाड़े की दुर्गंध के प्रति हमारी चेतना सभी संयुक्त है; हमारी चेतना इस सबका योग है। इस स्मरण तथा परिचय के आधार पर, इन बाहरी प्रत्युत्तरों के माध्यम से हम अपने अंतर्जगत को, अपने गहनतर प्रयोजनों और बाध्यताओं को समझने का यत्न करने लगते हैं, हम मन की
d1f43820deb11ada4797e32111764485b665c28c308b1da723d36132ec97368e
pdf
की सहकार समितियों का संगठन जरूरी है जिससे कि वे अनिवार्य आवश्यकताओं की चीजों को उनसे प्राप्त कर सकें, और बिचवैयों पर कम निर्भर रहें । पंचवर्षीय योजना में पूर्ति की चीजों के वितरण को सुविधाजनक बनाने तथा मछली शिकार के कीमती सरंजामों के क्रम में सहायता देने के लिये ६०,००,००० लाख रुपये की व्यवस्था की गई है। मछली की बिक्री ११. ताजे पानी की अधिकांश मछलियां ताजी मछलियों के रूप में बेची और खाई जाती हैं। दूसरी तरफ समुद्री मछली में से भी २० प्रतिशत ताजी मछली के रूप में बेची जाती हैं। बाकी ८० प्रतिशत या तो धूप में सुखा कर या नमक में जमा कर या मछली के खाद्य या खाद मे तबदील कर बेची जाती हैं। ताजी मछली की बहुत वढी मांग की पूर्ति करने के लिये यह ज़रूरी है कि सामुद्रिक मछली में से और अधिक हिस्सा ताजी मछली के रूप में बाजार में थाये, पर ऐसा केवल पूर्ति की दृष्टि से ही नहीं, मछवाहों को अधिक पैसा दिलाने के हित मे भी ज़रूरी है। यहीं पर आकर बरफ में जमा कर रखने के साधन तथा सुविधाओं और फौरन परिवहन की सुविधाओं की बात आती है। कई मछली उद्योग केन्द्र ऐसे हैं जिनकी अपने आसप की भूमि से कोई संचार सम्बन्धी सुविधा नहीं है, और यह तो साफ है कि संचार का विकास एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है । १२ जब तक संचार की उन्नति न हो, और फौरन सुविधाओ की प्राप्ति न हो, तब तक बहुत सालों तक अधिकतर धूप मे सुखा कर या नमक मे जमा कर रखना पडेगा । जो कुछ भी हो इस सम्बन्ध में काम श्राने लायक सरकारी विभागों का यदि अधिकतर उपयोग किया जाय, और शोध से यह मालूम हो कि विभिन्न मछलियो को रखने के लिये कितने नमक का प्रयोग होना चाहिये, कैसे नमक का उपयोग किया जाना चाहिए तथा किन मौसमो में कौन से तरीके अच्छे हो सकते हैं, तो बहुत अच्छा काम हो सकता है। एक ज़माने में नमक में मछली जमाने के सरकारी कारखाने इस लिए बहुत जनप्रिय हो गए थे कि वहां जो नमक दिया जाता था, वह नमक कर से मुक्त था, पर जब से नमक पर कर ही उठा दिया गया, तब से ये लोग निजी कारखानों की शरण ले रहे हैं। इस प्रवृत्ति पर इस तरह रोकथाम हो सकती है कि मद्रास, त्रावन्कोर कोचीन तथा सौराष्ट्र में जो इस सम्बन्धी कारखाने चालू हैं, उनमें दिये जाने वाले नमक के एक अंश का दाम सरकार दिया करे । १३. बड़े पैमाने पर मछली शिकार से कई बार ऐसी अवस्था उत्पन्न हो सकती है कि जब बहुत अधिक मछलियां पकडी जायें, बाज़ार में गुंजाइश ही न रहे, और इस लिए मछली के दाम में बहुत घटा बढ़ी हो सकती है, और इससे छोटे मछवाहों को ही अधिक तकलीफ पहुँचने की सम्भावना है । इसलिए यह सुझाव रखा जा रहा है कि वम्बई, कोचीन और कलकत्ते में जो भी मछलियाँ पकड़ी जायें वे राज्य सरकारों के द्वारा संगठित सहकारसमिति के ज़रिये से वेची जाए। इस बीच में विक्री के लिए प्रयोग, जिन में मछवाहें, व्यापारी, खरीदार और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि हों, इन केन्द्रों में स्थापित किए जाए जिसमे बिक्री पर नियन्त्रण रहे । मछली उद्योग सम्बन्धी योजना १४ पंचवर्षीय योजना में १,८०,००,००० लाख रुपए इस काम के 'लिए रखे गए हैं कि मछली विकास कार्यक्रम को चालू किया जाय । जितनी सारी योजनाएं हैं, उनसे मछली का उत्पादन योजना काल में १० लाख टन से बढ़ कर १५ लाख टन हो जायगा । पोषण के संबन्ध में परामर्श देने वाली कमेटी के अनुसार ७० प्रतिशत देश वासियों के लिए प्रति वयस्क व्यक्ति १.३ औंस के हिसाब से ६० लाख टन मछली की ज़रूरत है। इस प्रकार १५ लाख टन का लक्ष्य प्राप्त होने पर भी असली लक्ष्य बहुत दूर रह जाता है। इस से यह ज्ञात होता है कि श्रागे कितनी खाई भरनी है। -:0:अध्याय २४ गांव के धन्धे बड़े पैमाने पर उद्योग-धन्धों की वृद्धि के कारण गांव में उत्पन्न बहुत सी उपजों की मांग घट गई है, जिसका नतीजा यह है कि गांव के बहुत से कारीगरों की श्रेणियां अपने परम्परागत कामों की दृष्टि से श्रशिक रूप से बेकार हो गई है। केवल इतना ही नहीं, अब ये लोग खेती में काम करने वालों की भीड़ को बढ़ा रहे हैं । इस बीच में देहाती क्षेत्र से बाहर आर्थिक प्रगति इतनी अधिक नहीं हुई है कि इस प्रकार जमीन पर जो दबाव बढ़ रहा है, उसकी रोकथाम की जा सके। इसलिये देहाती इलाकों के विकास के किसी भी कार्यक्रम में गांव के धन्धों के विकास को एक केन्द्रीय स्थान अवश्य देना होगा । २. भूतकाल में हमारे गांव हद तक श्रात्मभरित इकाई के रूप में थे । एक छोटे से मंडल के अन्दर वस्तुओं और सेवाओं का पारस्परिक नियमित आदान-प्रदान होता था, और इस मंडल के लोग एक बडी हद तक एक दूसरे पर निर्भर होते थे । आज भी यदि गांवों के धन्धों का पुनरुद्धार किया जाय, तो वह अनिवार्य रूप से सबसे पहले स्थानीय मांग पर तथा एक छोटे से दायरे में पारस्परिक विनिमय के विकास पर निर्भर होंगे। पर गांव के संगठन को बदली हुई परिस्थिति के अनुसार बदलना पडेगा । अब यह एक शिथिल ढांचे के रूप में, जिसमें लोग एक दूसरे से अलग काम करते हैं, काम नहीं कर सकता । इस के विपरीत इसे बँधी हुई इकाई के रूप में काम करना पड़ेगा, और सरकार से सहायता लेकर इसमें इतनी सामर्थ्य होनी चाहिये कि वह सब देहात के मजदूरों को, चाहे वे किसान, खेतिहर मजदूर या कारीगर हो, काम देने में समर्थ हों । इसलिये श्रव गांव के धंधे संगठित समुदाय के रूप में काम करने वाले ग्राम समाज के अंग होंगे कम से कम हमारे सामने अन्तिम उद्देश्य यही है, पर इस यीच में कारीगरों को सहकारी समितियों के यनने से कुछ न कुछ उपयोगी संगठन प्राप्त होगा। ३. इस प्रकार गांव का संगठन तो आधार होगा, पर केन्द्र में भी एक संगठन ऐसा होना चाहिये जो गांव के धंधों की समस्याओं का अध्ययन करे, राज्य सरकारों के लिये अनुकूल परिस्थितियों, रचनात्मक संगठनों तथा सहकारी समितियों को सृष्टि करे ताकि कुटीर उद्योगों का विकास हो सके । इस लिये यह प्रस्ताव रखा जा रहा है कि एक खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड स्थापित किया जाय । यह बोर्ड सरकार के विभागीय यन्त्र के बाहर होगा और इसमें खादी, और गांव के धन्धे के क्षेत्रों के तजरबेकार कार्यकर्ता होंगे और केन्द्रीय सरकार के कुछ प्रतिनिधि भी होंगे । यह बोर्ड खादी और गांव के धन्धों के विकास के सम्बन्ध में कार्यक्रम बनाने के अतिरिक्त इन बातों की व्यवस्था करेगा जैसे कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण, जरूरी चीजों तथा यन्त्रों का उत्पादन तथा पूर्ति, कच्चे मालों को पूर्ति, बिक्री, शोध इत्यादि । बोर्ड का एक कार्य यह भी होगा कि कुटीर उद्योगों की प्रगति के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ और तजबै प्राप्त होंगे, उन्हें वह प्राप्त और प्रसारित करेगा । जो राज्य केन्द्रीय संगठन के साथ घनिष्ट सहयोग से काम करेंगे, उनके लिये भी ऐसे संगठनों की जरूरत होगी । राज्य की नीति ४. हमारी नीति का एक प्रधान लक्ष्य यह होगा कि प्रत्येक कुटीर उद्योग के लिये एक ऐसे क्षेत्र की व्यवस्था की जाय जिसमें वह संगठित रूप से कार्य कर सके । जब भी एक बडे पैमाने पर चलने वाला धन्धा कुटीर उद्योग से होड करेगा उस समय दोनों के लिये एक सामान्य उत्पादन सम्बन्धी कार्यक्रम इस प्रकार से चलना चाहिये कि दोनों धीरे-धीरे घनिष्ट रूप से एक दूसरे के अंग हो जायं। मांग और पूर्ति की परिस्थितियों के सम्बन्ध मे निर्णय करने के अतिरिक्त इन कार्यक्रमों में ऐसी बाते श्री सकती हैं, जैसे उत्पादन के क्षेत्रों को रिजर्व करना, बडे पैमाने के धन्धे के विस्तार पर रोक लगाना, बड़े पैमाने के धन्धे पर एक कर लगाना, कच्चे मानो की पूर्ति के लिये व्यवस्था करना तथा शोध और प्रशिक्षण में श्रदान प्रदान और सहयोग स्थापित करना । ५. संगठित वस्त्र धन्धा तथा कर्वे के बुनकरो के बीच छोटे पैमाने पर अपने अपने क्षेत्र को रिजर्व कर देने का प्रयत्न पहले ही किया जा चुका है । इसी सिद्धांत को कई दूसरे धन्धों में प्रसारित किया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप तेल के उत्पादन में खाने में काम आने वाले तेल कुटीर शिल्प में उत्पादित हो सकते हैं, और इसो प्रकार भखाद्य तेल, तेल की मिलों में उत्पादित हो सकते हैं । प्रक्रियात्मक ( प्रोसेसिंग ) धन्धों के क्षेत्र मे बड़े पैमाने पर उद्योग-धंधे के विस्तार को श्रागे मना कर दिया जाय। हां, यदि सरकार या सहकारी संगठन एक इकाई स्थापित करना चाहें, तो यात दूसरी है। ६. बड़े पैमाने के उद्योग-धन्धे पर एक कर लगाने का उद्देश्य यह है कि उससे मिले जुले कुटीर शिल्प को लाभ पहुँचाया जाय । एक सामान्य उत्पादन कार्यक्रम में यदि कुटोर शिल्प में उन्नति कुल मिला कर सारे धंधे के हित में है, तो उस धंधे के संगठित अंगों को चाहिये कि वे इस प्रकार का कर लेकर कमजोर तथा प्रसंठित हिस्सों में प्रोद्यौगिक उन्नति और संगठन को आगे बढावें । इस प्रकार से मिल के बने कपड़ों पर कर लगाने का उद्देश्य यह होगा कि खादी और करघे के धंधे को विकसित करने के लिये एक कोष एकन्न किया जाय । इसी प्रकार के कारणों से मिल के तेल पर एक यहुत मामूली सा कर इस उद्देश्य से लगाया जा सकता है कि देहाती इलाकों में होने वाले तेल के धंधे को लाभ पहुंचाया जाय । शोध और प्रशिक्षण ७. यह तो बहुत जरूरी है कि देहाती धंधों को राज्य सरकार से प्रोत्साहन तथा सहायता मिले, पर इसका बहुत ही कम समय के लिये मूल्य हो सकता है जब तक कि इसके साथ ही इस बीच मे उत्पादन की प्रोद्यौगिक प्रणाली में तेजी से उन्नति नहीं होती है । इस लिये देहाती से फैले हुए धंधों के सम्बन्ध में शोध और प्रशिक्षण को बहुत अधिक महत्व दिया जाना चाहिये। शोध के लिये एक केन्द्रीय संस्था की योजना को प्रस्तावित खादी और गांव के धन्धों का बोर्ड फौरन तैयार करे । देश मे अन्य संस्थाओं के साथ सम्पर्क रखने के साथ ही साथ इस संस्था का यह काम होगा कि वह अपनी समस्याओं को राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के सम्मुख पेश करे, और उससे जो परिणाम निकले उसकी सूचना छोटे गोध केन्द्रों तथा कारीगरो तक पहुंचावे । केन्द्रीय सरकार की योजना मे १५ करोड रुपया कुटीर और छोटे पैमाने के धंधों के लिये सुरक्षित रखा गया है, इसका एक हिस्सा इस उद्देश्य के लिये काम में लगाया जाय । ८. इस के अलावा गांव के कारीगरों को बड़े पैमाने पर पद्धतिगत प्रशिक्षण दिया जाय क्योंकि जो प्रदर्शन किये जाते हैं तथा भूमि पर शिक्षा देने वाले दल भेजे जाते हैं, वे इस परिस्थिति में नहीं होते कि वे बराघर पथप्रदर्शन कर सकें या प्रशिक्षण दे देने के बाद उसके नतीजे का अनुसरण करते रह सकें । कुछ ऐसे केन्द्र खोले जाने चाहियें जिनमें प्रशिक्षण के साथ साथ उत्पादन हो, और जो प्रारंभिक वर्कशापों के रूप में हो जैसा कि उत्तर प्रदेश में किया गया है, और उससे उपयोगी परिणाम निकल सकते हैं। ऐसे केन्द्रो में जो कारीगर प्रशिक्षित होते हैं वे अधिकतर योग्यता के साथ कार्य क्षेत्र में उतर कर अपना सिर ऊँचा रख सकते हैं, और साधारण देहाती कारीगर की तुलना में अपने धंधे को अधिक विकसित कर सकते हैं । ६. गांव के कारीगर मुख्यतः स्थानीय खपत के लिये उत्पादन करते हैं, और यदि वे गांव के बाहर के बाजार के लिये उत्पादन करते हैं, तो वे साधारणतः पूंजी के लिये बिचवैयों की शरण लेते हैं । देहाती धन्धों के लिये वित्त को खेती के लिये वित्त की समस्या से विच्छेद्य समझना चाहिये । पर सरकार गाँव के कारीगरों को किसी हद तक तभी सहायता देना शुरू कर सकती है जब कि श्रोद्यौगिक सहकारी समितियाँ स्थापित हो जांय । यदि आवश्यक संगठन हो जाय तो न केवल वित्तीय सहायता को प्रसारित करना सम्भव होगा, बल्कि नये विकास कार्यक्रमो को शुरू करना भी सम्भव होगा। औद्योगिक कार्यक्रम १०. योजना कमीशन ने कुछ देहावी धन्धों के लिये ४ साल के कार्यक्रम बनाये हैं, और यह प्रस्ताव किया जाता है कि बनने वाला खादी और गांव के धंधों का बोर्ड राज्य सरकारों के परामर्श से इन योजनाओं को पूरा करे । कार्यक्रम का खाका नीचे दिया जाता है :1 (क) तेल का धन्धाः- -कोहुओं और सेल की मिलों के लिये उत्पादनका एक सामान्य कार्यक्रम बनाया जाय । धानी के उत्पादन को बढ़ाकर १० से १३.८ लाख टन बीज पेरना कर दिया जाय, जिससे वर्तमान समय में सिद्धों में जितनी पिराई होती है, उसमें से एक हिस्सा अन्यन्त्र चला जायगा, और उनकी जगह पर बिनौले का पेरना चलाया जाय । अकुशल कोल्हुओं की जगह पर अच्छी किस्मों के कोल्हू प्रचारित किये जायं । उन्नक
d119b7ec7f1e0685faf9ab226e351f8ab0d48508adf0ff4aa4db791793dfb5b0
pdf
आवश्यकताओं के अनुसार व्यापार की इन नीतियों के दृढ़ उपयोग के द्वारा जर्मनी ने दक्षिण अमरीका तथा पूर्व के बाजारों को पूर्णतः अपने अधिकार में आंग्ल-अमरीकी व्यापारियों को हराकर करवा लिया था और इसी प्रकार उसने सम्पूर्ण दक्षिण पूर्वी योरुप पर भी सैनिक व राजनीतिक विजय के पूर्व ही उन पर आर्थिक आधिपत्य स्थापित कर लिया था । Solana प्रजातन्त्रीय राज्यों को आत्मरक्षा में इन्हीं शस्त्रों का उपयोग करना आवश्यक हो गया है । उन्हें भी वित्त, साख, और विनिमय का नियन्त्रण करना, वैदेशिक व्यापार में राष्ट्रीय व्यापारी समझौतों द्वारा वृद्धि करना और सामारिक महत्व के खनिज पदार्थों के व्यापार पर पूर्ण नियन्त्ररण करना आवश्यक हो गया है। संयुक्त राज्य अमरीका की आयात-निर्यात बैंक जिसकी स्थापना विश्व के आर्थिक पुननिमारण में सहायता देने के उद्देश्य से हुई थी, का उपयोग चीन जैसे सर्वाधिकारी आक्रमण के शिकार को सरकारी ऋण देने के लिए हुआ था । द्वितीय महायुद्ध के काल में प्रत्येक सरकार को यदि वहं सर्वाधिकारी हो अथवा प्रजातन्त्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार पर राष्ट्रीय सुरक्षा के हित में कई प्रतिवन्ध लगाने पड़े थे । यह नया समाजवादी दर्शन चाहे प्रजातन्त्रीय हो अथवा सर्वाधिकारी प्रत्येक राष्ट्र को कम से कम इस अर्थ में तो अपनाना ही होगा कि समस्त व्यापारिक संस्थाऐं, उत्पादन व वितरण सरकार के द्वारा सार्वजनिक हितों के लिए नियन्त्रित होगा जोकि यथार्थ में दलीय राजनीति के द्वारा निश्चित किए जाऐंगे। इस युद्धोत्तर युग में राष्ट्र व राजनैतिक व आर्थिक इकाई नहीं रहा है। यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि किसी भी राष्ट्र के लिए अब सर्वथा राष्ट्रीय आर्थिक नीतियाँ अथवा आर्थिक साम्राज्यवाद को अपनाना असम्भव है और आर्थिक साम्राज्यवाद के युग का प्रायः अन्त होने ही वाला है । राष्ट्रीय सरकारों को प्रादेशिक और महाद्वीपी आर्थिक नीतियाँ अपनाना आवश्यक हो गया है, और यह भी सम्भव है कि वह समय शीघ्र ही आएं जबकि आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रों की अन्तःनिर्भरता को समझने का व कार्य रूप में लागू करने का एक दृढ़ प्रयत्न हो तथा सम्पूर्ण विश्व में एक ही आर्थिक व्यवस्था स्थापित की जा सके । द्वितीय महायुद्ध के महत्वपूर्ण आर्थिक परिणाम इस प्रकार हैं । सोवियत संघ की विजय ने समाजवादी आर्थिक व्यवस्था की शक्ति र औचित्य को सिद्ध कर दिया है । (व) जर्मनी, इटली तथा जापान में फासीवाद, पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्थाओं का अन्त तथा उनके स्थान पर प्रजातन्त्रीय, पूँजीवादी, आर्थिक व्यवस्थाओं को अमरीकन दान और विनियोग के द्वारा स्थापना । पश्चिमी योरुप और इङ्गलैण्ड की प्रजातन्त्रीय पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्थाओं का दिवालियापन जिसके कारण उन्हें समाजवाद को; अपनाना पड़ा तथा अपने अस्तित्व के लिए श्रमरीकी शर्तों पर आर्थिक सहायता स्वीकार करनी पड़ी । (द) इस महायुद्ध से विश्व के आर्थिक क्षेत्र में अमरीका का पूर्णपत्य स्थापित हो गया है। इस काल में संयुक्त राज्य अमरीका ने अपने उत्पादन को प्रायः दुगना कर लिया और अपने वैदेशिक व्यापार में अत्यधिक वृद्धि जीवन स्तर को ऊँचा उठा लिया। युद्धकालीन नियन्त्रणों का अन्त कर दिया। 'खुले हुए बाजारों की नीतियां अपनाई और उसे १९४५ में एक ऐसे विश्व का सामना करना पड़ा जोकि अमरीकन उद्योगों और खेतों को इस निरन्तर बढ़ते हुए उत्पादन को खरीदने में असमर्थ था और अपना माल बेचने के लिए अमरीका की डालर सहायता इन देशों को देनी पड़ी। द्वितीय महायुद्ध ने पश्चिमी योरोपीय राष्ट्रों की आर्थिक व्यवस्था को प्रायः विनष्ट कर दिया था। राष्ट्र के द्वारा अपनाए हुए अर्थ प्रबन्धों के द्वारा इस स्थिति में कोई विशेष सुधार नहीं हुआ । खाद्य सामग्री और कच्चे माल को खरीदने के लिए न उनके पास उत्पादन शक्ति ही बची थी और न उनको बेचने के लिए बाजार ही ये । युद्धोत्तर युग में इस प्रकार एक ग्राश्चयंपूर्ण स्थित का विकास हुआ। यो चूँकि कच्चे माल गोर खाद्य पदार्थों के आयात की कीमत नहीं चुका सकता था इसलिए योरुप में करोड़ों व्यक्ति वेरोजगार हो गए घोर भूखे मरने लगे। दूसरी घोर ग्रमरीकी आर्थिक व्यवस्था के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह धोरोपियन बाजारों के लिए निर्यात करे क्योंकि इसके बिना उनके उद्योगों के बन्द हो जाने का भय था । और इन उद्योगों के वन्द होने पर बेरोजगारी में वृद्धि और उसके फलस्वरूप अमरीको जीवनस्तर के नीचे गिरने का भय था । इस जटिल समस्या का हल संयुक्त राज्य अमरीका ने १९४५-४६ के कान में योरुप को यथार्थ माल दान में देकर किया। अमरीकन उत्पादकों की संथुन राज्य श्रमरीका की सरकार ऋण या नोट छापकर कीमत चुकाती रही और योग्य में उपभोक्ताओं ने अपनी राष्ट्रीय मुद्राओं में प्राप्त की हुई सामग्री के लिए कीमतें चुकाई । परन्तु योरोपीय राष्ट्र न तो अमरीकन बाजारों को अपना माल प्रायात करके ही डालर प्राप्त कर सकते थे न वे निजी अमरीकन स्रोतों से ऋण ले सकते थे और उनके पास अमरीकन सरकार द्वारा दिए गए माल की डालर मुद्रा में कीमत चुकाने का कोई सावन नहीं था । अन्तिम रूप में इस काल की कीमत को अमरीकी राष्ट्र की हो चुकाना पड़ा। इस अभूतपूर्व और आश्चर्यजनक व्यवस्था से युद्धोत्तर युग के सबसे सङ्कटपूर्ण काल में योरुप को जीवित रखा गया और इसके द्वारा साथ ही साथ संयुक्त राज्य अमरीका में भी पूर्ण उत्पादन तथा पूर्ण रोजगार कायम रखा गया। इसमें प्रम रोका ने १९ अरव डालर प्रतिवर्ष के हिसाब से निर्यात किया और इसके वैदेशिक व्यापार से इसको १ अरव डालर प्रति माह की ग्राय हुई । इस वैदेशिक निर्यात के बनाए रखने के लिए तथा विश्वव्यापी रक्षा-सङ्गठन को स्थापित करने के लिए ग्रमरोकी सरकार को राष्ट्रीय करों में निरन्तर वृद्धि करनी पड़ी और इस कारण से वस्तुओं की कीमतों में भी निरन्तर वृद्धि हुई । इन कीमतों की वृद्धि से दो महत्वपूर्ण परिणाम हुए । प्रथम तो अमरीकी उत्पादन की एक अप्राकृतिक वृद्धि हुई तथा साथ ही साथ दूसरी ओर, इसने उपभोक्ताओं की क्रय-शक्ति में भी यथेष्ट कमी की और इस कारण अमरीका के विशाल उद्योगों के अभूतपूर्व उत्पादन के लिए बाजारों की निरन्तर कमी पड़ने लगी । योरोपियन आरोग्य व्यवस्था ( European Recovery Progamme ) जो कि संयुक्तराज्य अमरीका के द्वारा मार्शल योजना के रूप में प्रकाशित हुई थी और जिसको कि विश्व साम्यवाद की प्रगति को रोकने के लिए तथा क्रॅमलिन की नीतियों के विरुद्ध प्रतियोजना के रूप में प्रकाशित किया गया था । यथार्थ में योरुप की आर्थिक व्यवस्था, शान्ति व पूर्व पश्चिम के प्राकृतिक व्यापार पर किसी प्रकार की भी अप्राकृतिक सहायता के अपेक्षा अधिक आधारित है। औद्योगिक पश्चिमी योरुप तथा कृषि प्रधान पूर्वी योरुप आर्थिक दृष्टि से एक दूसरे की पूर्ति करते हैं तथा दोनों एक दूसरे के लिए आवश्यक हैं। गुट्ट-वन्दी ने योरुप को विभाजित कर दिया; उनके बीच अप्राकृतिक प्रतिवन्ध एवं सम्बन्धों को स्थापित किया जिसके कारण दोनों ओर के योरुप का आर्थिक सन्तुलन नष्ट हो गया और अत्यधिक मानवीय कष्ट उठाना पड़ा । फिर यह अमरीकन सहायता निस्वार्थ नहीं थी। इस सहायता के साथ एक आवश्यक शर्त यह थी कि इन राष्ट्रों को साम्यवाद के विरुद्ध अमरीकी आयोजित विश्व गुट्ट में शामिल होना पड़ेगा । अमरीकी काँग्रेस ने इस सहायता के प्राप्त करने वाले राष्ट्रों पर ऐसी अपमानजनक लगाईं जिनको कि कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र सहज रूप से स्वीकार नहीं कर सकता था और जिनके कारण साम्यवादी राष्ट्रों को अमरीका के विरुद्ध प्रचार करने का एक उत्तम एवं दृढ़ आधार प्राप्त हुआ । पृथकता की इन शर्तों के अनुसार आर्थिक सहायता प्राप्त करने वाले राष्ट्रों को अपनी स्थानीय मुद्रा में एक पृथक खाते में प्राप्त को हुई सहायता के वरावर ही वित्त जमा करना होगा । यह वन अमरीका के राष्ट्रपति के नियन्त्रण में रहेगा और इसका व्यय अमरीकी सरकार के निर्देशन के अनुसार होगा । इन राष्ट्रों को प्राप्त की हुई सहायता को पूर्ण प्रकाशन देना होगा ताकि उनके नागरिक और सम्पूर्ण विश्व को अमरीकी उदारता का ज्ञान हो जाय । सहायता में प्राप्त हुई वस्तुओं का अमरीका की आज़ा के विना निर्यात नहीं कर सकते थे । इस विशेष खाते के धन के वितरण में तथा इस सहायता के वितरण में अमरीकी अधिकारियों द्वारा निरीक्षण उन राष्ट्रों को स्वीकार करना होगा । अन्त में अमरीका के राष्ट्रपति को यह अधिकार दिया गया कि यदि उपरोक्त शर्तो में से कोई भी शर्त भंग हो तो वह ऐसी सहायता को बन्द करदे । इन शर्तों का अध्ययन करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सहायता प्राप्त करने वाले राष्ट्र को अपने आर्थिक क्षेत्र में अमरीकी प्रभुत्व को स्वीकार करना पड़ा था उनको इस कारण से अपमानजनक स्थिति में इस सहायता ने पहुंचा दिया था । इस प्रकार हम देखते हैं कि वर्तमान स्वतन्त्र विश्व पर अमरीका का प्राधिक छाया हुआ है । यह उन बहुत से राष्ट्रों की नीति के एवं आर्थिक व्यवस्थाय के नियन्त्रण करने का प्रयत्न कर रहा है जिन्होंने इससे आर्थिक सहायता प्राप्त की है । यह एक नवीन प्रकार का आर्थिक साम्राज्यवाद है और इसके मुख्य उद्देश्य अमरीकी सुरक्षा योजना को दृढ़ बनाना तथा अमरीका की विशाल प्रोद्योगिक व्यवस्था को चलाने के लिए कच्चा माल, बाजार और श्रमिक शक्ति प्राप्त करना है तथा इनके द्वारा सोवियत संघ से अवश्यम्भावी युद्ध को जीतना है । यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो श्रमरीका के इस युद्धोत्तर आर्थिक साम्राज्यवाद में और इस शताब्दी के पहले दरामास के केन्द्रीय और दक्षिण अमेरिका में डालर कूटनीति और 'याँकी साम्राज्यवाद' में कोई विशेष अन्तर नहीं है। केवल उद्देश्यों में ही परिवर्तन हुआ है यह सम्पूर्ण विश्व पर आर्थिक नियन्त्रण के उद्देश्य से है ।
fb3f60dcfedc7adeb7680daccd2a7b8627c542a215fa359a2c98a4bfe198d54e
pdf
कृपीपक-रस निर्माण-विज्ञान और उस नगरको एक व्यापारिक केन्द्र बना दिया तो वहीं पर बाहरसे व्यापारियों द्वारा सिंगरफके खनिज विक्रयार्थ लाये गये । इतिहास बतलाता है कि ३०० ईस्वी पूर्व बनी उमय्या नामक शासकके समय सिकन्दरिया नगरमें रसायन विद्या प्रेमियों (कीमियागरों) की एक भारी कान्फ्रेन्स हुई, जिसमें दूर दूरसे चल कर अनेक रसायनी एकत्र हुए थे। उस समय रसायन विद्या पर कई दिनों चर्चा होती रही । कई व्यक्तियोंने प्रयोगों द्वारा अपने कर्तब दिखलाये । पता चलता है कि एक रसायनीने सिंगरफ चूर्ण के साथ ताम्र चूर्ण मिला कर उसे सिरकेमें भिगो कर तिर्थक्-पातन विधि ( वकयन्त्र) द्वारा पारद निकाल कर दिखलाया। इसी यन्त्र द्वारा एक दूसरे रसायनीने कसीस, फिटकरी, रेह, मिट्टी, निमक आदि मिला कर गन्धकाम्ल बना कर बतलाया था । पारस पत्थरसे रसायन विद्याका जन्म मिश्र देशके इतिहाससे पता चलता है कि १ सहल ईस्वी सनसे पूर्व मिश्र में यह विश्वास फैल चुका था कि पारस नामका कोई ऐसा पत्थर होता है जिस के साथ पीतल, तांबा, कांसा आदि धातुएं कुभा दी जांय तो वह धातुएं सोना बन जाती हैं। इस लालसासे सैकड़ों आदमी पारस पत्थरकी खोजमें पहाड़ों पर भटकते फिरे । हमारे यहां भी आज तक इस बात पर विश्वास किया जाता है कि पारस पत्थरके स्पर्शसे हीन धातुएं सोना बन जाती हैं। बद्रीनारायण, नेपाल आदि देशोंमें इस बात की किंवदन्ती पाई जाती है कि पहिले लोग बकरीके पैरोंमें लोहेकी नाले बांध देते थे, इसीलिये कि जहां कहीं पारस पत्थर होगा नालसे छूते ही उसे सोना बना देगा । लोगों की यह धारणा थी कि पर्वतों में कहीं न कहीं पारस पत्थर अवश्य होता है । पारस परस कुथात सुहाई । तुलसी रामायमा कहते हैं कि हीन-धातुसे सोना बनजाने की कल्पनाका बीज पारस पत्थरकी खोजके समय मिश्र देश वासियों में प्रादुर्भूत हुआ, किंतु भारतीयोंमें इस तरहके विचारों का कोई प्रमाण नहीं मिलता। पारद जब मिश्रियों को मिला तो इसकी श्वेत स्वच्छ आभा, प्रभा तथा उसके द्रवता धर्मको देख कर मिश्र वासियों में यह विचार दृढ़ हो गए कि यह प्रकृतिमें चांदी बनते बनते रह गयी अपूर्ण चांदी है । यदि इसके पानी (द्रवता ) को किसी तरह सुखा दिया जाय तो इसमें और चांदीमें कोई अन्तर नहीं रहता। बस, पारसमणि के स्पर्शसे सोना बन जानेकी कल्पना और पारेसे चांदी बनाने के प्रयत्नाने रसायन विद्या की नींव डाली । धीरे धीरे इस विद्याकी चर्चा सारे देश में फैल गई और हजारों आदमी गुप्तरूपसे इस ठरकमें लग गये । पारद प्राप्तिके समयसे रसायनी होते चले आए हैं, परन्तु इस पर किसीने कुछ लिखा हो, ईस्वी ५वीं शताब्दीसे पूर्व इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता; ५वीं शताब्दी में आकर जोसीमोस नामक एक बड़ा भारी मिश्री रसायनी हुआ, जिसने रसायन विद्या पर एक अच्छा प्रन्थ लिखा । उसने ही अपने इस ग्रन्थमें एक स्थानपर एक ऐसी प्रतिका उल्लेख किया है जिसको चांदीपर डालनेसे चांदी सोनेमें परिणत हो जाती है । अरब से रसायन विद्या रसायन विद्याका जन्म मिश्र देशमें हुआ और सबसे प्रथम इस देशका लगाव अरब निवासियोंसे हुआ, इसीलिए अरब निवासियों को इनसे इस विद्याका पता लगा । उस देशमेंभी अनेक व्यक्ति इस विद्याके व्यसनी निकल आए। इतिहास से ज्ञात होता है कि ईस्वीकी प्रथम शताब्दीके भारम्भमें वहां खालिद बिन अजीद नामक एक बड़ा भारी रसायनी हुआ, जिसने इस विद्यामें काफी उन्नति की थी । इसके कुछ समय पश्चात् इमाम जाफरसादिक नामका एक और रसायनी हुआ । इसके बाद जाबिरबिन हय्यात तथा उसके समकालीन अबूबकर राजी नामक प्रख्यात रसायनी हुआ । इतिहाससे पता चलता है कि अबूबकर राजीने प्राचीन तिर्यक् पातन यन्त्र (वकयन्त्र) में कई सुधार किए और उसने उस यन्त्रसे तीव्र गन्धकाम्ल प्राप्त किया । हमारे रसशास्त्रों में शंखद्राव नामक जो अम्ल तिर्यपातन द्वारा निकाला जाता है यह वास्तवमें साधारण गन्धकाम्ल ही होता है। हमारे यहांके रसायनियोंको तिर्यक् पातन यन्त्रका ज्ञान तथा इस गन्धकाम्लको चुवानेका पता ईस्वी की दशवीं शताब्दीके लगभग हुआ था, किंतु हमने इस अम्लमें कौड़ी, शङ्ख गलती हुई देखकर इसका नाम शङ्खदाव रख लिया, पर यह आाज तक न जान पाये कि यह अम्ल किस रासायनिक प्रक्रियाके कारण बनता है और वास्तवमें है यह कौन सा अम्ल ? किंतु हमारी इस जानकारीसे बहुत पूर्व ही भरब निवासियोंने इस यन्त्रमें सुधार करके तीब अम्ल प्राप्त कर लिया था । यही नहीं, इस भरंब निवासी रसायनीने रसायनकी ठरकमें पारदको अनेक वस्तुओंके साथ घोट मिला कर अनि देते रहनेसे रसकपूर बनानेकी विधि आविष्कृत की । यह पहिला व्यक्ति था जिसने पारेसे रसकपूर नामक स्थायी यौगिक तय्यार किया। इसने इससे भिन्न पारदको बन्द बर्तनमें गरम करके कुछ लाल वर्णकी पारद भस्म (पारद ऊष्मिद ) भी प्राप्त की थी और इसने अपने प्रयोगोंमें नौसादर और चुना के मेलसे पवनियां ( अमोनियां ) नामक वायव्यको बनते देखा तथा इन सब बातोंका उसने अपने ग्रन्थमें उल्लेख किया । कहते हैं कि इसने लवणाम्ल, पोटास आदि कुछ और भी रासायनिक पदार्थ तय्यार किये थे। इस तरह भरवने भाठवीं शताब्दी तक अनेक प्रख्यात रसायनी उत्पन्न किये। इनमें से ८वीं शताब्दी में भाकर जीबर नामक जो रसायनी हुआ उसने रसायन विद्या पर अनेक ग्रन्थ लिख कर तथा अनेक रासायनिक पदार्थोंको बना कर काफी ख्याति प्राप्त की। इसकी बतलाई हुई रासायनिक विधियां इतनी उच्च थीं जो कई शताब्दी पीछे तक लोग उन्हीं विधियों से भनेक रासायनिक चीजें तम्यार करते रहे। इस रसायनीने सबसे पहिले शोरेका तेजाब बनाने की विधि प्राविष्कृत की और उस विधिका सविस्तर वर्णन अपने ग्रन्थ में किया। ईस्वीकी ८वीं शताब्दी तक पहुंचते पहुंचते उन रसायनियोंसे सोना चांदी बनी या नहीं, इसका तो हमें कोई पता नहीं लगता, किंतु सोना, चांदी बनाने की धुनमें उन रसायनियोंने जो अनेक रासायनिक यौगिक बना डाले, वह सोना, चांदीसे कम महत्वके न थे । यथा - सिंगरफ, रसकपूर, दारचिकना, लालकसीस, हराकसीस, जंगार, तुत्थ, पोटास, गन्धकाम्ल, शोरकाम्ल, लवणाम्ल, मय, जवाखार, सज्जीखार इत्यादि इतनी चीजें बनीं कि उनके उपयोगसे अनेक परिवारों की रोजी चलने लगी । अब हम इस बातकी चर्चा करेंगे कि उक्त रसायन विद्याने आधुनिक रसायन शास्त्रको कैसे जन्म दिया ? यद्यपि पञ्चतत्ववादसे रसायन-वादका कोई घनिष्ट सम्बन्ध नहीं, तथापि जिन प्राचीन रसायनियोंने धातुओंकी तात्त्विक स्थिति पर विचार किया था उन्होंने इस वादको आंशिक रूपमें अपनाया था । मिश्रके सिकन्दरिया नगरमें जिस समय रसायनियोंकी कान्फ्रेन्स हुई थी उस समय इस बातकी भी चर्चा छिड़ी थी कि धातुओंमें कौन कौन से तत्व मिले होते हैं ? ज्ञात होता है कि उस समय वहां के लोग पंचतत्त्ववादसे परिचित न थे । इसीलिये भिन्न भिन्न व्यक्तियोंने भिन्न भिन्न कल्पनायें रखीं । उस समय कुछ रसायनी इस बात पर एक मत थे कि पारा समस्त धातुओंका मूल धातु है। कुछ दार्शनिक विचारके व्यक्तियोंकी राय थी कि समस्त धातुएं पारा, गन्धक और जलके मेलसे बनी हैं उस समय वहां जलसे सृष्टिकी उत्पत्तिको मानते थे। जिनके यह विचार थे, उनकी राय थी कि यदि किसी धातुमें से इन तत्वोंके अनुपात को किसी तरह बदल दिया जाय तो वह धातु दूसरी धातु में बदल सकती है। कुछ उनके साथियोंकी यह भी राय थी कि पारा और गन्धक यह स्वयं धातुओंके रूपको बदल सकते हैं। ज्ञात होता है कि इस बातं.
939240ae4e11b901077110aafd9c806b98915135
web
आज, कई लोग चुनते हैंउनकी छुट्टियां थाईलैंड जैसे विदेशी और दिलचस्प देश है। यह सुंदर, सुरम्य है, ऐसे कई समुद्र तट हैं जहां पर्यटक बहुत प्यार करते हैं। लेकिन छुट्टियों के सफल होने के लिए, यह पर्याप्त नहीं है। मुझे एक और अच्छा होटल चाहिए। कई 5-सितारा विकल्प चुनने का विकल्प चुनते हैं। खैर, इस श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ में से एक मछुआरों का हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 * है। यह परिसर 2010 में बनाया और खोला गया था। बहुत पहले नहीं, 2015 में, एक मरम्मत थी। और होटल का नाम बदला गया - इससे पहले इसे एक अलग नाम के तहत जाना जाता था। मछुआरों का हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 * कई कारणों से एक लोकप्रिय होटल परिसर है, और मुख्य में से एक इसका स्थान है। होटल पटोंग के समुद्र तट के पास स्थित है,जो फुकेत में सबसे लोकप्रिय है। आप इसे 5-7 मिनट में प्राप्त कर सकते हैं। लगभग 3.5 किलोमीटर दूर एक और प्रसिद्ध थाई बीच - करन बीच है। फुकेत हवाई अड्डे, वैसे भी, स्थित हैतुलनात्मक रूप से दूर नहीं। यह 30-40 मिनट में पहुंचा जा सकता है। और होटल के तत्काल आस-पास में कैबरे "फुकेत साइमन", पटोंग का घाट, शॉपिंग सेंटर "केले वॉक" और कई अन्य रोचक जगहें हैं। मछुआरों के हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 *, हर किसी की तरहआत्म-सम्मानित होटल, मेहमानों को केवल उन्हीं चीज़ों के साथ प्रदान करता है जो केवल आवश्यक हो सकते हैं। निः शुल्क वाई-फाई और निजी पार्किंग, सामान का सामान, एक भ्रमण ब्यूरो और एक विनिमय कार्यालय है। पंजीकरण डेस्क 24/7 खुला है, इसलिए व्यक्तिगत चेक-आउट और चेक-इन यहां संभव है। कुछ अपने बच्चों के साथ आराम करना चाहते हैंइस बात में रुचि है कि होटल में उनके लिए शर्तें हैं या नहीं। खैर, यहां बच्चों के लिए एक खेल क्षेत्र के अंदर आयोजित किया गया। अभी भी आप एक नानी को बुला सकते हैं जो माता-पिता आराम कर रहे हैं, जबकि बच्चे के साथ बैठेगा। उपरोक्त के अलावा, मछुआरों के हार्बर मेंशहरी रिज़ॉर्ट 5 * में ड्राई क्लीनिंग, एक सम्मेलन कक्ष, एक व्यापार केंद्र, स्थानांतरण सेवाएं, धूम्रपान क्षेत्र, पत्रिकाएं, भोजन और पेय अपार्टमेंट के साथ-साथ विकलांग मेहमानों के लिए सुविधाएं भी हैं। जैसा कि आप देख सकते हैं, सूची प्रभावशाली है। कहने की जरूरत नहीं है, यहां वीआईपी सेवाएं भी पेश की जाती हैं। वैसे, यहां के स्टाफ, थाई के अलावा, चीनी और अंग्रेजी का भी मालिक है। बेशक, कई पर्यटक थाईलैंड जाते हैंस्थानीय संस्कृति से परिचित होने के लिए, स्थलों का पता लगाने और समुद्र तट छुट्टी का आनंद लेने के लिए। लेकिन, सिद्धांत रूप में, मछुआरों के हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 * में आप होटल के मैदानों को छोड़ दिए बिना मजा कर सकते हैं। दो स्विमिंग पूल हैं - एक छोटा, और दूसरा - नमक पानी के साथ बड़ा। एक छत भी है जहां मेहमान धूप से स्नान कर सकते हैं। और होटल का अपना एसपीए केंद्र है। प्रक्रियात्मक और मालिश कमरे हैं, साथ ही साथ कमरे, जिसमें उन लोगों के लिए सत्र आयोजित किए जाते हैं जो एक साथ एसपीए में आए थे। यहां आप बहुत कोशिश कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, मालिश (थाई या गहरी, मांसपेशी), लपेटें, चेहरे (दोनों कॉस्मेटिक और चिकित्सीय), अरोमाथेरेपी या रिफ्लेक्सोलॉजी। अभी भी आप एक जकूज़ी का आनंद ले सकते हैं। और, वैसे, आधुनिक सिमुलेटर के साथ एक उत्कृष्ट स्पोर्ट्स हॉल है, जो पूर्ण शारीरिक श्रम आयोजन के लिए जरूरी है। और, ज़ाहिर है, मानक मनोरंजन जैसे डार्ट्स और टेबल टेनिस हैं। मैं इसके बारे में कुछ शब्द कहना चाहता हूंयह विषय मछुआरों के हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट पटोंग 5 * में एक उत्कृष्ट रेस्टोरेंट और दो बार हैं - एक साधारण, और दूसरे स्नैक्स और शीतल पेय के साथ, तीसरा पूल के नजदीक है। मेहमान जो यहां यात्रा करते थे वे कहते हैं कि नाश्तेस्वादिष्ट, हालांकि बिना फ्रिल्स। हालांकि, अन्य सभी होटलों में। गर्म व्यंजन (आमलेट और स्कैम्बल अंडे), गर्म ताजा पेस्ट्री, ताजा निचोड़ा हुआ रस, विविधता में फल हैं। बड़ी मात्रा में अच्छी कॉफी - यह वेटर डालती है, यह केवल टेबल पर कॉल करने के लिए है। और सामान्य रूप से, यहां पेय गुणवत्ता और अनियमित होते हैं, जो प्रसन्न होते हैं। यदि आप विविधता चाहते हैं, तो आप जा सकते हैंरात का बाजार होटल बहुत अच्छी तरह से स्थित है, यह पास है। और वहां न केवल मामूली कीमतों पर फल और अन्य भोजन खरीदने के लिए संभव है, बल्कि रात्रिभोज का आदेश देने के लिए भी संभव है (विशेष रूप से समुद्री भोजन यहां लोकप्रिय है), जिसे तुरंत ग्राहकों के लिए तैयार किया जाएगा। मछुआरे के हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट में 5 * कमरों की कई अलग-अलग श्रेणियां हैं, जिनमें से सभी को संक्षिप्त रूप से बताया जाना चाहिए, और आप डीलक्स से शुरू कर सकते हैं, क्योंकि वे सबसे अधिक बजटीय हैं। यह एक विशाल, स्टाइलिश अपार्टमेंट है जिसमें एक क्षेत्र है40 वर्ग मीटर में। मी, एक आकर्षक आधुनिक इंटीरियर की विशेषता है। अंदर, एक संगमरमर के तल के साथ कमरे में, एक बड़ा डबल बेड है। सैटेलाइट चैनलों के साथ 42 इंच का एलसीडी टीवी, सोफा, चाय और कॉफी बनाने की सुविधा के साथ आरामदायक बैठे क्षेत्र और एक सुरक्षित और मिनीबार है। डीलक्स कमरों के साथ एक निजी बालकनी तक पहुंच हैहरी क्षेत्र का एक मनोरम दृश्य, ऐप्पल उपकरणों के लिए एक गोदी, एक शक्तिशाली एयर कंडीशनिंग, एक काम डेस्क, एक ड्रेसिंग रूम, एक फ्रिज, और, ज़ाहिर है, एक बाथरूम। प्रत्येक अतिथि और तौलिए, चप्पलें, साथ ही सौंदर्य प्रसाधनों के व्यक्तिगत सेट के लिए एक शॉवर, शौचालय, हेअर ड्रायर, मुलायम स्नान वस्त्र हैं। आम तौर पर, कमरा आराम से पूर्ण आराम के लिए आदर्श है। ऊपर दी गई तस्वीर, एक नज़र जिस पर, आप इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं। मछुआरे का हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट - 5-सिताराथाई होटल, इसलिए यहां संख्याएं सस्ते नहीं हैं। लेकिन सामान्य रूप से, इस स्तर के एक होटल के लिए उठाने की लागत। दो लोगों के लिए ऊपर वर्णित डेलक्स में 7 दिन नाश्ते के साथ लगभग 105 हजार रूबल खर्च होंगे। तीन मेहमानों के लिए लागत 120 टन है। लेकिन यह याद रखना उचित है कि कीमतें अलग-अलग हो सकती हैं। मौसम से, बुकिंग का समय, टूर ऑपरेटर। आप नाश्ते के बिना एक कमरा ऑर्डर कर सकते हैं और सस्ता हो सकते हैं। आप यात्रा की सावधानीपूर्वक योजना बनाने और जमा करने के द्वारा अच्छी राशि बचा सकते हैं। फिर कीमत में रद्दीकरण सेवा शामिल नहीं होगी, जो आमतौर पर कुल लागत का लगभग 20% है। आम तौर पर, कई बारीकियां होती हैं। वैसे भी, तथाकथित पारिवारिक डीलक्स, अंदर एक और बिस्तर के साथ। तीन लोगों के लिए उनकी कीमत 105 टन है। मछुआरे के हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट में ऐसे कमरे5 * (फुकेत) भी उपलब्ध है। उनका क्षेत्र 40 वर्ग मीटर है। एम, deluxes के मामले में के रूप में। अंदर, आमतौर पर एक बड़ा राजा आकार बिस्तर और दो साधारण बिस्तर होते हैं। लेकिन, अगर लोगों को बहुत सारे बिस्तरों की आवश्यकता नहीं है, तो वे एक और विकल्प मांग सकते हैं। इस श्रेणी में दो सिंगल बेड वाले कमरे हैं। कार्यकारी अपार्टमेंट 6, 7 और फर्श पर स्थित हैं8 मंजिलें सुविधा डेलक्स के समान ही हैं। यहां रहने वाले मेहमानों को हल्के स्नैक्स के साथ दोपहर चाय और शाम कॉकटेल पेश किए जाते हैं। उनके पास कार्यकारी लाउंज तक पहुंच भी है। इसलिए नाम। ऐसे कमरों में एक सप्ताह (नाश्ते और आरक्षण रद्द करने के साथ), दो मेहमानों की कीमत 115 रूबल होगी। यदि तीन लोग यहां बसने की योजना बना रहे हैं, तो कीमत 130 हजार रूबल तक बढ़ जाएगी। स्वाभाविक रूप से, अपार्टमेंट की इस श्रेणी भी मछुआरों में "उपलब्ध हैं रों हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 * पर्यटकों की समीक्षा के साथ ही तस्वीर से ऊपर, हमें यह समझने के लिए अनुमति देते -। यह वास्तव में लक्जरी है। इस कमरे का क्षेत्र 75 वर्ग मीटर है। मीटर। यह 12 वयस्कों के तहत तीन वयस्कों और दो बच्चों को समायोजित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। क्योंकि एक 2-सोने का बिस्तर और दो 2 मंजिला बिस्तर अंदर है। सभी जगह, निश्चित रूप से, बेडरूम में बांटा गया है। लिविंग रूम भी उपलब्ध है। एक बेडरूम - वयस्कों के लिए, और दूसरा - बच्चों के लिए। वहां, बिस्तर को छोड़कर, एक गेम कंसोल एक्सबॉक्स 360 है। अन्य स्थितियों में कॉफी मशीन, टोस्टर, रेफ्रिजरेटर और माइक्रोवेव की उपस्थिति हो सकती है। अन्यथा, सभी सुविधाएं पहले उल्लिखित अपार्टमेंट में समान हैं। इस तरह के अपार्टमेंट में साप्ताहिक आवास की लागत लगभग 145 हजार रूबल होगी। अंत में - इस श्रेणी के बारे में कुछ शब्दकमरे। सूट का क्षेत्र, दो वयस्कों के लिए बनाया गया है, 75 वर्ग मीटर है। मी। नीचे दी गई तस्वीर इस तरह के नंबर के फायदे दर्शाती है। अंतरिक्ष को एक विशाल बिस्तर और एक बैठक के साथ एक अलग स्टाइलिश बेडरूम में बांटा गया है। ये स्वीट शीर्ष मंजिल पर स्थित हैं, इसलिए सुसज्जित बालकनी से दृश्य अद्भुत खुलता है। लेकिन इस मुद्दे का मुख्य आकर्षण उपलब्धता हैनिजी पूल और जकूज़ी। एक डीवीडी प्लेयर, एक कॉफी मशीन, एक रेफ्रिजरेटर और पहले सूचीबद्ध किया गया सब कुछ भी है। इस स्वीट में रहने वाले मेहमानों को कार्यकारी लाउंज तक पहुंच की अनुमति है। और उदार फलों के साथ एक टोकरी - एक प्रशंसा के साथ उनका स्वागत है। मछुआरों का हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 *, फोटोजो ऊपर प्रदान किया गया है, एक बहुत ही लोकप्रिय होटल है। क्योंकि आप जिस नंबर को चाहते हैं उसे बुक करने के लिए, और बाकी से नहीं चुनते हैं, आरक्षण के मुद्दे को पहले से ही बेहतर करना बेहतर है। केवल 3 9 0 अपार्टमेंट हैं, लेकिन होटल शायद ही कभी मुफ्त है। चेक-इन 14 से शुरू होता हैः00, और दोपहर में समाप्त होता है। यहां आप बच्चों के साथ रह सकते हैं। अगर लोग ऐसे बच्चे के साथ आए जो दो साल नहीं है, तो उसे इसके लिए अतिरिक्त भुगतान नहीं करना पड़ेगा। इसके अलावा, प्रशासन एक बच्चे कोट प्रदान करेगा। उम्र के लिए एक बच्चा12 साल। लेकिन अगर वह दो साल से अधिक पुराना है, तो आप बेड कि कमरे में हैं में से एक पर सोने के लिए होगा। अतिरिक्त बेड की आवश्यकता है? यह स्थापित हो जाएगा, लेकिन फिर एक दिन 500 बात (890 के बारे में रूबल) के शीर्ष पर अतिरिक्त भुगतान करना होगा। मेहमानों के 12 साल की आयु से अधिक आते हैं, उसके आवास और एक अतिरिक्त बिस्तर के लिए 1,000 बात (के बारे में 1780 पी।) दिन प्रति के शीर्ष पर जोड़ने के लिए अधिक होगा। और वह एक और बर्थ की जरूरत है,प्रशासन को अग्रिम में चेतावनी देना चाहिए। मेहमानों को होटल द्वारा मछुआरों के हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 * तक इस प्रकार की सेवाओं के प्रावधान की पुष्टि भेजनी होगी। जो लोग मछुआरे के हार्बर शहरी गए थेरिज़ॉर्ट 5 * (थाईलैंड), उनकी समीक्षा में बताता है कि कर्मचारी होटल में क्या काम करते हैं। और हर कोई आश्वासन देता है - यहां कर्मचारी उत्कृष्ट हैं। मेहमानों के लिए सभी विनम्र, मेहमाननवाज, आदरणीय रवैया। निः शुल्क व्यवस्थित स्थानांतरण, आगमन पर फूलों को पूरा किया जाएगा, समुद्र में रात्रिभोज या नाश्ते का आयोजन किया जाएगा, दैनिक फल के रूप में ताजा फल का आनंद लेंगे - यह ध्यान बस उदासीन नहीं रह सकता है। और, ज़ाहिर है, अपार्टमेंट हर यहां साफ कर रहे हैंदिन। सफाई से कोई शिकायत नहीं होती है। तौलिए के साथ लिनन भी दैनिक बदल जाता है। सौंदर्य प्रसाधनों (साबुन, जैल, शैंपू, आदि) के साथ स्टॉक नियमित रूप से भर जाते हैं। हर दिन, फल और ताजा फूलों के अलावा, चाय, कॉफी और क्रीम टोकरी में जोड़े जाते हैं। स्वच्छ पानी के साथ बोतलें भी लाती हैं। सामान्य रूप से, यहां सेवा योग्य है। यह मछुआरों के हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 * समीक्षाओं के त्याग से पुष्टि की जाती है। पर्यटक जो पहले से यहां आए हैंथाईलैंड में खर्च की छुट्टियों के बारे में उनकी धारणाओं को साझा करने के लिए खुश। वे इस बात की पुष्टि - प्रत्येक मछुआरों की रचना "रों हार्बर शहरी रिज़ॉर्ट 5 * वर्णन गैर की वास्तविकता के साथ मेल खाता -। चित्रों में के रूप में, क्षेत्र -।, अच्छा स्वच्छ और आधुनिक और वह नहीं समुद्र के करीब निकटता में है - तो यह, ठीक है 15 इसके विपरीत मिनट एक दिन यह उपयोगी है घूमना।, स्थानीय परिवेश बहुत चलने के लिए सुखद है। अभी भी आधुनिक फर्नीचर पर ध्यान दें, जो अपार्टमेंट सुसज्जित हैं। क्रैकी लिनन और मुलायम तकिए के साथ बिस्तर बहुत आरामदायक हैं। और यहां यह बहुत शांत है। क्योंकि होटल पहाड़ों के नजदीक है। कारें और मोटरसाइकिल रात में यहां यात्रा नहीं करते हैं। कभी-कभी, डिस्को और पार्टियां पास में होती हैं, लेकिन कमरे में शोर इन्सुलेशन सुंदर है, इसलिए यह हस्तक्षेप नहीं करता है। और, क्योंकि यह यहां शांत है, होटल के लिए बहुत अच्छा हैजो लोग एक शांत विश्राम का सपना देखते हैं। यहां, कुछ लोग छोटे बच्चों के साथ यात्रा करते हैं, क्योंकि होटल रिसॉर्ट है, मनोरंजक नहीं है, और मज़े से आरामदायक रहने पर अधिक केंद्रित है। अभी भी पर्यटक सलाह और सिफारिशें देना पसंद करते हैं। गर्मियों में, गर्मी के बीच में, आंतरिक क्षेत्र को देखकर कमरे लेना बेहतर होता है। अपार्टमेंट भी हैं, बालकनी के साथ जो नदी के लिए परिदृश्य खोलते हैं। यह सुंदर दिखता है, लेकिन मेहमानों की समीक्षा के अनुसार गर्म मौसम में यह बहुत अच्छी तरह से गंध नहीं करता है। हालांकि, मुझे संख्या पसंद नहीं है - इसे बदला जा सकता है। कर्मचारी सब कुछ जल्दी और कुशलतापूर्वक करेंगे। यदि, ज़ाहिर है, मुफ्त अपार्टमेंट होंगे।
f42d893b330c0ad979506f57c604025a090fef7da779dead2d7c2c35f968a64b
pdf
[ अध्यायक्योंका श्रवण करणा । तिसर्वै अनंतर तिसतिस वाक्यके विचारकरिकै तिसतिस भ्रमकी निवृत्ति करणी । इत्यादिक साधनोंके करणेविषे तिन देहाभिमानी पुरुषोंकूं महान प्रयासकी प्राप्ति प्रत्यक्षही सिद्ध है। इसी अभिप्राय कारकै श्रीभगवान्नैं (क्लेशोधिकतरस्तेषाम् ) यह वचन कथन कया है । यद्यपि सगुणब्रह्मके जानणेहारे पुरुषोंकूं तथा निर्गुणब्रह्मके जानणेहारे पुरुषोंकूं एकही मोक्षरूप फलकी प्राप्ति होवैहै, यातैं निर्गुणब्रह्मवेत्ता पुरुषों सगुणब्रह्मवेत्ता पुरुषविषे श्रेष्ठता कहणी संभवती नहीं, तथापि एकही फलकूं जे पुरुष दुष्कर उपायकरिकै प्राप्त होवैं हैं तिन पुरुषोंकी अ पेक्षाकारकै तिस फलकू जे पुरुष सुगमउपायकारकै प्राप्त होवैं हैं ते पुरुष श्रेष्ठ कहे जावहैं यह भगवान्का अभिप्राय है । यद्यपि पूर्व नवम अध्याय के द्वितीयश्लोकविषे ( सुसुखं कर्तुमव्ययम् ) इस वचनकारकै श्रीभगवान्न अधिकारी पुरुषोंकू सुखेनही ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति कथन करीथी । और इहां (अव्यक्ता हि गतिर्दुःखम् ) इस वचनकरिकै बहुत दुःखकारकै ता निर्गुणब्रह्मकी प्राप्ति कथन करीहै । यातैं तिस पूर्व उत्तर वचनका परस्पर विरोध प्रतीत होवै है तथापि श्रीभगवान्का यह अभिप्राय है- विवेकादिक सर्व साधनोंकरिकै संपन्न जे निष्काम अधिकारी जन हैं तिन अधिकारी जनोंकूं तौ सुखेनही निर्गुणब्रह्मकी प्राप्ति होवैहै । और जिन पुरुषोंका देहादिकोंविषे अहंमम अभिमान है ऐसे सकामपुरुषकू बहुत दुःख कारकैही सा निर्गुणब्रह्मकी प्राप्ति होवैहै। इस अभिप्रायकारकैही श्रीभगवान् इहां (देहवद्भिः) इस वचनकारकै देहाभिमानी पुरुषही कथन करे हैं। ऐसे देहाभिमानी पुरुषोंकूं सगुणब्रह्मका चिन्तनही सुगम है। यातैं पूर्वउत्तरवचनोंका विरोध होवै नहीं ॥५॥ हे भगवन् ! सगुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंकूं तथा निर्गुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंकूं जो कदाचित् एकही फलकी प्राप्ति होती होवै तौ क्लेशकी अल्पताकारकै सगुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंविषे तौ उत्कृष्टता होवै और क्लेशकी अधिकता कारक निर्गुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंविषे निकृष्टता होवै परंतु तिन दोनोंकूं एक फलकी प्राप्ति होती नहीं किंतु तिन दोनोंकू भिन्नभिन्न फलकी ही प्राप्ति होवैहै। तहां निर्गुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंकूं तौ अविद्याकी तथा ताके कार्यप्रपंचकी निवृत्तिपूर्वक निर्विशेष परमानंद ब्रह्मरूपता की प्रातिरूप फल प्राप्त होवैहै । और सगुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंकूं तौ अधिष्ठानरूप निर्गुण ब्रह्मका साक्षात्कार है नहीं यातें तिन्हें।के अविद्याकी निवृत्ति होवै नहीं किंतु ते सगुणब्रह्मवेत्ता पुरुष हिरण्यगभरूप कार्यबह्मके लोकविषे जाइक तहां ऐश्वयविशेषरूप फलकू प्राप्त होवैं हैं या तिन निर्गुण ब्रह्मवेत्ता पुरुषोंकू मोक्षरूप अधिकफलकी प्राप्तिवासवै जो आयासकी अधिकता है सो आयासकी अधिकता तिन निर्गुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंविषे न्यूनताकी प्राप्ति करै नहीं । अल्पफलवासतै आयासकी अधिकताही न्यूनताकी प्राप्ति करै है । ऐसी अर्जुनकी शंकाके हुए श्रीभगवान् कहैं हैं। समाधान- हे अर्जुन ! सगुणब्रह्म की उपासनाकरिकै निवृत्त होइगए हैं सर्व प्रतिबंध जिन्होंके ऐसे जे सगुणब्रह्मके उपासक हैं तिन उपासक पुरुषोंकूं ता ब्रह्मलोकविषे केवल ऐश्वर्यविशेष की प्राप्तिरूप फलही प्राप्त होवै नहीं किंतु तिन उपासक पुरुषोंकूं ता ब्रह्मलोकविषे गुरुके उपदेश विनाही तथा श्रवण मनन निदध्यासनादिकोंकी आवृत्तिरूप लेशतैं विनाही ईश्वरकी प्रसन्नता करिकै सहकृत तथा आपेही स्फुरण हुए ऐसे वेदांतवाक्यकारकै तत्त्वज्ञानकी भी उत्पत्ति होवैहै । तिस तत्त्वज्ञानकरिकै कार्य सहित अविद्या के निवृत्त हुए तिस ब्रह्मलोकविषेही ऐश्वर्यभोग के अंतविषे तिन उपासक पुरुषोंकू निर्गुणब्रह्मविद्याका फलरूप परमकैवल्यमुक्ति प्राप्त होवैहै। यह वार्त्ता श्रुतिविषेभी कथन करीहै । तहां श्रुति - ( स एतस्माज्जीवघनात्परात्परं पुरीशयं पुरुषमीक्षते । ) अर्थ यह प्राप्त हुआ है हिरण्यगर्भका ऐश्वर्य जिसकूं ऐसा सो उपासक पुरुष तिस ब्रह्मलोकके ऐश्वर्यभोगके अंतविषे इन सर्व जीवोंका समष्टिरूप तथा श्रेष्ठ ऐसे हिरण्यगर्भ भी पर कहिये विलक्षण तथा श्रेष्ठ तथा हृदयरूप गुहाविषे स्थित तथा सर्वत्र परिपूर्ण ऐसा जो प्रत्यक् अभिन्न अद्वितीय परमात्मादेव है तिस परमात्मादेवकूं साक्षात्कार करें हैं अर्थात् ता ब्रह्मलोक विषे गुरु के उपदेशर्तें बिना आपेही स्फुरणहुआ जो वेदांतवाक्यरूप प्रमाण है ता प्रमाणकारकै सो उपासक पुरुष ता परब्रह्मकूं साक्षात्कार करै है। ता साक्षात्कार कारकैही सो उपासक पुरुष वा ब्रह्मलोकविषे कैवल्यमुक्तिकं प्राप्त हो है इति । इसप्रकार पूर्वउक्त क्लेशर्ते विनाही सगुणब्रह्मवेत्ता पुरुषोंकूं ईश्वर के प्रसाद निर्गुण ब्रह्मविद्याका मोक्षरूप फल प्राप्त होवैहै । इस सर्व अर्थकूं श्रीभगवान् दो श्लोककर कथन करें हैंये तु सर्वाणि कमाणि मयि संन्यस्य मत्पराः अनन्येनैव योगेन मां ध्यायंत उपासते ॥ ६ ॥ तेषामहं समुद्धर्त्ता मृत्युसंसारसागरात् ।। भवामि न चिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ ७ ॥ श्रीमद्भगवद्गीता[ अध्याय( पदच्छेदः ) ये' । तुं । सर्वाणि । कर्माणि । मंयि । संन्यस्य । मँत्पराः । अनन्येन । एवँ । योगेनें । माम् । ध्यायंतः । उपासते । तेषाम् । अहम् । समुद्धर्त्ता । मृत्युसंसारसागरात् । भवामि । नेंचिरात् । पार्थ । मैयि । आँवेशितचेतसाम् ॥ ६ ॥ ७ ॥ (पदार्थः) हे पार्थ ! पुंनः जे पुरुष सर्व कैमकूं मैं संगुणब्रह्मविषे अर्पणकारकै मेरेपरायण हुए तथा अनन्य समाधिरूपयोगकरिकै मैं परमेश्वरकू ' ही चिंतनकरते हुए मेरी उपासना करेंहैं तिन मैं परमेश्वरविषे आवेशितचित्तवाले पुरुषोंका में परमेवर मृत्युयुक्त संसारसमुद्र शीघ्रंही उद्धारकरणेहारा होवूंहूं ॥ ६ ॥ ७ ॥ भा० टी०-इहां (येतु ) या वचनविषे स्थित जो तु यह शब्द है सो तुशब्द पूर्वउक्त अर्जुनकी शंकाके निवृत्ति करणेवासतैहै । हे अर्जुन! जे अधिकारी जन मैं सगुण परमेश्वरविषे नित्य नैमित्तिक स्वाभाविक इत्यादिक सर्वकमकू अर्पण करिकै मत्पर हुए हैं अर्थात् मैं भगवान् वासुदेवही हूं पर क्या प्रकृष्टमीतिका विषय जिन्होंकूं तिन्होंका नाम मत्पर है। अथवा मैं परमेश्वरही हूं पर क्या सर्व कर्मोकरिकै प्राप्य जिन्होंकू तिन्होंका नाम मत्पर है। अथवा मैं परमेश्वरही हूं पर क्या ध्यानका विषय जिनोंकूं तिनोंका नाम मत्पर है। अथवा मैं विश्वरूप परमात्माही हूं पर क्या आपणेत अन्य ज्ञातव्य द्रष्टव्य पदार्थ जिनोंकूं तिनोंका नाम मत्पर है । अर्थात् आपणेत अन्यवस्तृषिषे सर्वत्र मैं परमेश्वरकूं देखणेहारे पुरुषोंका नाम मत्तर है। ऐसे मत्पर हुए जे अधिकारी पुरुष अनन्ययोगकारकै मैं परमेश्वरकूं चिंतन करें हैं, तहां मैं भगवान् वासुदेवकूं त्यागकै नहीं विद्यामान है अन्य आलंबन जिसविषे ताका नाम अनन्य है । ऐसा अनन्यरूप जो समाधिरूप योग है जिस अनन्यसमाधिरूप योगकूं शास्त्रविषे एकांतभक्तियोग इसनामकारकै कथन कया है। ऐसे अनन्ययोगकारकै मैं परमेश्वरकूं चिंतन करते हुए अर्थात् सर्वसौंदर्यके सारका निधानरूप तथा आनंदघनरूप विग्रहवाला तथा दोभुजावों कारकै युक्त अथवा च्यारिभुजावों कारकै युक्त तथा सर्वजनोंके मनकूं मोहनकरणेहारी मुरलीकुं अतिमनोहर सप्तस्वरोकारकै बजावणेहारा तथा शंख, चक्र, गदा, पद्म इन च्यारोंकूं हस्तोंविषे धारण करणेहारा ऐसा जो मैं भगवान् वासुदेव हूं तिस मैं भगवान् वासुदेवकूं चिंतन करतेहुए अथवा नरसिंह,
ffc225277d510eef87f0375b332fd2f6edf298f61c855d92eea72f776fea8951
pdf
'चतुर्दश अध्याय दोनों प्रोतों के पिता पुराणों के अनुसार प्रद्योत का पिता पुत्तक था। किन्तु कथासरित्सागर के अनुसार चण्ड पज्जोत का पिता जयसेन था। चण्डपजोत की वंशावली इस प्रकार है-- महेन्द्र वर्मन, जयसेन, महासन (= चण्ड प्रोत) । तिब्बती परम्परा पज्जीत को अनन्त नेमी का पुत्रवतलाता है और इसके अनुसार पज्जोत का जन्म ठीक उसी दिन हुआ जिस दिन भगवान बुद्ध का जन्म हुआ। संभवतः, पज्जीत के पिता का ठीक नाम अनन्त नेमी था। और जयसेन केवल विरुद जिस प्रकार पज्जोत का विरुद महासन था ? । अविकांश कथासरित्सागर में ऐतिहासिक नाम ठीक ही पाये जाते हैं । अतः यदि हम इसे ठीक मानें तो स्वीकार करना पड़ेगा। कि अवन्ती का राजा प्रद्योत अपने पौराणिक संज्ञक राजा से भिन्न है। दीर्घ चाराय बावरूपिता पुतक का घनिष्ठ मित्र था। चारायण ने राजगद्दी पाने में पुलक की सहायता की । किन्तु पालक अपने गुरु दीर्घ चारायण का अपमान करना चाहता था, अतः चारायण ने राजमाता के कहने से मगध त्याग दिया, इसलिए पुलक को नयवर्जित कहा गया है। अतः अर्थशास्त्र निश्चयपूर्वक सिद्ध करता है कि मगध के प्रद्योत वंश में पातक नामक राजा राज करता था । दोनों प्रथोतों के उत्तराधिकारियों का नाम सचमुच एक ही है यानी पालक भास प्रथोत के संभवतः ज्येष्ठ पुत्र की गोपाल चालक ( लघुगोपाल ) कहता है, किन्तु मृच्छकटिक गोपालक का अर्थ गार्यो का चरवाहा समझता है । कथासरित्सागर प्रचीत के दो पुत्रों का नाम पालक और गोपाल बतलाता है । सगधे के पालक का उत्तराधिकारी विशाखप था, जिसका ज्ञान पुराणों के सिवा अन्य अन्थकारों को नहीं है। सीतानाथ प्रधान ' इस विशाखग्रुप को पालक का पुत्र तथा काशीप्रसाद जायसवाल आर्यक का पुत्र बतलाते हैं। किन्तु इसके लिए वे प्रमाण नहीं देते। अवन्ती के पालक के उत्तराधिकारी के विषय में घोर मतभेद है। जैन ग्रन्थकार इस विषय में मौन हैं । पालक महाक्रूर था । जनता ने उसे गद्दी से हटाकर गोपाल के पुत्र आर्य को कारागार से लाकर गद्दी पर बिठाया । कथासरित्सागर अति वर्द्धन को पालक का पुत्र बतलाता है। किन्तु इससे यह स्पष्ट नहीं है कि पालक का राज्य किस प्रकार नष्ट हुआ और अवन्तिवर्द्धन अपने पिता की मृत्यु के बाद, गद्दी पर कैसे बैठा। अतः अवन्ती के पालक के उत्तराधिकारी के विषय २. शकहिल पु०१७ l ६. अर्थशास्त्र अध्याय ६५ टीका भिन्नु प्रभमति टीका । ४, हर्ष चरित ६ ( ७० ३८ ) उच्छवास तथा शंकर ठोका । ५. मृच्छकटिक १०५ । ६. स्वप्न वासवदत्ता अंक ६ । ८. प्राचीन भारत अंशावर्ती पृ० २२५। प्राऊ मौर्य विहार में निम्नलिखित निष्कर्ष निकाला जा सकता है - ( क ) इसका कोई उत्तराधिकारी न था । ( ख ) घोर विप्तव से उसका राज्य नष्ट हुआ और उसके बाद अन्य वंश का राज्य प्रारंभ हो गया और (ग) पालक के बाद अति वर्मा शांति से गद्दी बैठा, किन्तु इसके संबन्ध में हमें कुछ भी ज्ञान नहीं है । किन्तु सगध के पालक का उत्तराधिकारी उसी वंश का है। उसका पुत्र शांति से गद्दी पर बैठता है, जिसका नाम है विशावयप न कि श्रवन्तिवर्द्धन । जैनों के अनुसार अवन्ति पालक ने ६० वर्ष राज्य किया, किन्तु भगध के पालक ने २४ वर्ष ही राज्य किया। भारतवर्ष में वंशों का नाम प्रायः प्रथम राजा के नाम से आरंभ होता है, यथा ऐचनाकु, ऐल, पौरव, बार्हद्रथ, गुप्तवंश इत्यादि । अवन्ती का चण्डप्रयोत इस वंश का प्रथम राजा न था अतः यह प्रद्योत वंश का संस्थापक नहीं हो सकता । सभी पुराणों में प्रद्योत का राज्यकाल २३ वर्ष बताया गया है। अवन्ती के प्रयोत का राज्यकाल बहुत दीर्घ है, क्योंकि वह उसी दिन पैदा हुआ, जिस दिन बुद्ध का जन्म हुआ था। वह विग्बसार का समकालीन और उसका मित्र था । विम्बसार ने वर्ष राज्य किया जब विम्बसार को उसके पुत्र अजातशत्रु ( राज्यकाल ३२ वर्ष ) ने बध किया तब प्रद्योत ने राजगृह पर आक्रमण की तैयारी की । के बाद दर्शक गद्दी पर बैठा जिसके राज्य के पूर्व काल में अवश्य ही चराड प्रद्योत्त अवंती में शासन करता था । अतः चण्ड प्रद्योत्त का काल अतिदीर्घ होना चाहिए । इसके राज्य काल में विम्बसार, अजातशत्रु एवं दर्शक के समस्त राज्यकाल के कुछ भाग सम्मिलित हैं। संभवतः इसने ८० वर्ष से अधिक राज्य किया ( ५१+३२+ ... ) और इसकी आयु १०० वर्ष से भी अधिक थी। ८० वर्ष बुद्ध का जीवन काल + २४ (३२-८) + दर्शक के राज्यकाल का अंश ) । किन्तु मगध के प्रद्योत ने केवल २३ वर्ष ही राज्य किया । अतः यह मानना स्वाभाविक है कि मगध एवं प्रवंती के प्रद्योत एवं पालक में नाम सादृश्य के सिवा कुछ भी समता नही है । सभी पुराण एक मत हैं कि पुलक ने अपने स्वामी की हत्या की और अपने पुत्र को गद्दी पर बिठाया । मत्स्य, वायु और ब्रांड स्वामी का नाम नहीं बतलाते । विष्णु और भागवत के अनुसार स्वामी का नाम रिपुब्जय था जो मगध के बृहद्रथ वंश का अंतिम राजा था। मगध के राजा की हत्या कर के प्रधोत को मगध की गद्दी पर बिठाया जाना स्वाभाविक है, न कि अती की गद्दी पर । विष्णु और भागवत अतीका उल्लेख नहीं करते। अतः यह मानना होगा कि प्रद्योत का अभिषेक मगध में हुआ, न कि अती में । पाठ विश्लेषण पॉजिटर के अनुसार मत्स्य का साधारण पाठ है 'अवन्तिषु', किन्तु मस्त्य की प्यार हस्तलिपियों का ( एफ० जी० जे० के०) पाठ है अवन्धुषु । २. इडियन एटिकावेरी १९१४ पृ० ११६ । ३. पार्मिटर पू० १६/ अतुदेश अंध्याय इसमें (जे) मत्स्यपुराण बहुमूल्य है; क्योंकि इसमें विशिष्ट प्रकार के अनेक पाठान्तर हैं जो स्पष्टतः प्राचीन ' है। अन्य किसी भी पुराण में 'अवन्तिपु' नहीं पाया जाता । ब्रह्माण्ड का पाठ है 'अवर्तिषु' । वायु के भी छःग्रन्थों का पाठ यही है । अतः अवन्तिषु को सामान्य पाठ मानने में भूल समझी जा सकती है । ( इ ) वायु का पाठ है अवर्णिषु । यह ग्रंथ अत्यन्त चहुमुल्य है, क्योंकि इसमें मुद्रित संस्करण से विभिन्न अनेक पाठ है । अतः सरस्य ( जे ) और वायु ( इ ) दोनों का ही प्राचीन पाठ 'अवन्तिपु' नहीं है । अवर्णपु और प्रवर्तिषु का धर्म प्रायः एक ही है ---- बिना बंधुओं के। श्रपितु पुराण में 'अवन्ती में' के लिए यह पाठ पौराणिक प्रथा से विभिन्न प्रतीत होता है। पुराणों में नगर को प्रकट करने के लिए एकवचन का प्रयोग हुआ ह न कि बहुवचन का । अतः यदि "ती" शुद्ध पाठ होता तो प्रयोग 'अत्यां मिलता, न कि अवन्ति । अवन्तिषु के प्रतिकूल अनेक प्रामाणिक आधार है। छातः अवन्तिषु पाठ अशुद्ध है और इसका शुद्धरूप है-'अनन्धुषु अवपुि या अवर्तिपु' जैसा आगे के पाठ विश्लेषण से ज्ञात होगा । साधारणतः वायु और मत्स्य के चार ग्रन्थों ( सी, डी, ई, एन्. ) का पाठ है--- चीनहोनेंषु । (इ) वायु का पाठ है ---रीतिहोत्रेषु, किन्तु ब्रह्माण्ड का पाठ है 'वीरहन्तृषु मत्स्य के केवल मुद्रित संस्करण का पाठ है - वीतिहोत्रेषु । किन् पुराणों के पाठ का एकमत है बीतहोत्रपु -- जिनके यज्ञ समाप्त हो चुके ---या वीरहन्तृषु ( ब्रह्माण्ड का पाठ ) शत्रुओं के नाशक; क्योंकि वायु (जी) कहता है कि ये सभी राजा बड़े शक्तिशाली थे -' एते महाबलाः सर्वे ।' अतः, यह प्रतीत होता है कि ये बार्हद्रथ राजा महान् यज्ञकर्त्ता और वीर थे। बीतहोत्र का वीहिन तथा वर्णिषु का अवन्तिषु पाठ भ्रामक है। प्राचीन पाठ इस प्रकार प्रतीत होता है. बृहद्रथेष्वतीतेपु गीतहोत्रषु । इसका अर्थ होगा -- ( महायज्ञों के करनेवाले ( बृहद्रथ राजा के निवेश हो जाने पर ) अवशिषु मालवा में एक नदी का भी नाम है। संभवतः, भ्रम का यह भी कारण हो सकता है । पुराणों के अनुसार महापद्म ने २० वीतिहोत्रों का नाश किया। वीतिहोत्रों का नाश करके राज्य नहीं हड़प लिया । अतः हम कह प्रद्योत वंश का अवन्ती से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । प्रद्योतों ने श्रवन्ती के सकते हैं कि मगध के वैयक्तिक राजाओं की वर्ष संख्या का योग और वंश के कुल राजाओं की भुक्त संख्या ठीक-ठीक मिलती है। इनका योग १३८ वर्ष है। इन पांच राजाओं का मध्यमान ३० वर्ष के लगभग अर्थात २७-६ वर्ष प्रतिराज है । बृहद्रथ वंश का अंतिम राजा रिपुंजय ५० वर्ष राज्य करने के बाद बहुत वृद्ध हो गया था। उसका कोई उत्तराधिकारी न था। उसके मंत्री पुलक ने छल से अपने स्वामी की हत्या क० सं० २२६५ में की। उसने स्वयं गद्दी पर बैठने की अपेक्षा राजा की एक मात्र कन्या से अपने १. पार्जिटर पृ० ३२। 2 उजना करो -गिरिजे, पुरिकार्या, मेकलाया, पद्मावयां, मधुरायां सर्वत्र सभी भतःचन प्रयुक्त है। पाजिटर ५० १७-१४, ४६.५१-५२-५३ देखें । १४-१४,४६-११-६२-५३ ३. मार्कण्डेय पुराण २७-२० । माङसौर्य बिहार पुत्र प्रद्योत का विवाह करवा दिया और अपने पुत्र तथा राजा के जामाता को मगध की गद्दी पर विठा दिया । ढाका विश्वविद्यालय पुस्तक भंडार के ब्रह्माण्ड की हस्तलिपि के अनुसार मुनिक अपने पुत्र को राजा बनाकर स्वयं राज्य करने लगा । सभी पुराणों के अनुसार पुतक ने अपने काल के क्षत्रियों का मान-मर्दन करके खुल्लमखुल्ला अपने पुत्र प्रद्योत को मगध का राजा बनाया। वह नगवर्जित काम साधनेवाला था । वह वैदेशिक नीति में चतुर था और पड़ोस के राजाओं को भी उसने अपने वश में किया । वह महान् धार्मिक और पुरुष श्रेष्ठ था ( नरोत्तम ) । इसने २३ वर्ष राज्य किया । प्रद्योत के उत्तराधिकारी पुत्र पालक ने २४ वर्ष राज्य किया। मत्स्य के अनुसार गद्दी पर बैठने के समय वह बहुत छोटा था। पालक के पुत्र (तत्पुत्र - भागवत ) विशाखयप ने ५० वर्ष राज्य किया। पुराणों से यह स्पष्ट नहीं होता कि सूर्यक विशाखयूप का पुत्र था । सूर्यक के बाद उसका पुत्र नन्दिवद्धन गद्दी पर बैठा और उसने २० वर्ष तक राज्य किया । वायु का एक संस्करण इसे 'वर्त्तिवद्ध'न' कहता है । जायसवाल के मत में शिशुनागवंश का नन्दिवर्द्धन ही वर्तिवद्धन है । यह विचार मान्य नहीं हो सकता; क्योंकि पुराणों के अनुसार नन्दिवर्द्धन प्रद्योत वंश का है । ब्राह्मणों के प्रद्योत वंश का सूर्य क० सं० २३६६ में अस्त हो गया और तब शिशुनागों का राज्योदय हुआ । १. नारायण शास्त्री का 'शंकर काल' का परिशिष्ठ २ 'कलियुगराजधा आधार पर । १. इविडयन हिस्टोरिकल कार्टरली, १६३० पृ० १७८ हस्तलिखित ग्रन्थ संख्या ११२ १० १७९-४ तुलना करें-- पुनमभिविष्याथ स्वयं राज्यं करिष्यति ।
e631cfa406be47d00934d78b90b4f5669af79ab6679358c5a28912a9775c2930
pdf
अर्थात् आत्मा से आत्मा का उद्धार करना चाहिए । कांटे से कांटा निकालना चाहिए । शुद्ध आत्मा की शक्ति से अशुद्ध आत्मा का उद्धार करना चाहिए । अथवा यों भी कह सकते हैं कि ज्ञानात्मा से कपायात्मा का उद्धार करना चाहिए को बंधन में डालने वाला या मुक्ति दिलाने वाला बाहरी कारण निमित कारण ही हो सकता है। उपादान कारण तो स्वयं है । जो बंधन में फंस सकता है वह छुटकारा भी पा सकता है । राजन् ! इस प्रकार विचारों की उत्ताल तरंगों में उलझा हुआ उद्धार का मार्ग सोच रहा था। किन्तु मेरे इस शरीर का मैं अकेला ही मालिक न था । मेरे अनेक सम्बंधी मित्र और कुटुम्बी जन भी अपने को मेरे, इस शरीर का स्वामी मान रहे थे। मेरे इस शरीर को कोई पुत्र कह कर पुकारता था कोई पति, भाई, साला बहनोई आदि भिन्न २ सम्बन्ध दर्शक शब्दों से पुकार कर अपनापन प्रकट करते थे । मैंने सोचा मेरी तरह ये लोग भी अपनी शक्ति आजमा लेवें । जब ये लोग मेरी वेदना नष्ट करने में अपने को असमर्थ जाहिर कर देंगे तभी मैं अपनी अनाथता मिटाने के लिए कदम बढ़ाऊंगा । मेरे पिता, माता, स्त्री आदि ने उनसे जो बन पड़ते थे सव उपाय किए । शास्त्र और शस्त्र में कुशल वैद्यों से चिकित्सा कराई गई। चारों प्रकारों से मेरा इलाज किया गया । किन्तु सर्व प्रयत्न बेकार रहे । मेरी वेदना में कभी न हुई । यही मेरी अनाथता थी, असमर्थता थी, विवशता थी । रोग मात्मा का परम मित्र है श्रेणिक कहता है-मुनिवर ! इस वक्त आप स्वस्थ दिखाई देते हैं इससे मालूम होता है कि आरोग सांध्य तो न था । क्योंकि असाध्य रोग तो अपने साथ शरीर को ले ता है। जब आपका रोग स्वयं मिट गया तो वे वैद्य लोग उसे मिटाने में असमर्थ क्यों रहे ? मुनि ने उत्तर दिया कि वे वैद्य स्वयं प्रनाथ थे तो मुझे रोगमुक्त कैसे बना सकते थे । वे स्वयं आध्यात्मिक रोग से ग्रस्त थे वैसी हालत में मुझे आत्मिक स्वास्थ्य कैसे प्रदान कर सकते थे। क्या डाक्टरोंवैद्यों को रोग नहीं होता ? जो अपना रोग नहीं मिटा सकता वह दूसरों का क्या मिटायेगा । आप श्रोताओं के दिल में यह शंका अवश्य उपस्थित हो रही होगी कि यदि डाक्टर वैद्य रोग मिटाने में सर्वथा असमर्थ होते हैं तो इतनी दुनिया उनके पास क्यों दौड़ी जाती है ? इसका समाधान इतना ही है कि वैद्य डाक्टर शारीरिक रोग मिटाने में निमित्त मात्र बन जाते हैं । वे रोग का वास्तविक कारण नहीं मिटा सकते । हमें ऐसा लगने लगता है कि वैध डाक्टर की दवा से हम स्वस्थ हो गये हैं। किन्तु इसमें हमारी समझ में भूल है । त्मिक स्वस्थता के बिना शारीरिक स्वस्थता असंभव है । मानसिक विकार भी रोग के कारण हैं। दुर्भावनाओं को मिटाये विना असली स्वास्थ्य का लाभ नहीं हो सकता । वैर्थो में यह ताकत नहीं है कि वे अपनी दवाओं से हमारे अशुद्ध विचारों को मिटा दें। मुनि कहते हैं- राजन् ! यह अच्छा ही हुआ कि वैद्यों की दवा से मेरी वेदना न मिटी । यदि मिट जाती तो मैं पुनः गफलत में फंस जाता और वेदना का वास्तविक कारण न जानकर फिर कभी रोग-पीड़ित बन जात। । और स्वयं वैद्यों को मैं अपना नाथ मान बैठता । यह उस महाशक्ति की कृपा है कि उसने ऐसा न होने दिया । शास्त्र में रोग नाश दो प्रकार से बताया गया है। एक एकान्तिक रोगनांश ओर दूसरा आत्यन्तिक रोग नाश । एकान्तिक रोंगताश का अर्थ यह है कि जो रोग मिट गया वह पुनः न हो । और आत्यन्तिक रोगनाश का अर्थ यह है कि सभी प्रकार का रोगनाश होने के बाद पुनः कभी भी किसी प्रकार का रोग ही न हो । क्या वैध डाक्टरों में यह ताकत है कि वे इस प्रकार के रोगनाश कर सकें ? वस्तुतः डाक्टर दवा के जरिये रोग को दबा देते हैं । सातावेदनीय कर्म का उदय होने से रोग दब जाता है और सुख मालूम देने लगता है । किन्तु रोग का वीज जीवित रहता है जो निमित्त पाकर कालान्तर में पुनः पनप उठता है । मान अमीर होने के लोग अपनी नासमझी के कारण डाक्टर वैद्यों के गुलाम बने रहते हैं और उनको अपना तनहार मानने लग जाते हैं । यह कैसी परतन्त्रता है, यह बात एक उदाहरण के जरिये आपको समझाना चाहता हूं । लीजिये कि एक अमीर का लड़का है । वह कारण अपने हाथों से कोई काम नहीं करता अपने हाथों से नहीं बांधता उसे अपनी अमीरी का बड़ा अभिमान है। किन्तु एक दिन बाजार में जाते-जाते उसकी धोती खुल गई । नौकर साथ में हाजिर न था । उसको धोती बांधना आता न था क्योंकि कभी अपने हाथों से वांधी न थी। वह नंगा दिखाई देने लगा। इतने में उसका कोई दोस्त आ गया । उसने उसकी धोती बांध दी । अमीर के लड़के ने अपने दोस्त की दीनता स्वीकार कर ली और कहा कि आप तो मेरी लज्जा ढांकने वाले हैं। एक ऐसा व्यक्ति है जो अपनी धोती है। यदि कभी बाजार में उसकी धोती खुल भी जाय तो वह स्वयं अपनी लज्जा ढांकने में समर्थ हैं । कहिये, इन दोनों में से आप किसको अच्छा मानेंगे जो अपने हाथों से कुछ भी कार्य नहीं करता और आलस्य में जीवन व्यतीत करता है उसे अच्छा मानेंगे या हाथ-पैरों से काम लेने वाले को ? - यही बात रोग और वैद्य डाक्टर के सम्बन्ध में भी - समझो वीमार होना आत्मा की एक प्रकार की नग्नता है । जो कमजोर होता है वही बीमार होता है बलवान् आदमी वीमार नहीं होता । अथवा जो खानपान रहन-सहन आदि में गोटाला करते हैं वे बीमार होते हैं। जो खानपान रहन-सहन में पूरी सावधानी रखते हैं वे तन्दुरुस्त रहते हैं। पहले असावधान रहना और फिर रोग होने पर डाक्टर वैद्यों की पराधीनता स्वीकार करना दूसरे से अपनी धोती बंधवाने के समान है । जो स्वतंत्र हैं, पूर्ण वलवान हैं, सावधान हैं, उनको रोग होते ही नहीं हैं । जैसे तीर्थंकरों को रोग नहीं होते। यदि पूर्व कर्मोदय के कारण कोई रोग हो गया तो वे स्वयं ही उसे मिटा देने में समर्थ होते हैं । डाक्टर वैद्यों के सहारे की उनको जरूरत नहीं पड़ती। कहते हैं, राजन् ! वैद्यों की दवा से मेरा रोग न मिटा यह उत्तम ही हुआ । नहीं तो मैं भी साधारण व्यक्तियों की तरह उनका गुलाम बन जातां । राजन् ! लोग कहते हैं कि चारों प्रकार के उपाय वरावर किये जायं तभी रोग मिट सकते हैं। मेरे लिए वे चारों उपाय काम में लिए गये थे । चारों उपाय ये हैं । १ वैद्य योग्य हो २ दवा पूरी हो ३ रोगी दवा लेने के लिए उत्सुक हो ४ परिचर्या पूरी हो । राजन् ! मेरे लिए योग्य से योग्य वैद्य बुलाये गये थे । दवाएं भी उनके पास पूरी थी। मैं दवा लेने के लिए उत्सुक था और दवा ली थी तथा मेरी परिचर्या में किसी प्रकार की कोई कसर न थी । चारों उपाय परिपूर्ण रूप से किये गये थे फिर भी मेरा रोग नहीं मिटा यही मेरी अनाथता थी । और वैद्यों की भी अता थी । लोग कहते हैं आजकल विझान ने बड़ी तरक्की की है । रोग निदान में भी बड़ी तरक्की हुई है । प्रकार इंजेक्शनों का आविष्कार हुआ है। अनेक प्रकार की नवीन दवाएं उत्पन्न की गई हैं। किन्तु ठंडे दिमाग से सोचने पर मालूम होगा कि जितने डाक्टर और दवाएं बढ़ी हैं उतने ही रोगी और रोग भी बढे हैं। जितने वकील बैरिस्टर बढ़े मुकदमे भी उतने ही बढ़े हैं। पुराने जमाने में आज जितने वैद्य डाक्टर या वकील बैरिस्टर न थे अतः रोग और मुकदमे भी उतने न थे । आजकल नई नई वीमारियां उत्पन्न हो रही हैं जिनका कभी नाम भी न सुना था । मुकदमे बाजी भी खूब बढ़ी हुई है । कहिये, डाक्टरों की वृद्धि से रोगियों और रोगों में कितनी कमी हुई है ? कमी नहीं हुई, उल्टी वृद्धि हुई है। ऐसी हालत में कैसे कहा जा सकता है कि वैद्य डाक्टर की दवा से रोग नष्ट हो जाता है । लोग बिमारी की सच्ची दवा भूल गये हैं और भय के कारण न लेने लायक अनेक दवाएं अपने पेट में डालकर और रोगों की वृद्धि कर रहे हैं। रोगों की सच्ची और व्यावहारिक दवा यह है कि खान-पान पर अंकुश रखना । कत्र खाना, कितना खाना और कैसा खाना, खाना इसका विचार रखना चाहिये । मैंने एक पुस्तक में पढ़ा है कि खाना खाने वाले व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं। एक अमीर और दूसरे गरीब । गरीबों को भोजन तय करना चाहिए जब भोजन प्राप्त हो जाय । और अमीरों को भोजन तब करना चाहिए जब भूख लग जाये । मैं आजकल देखता हूं कि अमीरों के घरों में विना भूख खाना खाने का कैसा प्रचार है । भूख लगे या न लगे समय होने पर वश्य भोजन कर लेते हैं। अनेक प्रकार के प्रचार घटनी और चूण का प्राविष्कार करके उनके जरिये भूख जगाने का प्रयत किया जाता है। और बिना भूख के भी
8da98f3397f5b21361ecfc1d2f766490139e1d22333ab55a09723df601fa9c39
pdf
में कभी न धुली थीं ! वे अनेक वार इस धोने में चालाकी करतीं और हमें भी झूठ बोलना सिखातीं । उसका कारण भी वैसा ही था । नाना का यह कड़ा नियम था कि खेतों से जब अनाज घर में आवे, तव अंदर रखने के पहले उसे धो डालना चाहिए । वैसे वीस-वीस मन अनाज माँ अथवा नानी धोतीं भी कैसे ? तब वे यह करतीं कि थोड़ा-सा अनाज धोकर उसकी परत समूचे अनाज के ढेर पर फैला देतीं । जव नाना घर आते, तव वह सव वच्चों की गवाहियाँ लेते । वच्चे तो पहले ही से सिखाए-पढ़ाए हुए रहते । इसलिए, वे प्रायः एक-सी ही बात कह देते । परंतु, यदि कोई घवराकर भूल कर देता -- यानी सच वात कह देता, तो सारे घर में एक हंगामा शुरू हो जाता ! स्त्रियों को उन सारी अशुद्ध और अपवित्र चीज़ों को नाना के सामने धोना पड़ता, वच्चे झूठ बोलने के कारण खूब पीटे जाते और बच्चों को पीटने के बाद उन्हें छू लेने से अपवित्र हो जाने के कारण नाना पुनः स्नान करते ! एक वार घर में अमरूद से भरी हुई तीन टोकरियाँ रखी थीं । सच पूछां जाय, तो वे हमारे गाँव से, यानी जलालपुर से, आई थीं और विक्री के लिए नासिक के बाज़ार में भेजी जाने वाली थीं। परंतु वे फल अशुद्ध थे, क्योंकि उन्हें धोया नहीं गया था । नाना सुवह वाहर जाते और शाम को लौटने पर अंधेरा होने तक हाथ-पैर धोते और नहाते रहते । शाम तक हमें आज़ादी रहती । उस दिन शाम तक हमारा सारा वक्त इसी सोच-विचार में गुज़रा कि उन टोकरियों के अमरूद उठाकर खावें या नहीं । अंत में यह तय हुआ कि हममें से एक-एक द्वार के पास वारी - वारी से खड़ा रहे और बाकी लोग अमरूद खावें । होते-होते मैं ही अकेली वच रही। परंतु, मेरे वक्त द्वार के पास खड़ा होने के लिए कोई तैयार न हुआ । तव स्वयं मैं ही द्वार तक गई और यह देखकर कि वाहर कोई नही है, अमरूद उठाकर खाने लगी । इसी समय नाना मेरे सामने एकाएक आ धमके। उन्हें देखते ही मैं जान लेकर भागी और कोने में रखे हुए मूसल के पीछे जाकर छिप गई । नाना पिछवाड़े गए। वहाँ सीताफल के पेड़ लगे थे । एक पेड़ से उन्होंने एक टहनी तोड़ी। उन्होंने मुझे मूसल के पीछे से घसीटकर बाहर निकाला और उस टहनी से मेरी खूब मरम्मत की । मुझे पिटते देखकर वेचारी नानी को अत्यन्त दुःख हुआ । घर के दूसरे लोगों के छक्के छूट गए। उन्हें डर लगा कि यह लड़की यदि अब सबके नाम बता देगी, तो सब पर मार तो पड़ेगी ही, ऊपर से पूरा घर धोना पड़ेगा, सो अलग ! एक दिन मैं गेहूँ के ढेर के पास सो रही थी । समीप ही मेरी एक गुड़िया पड़ी थी । उस गुड़िया को मैंने साड़ी पहनाई थी । खेलते-खेलते मुझे नींद आ गई । गुड़िया की साड़ी मुझे और गेहूँ के ढेर को छू रही थी । नाना आए। उन्होंने देखा । यह देखते ही कि गुड़िया की साड़ी के स्पर्श से गेहूँ अशुद्ध हो गए हैं, उनके सारे बदन में जैसे आग - सी लग गई । उन्होंने मुझे झटका देकर खींचा और बेतहाशा पीटना शुरू किया । मेरी मँझली वहन और भाई को भी किसी की छूत लग गई थी । पीट चुकने पर नाना ने मुझे उन दोनों के साथ स्नान करने के लिए गंगा' भेज दिया । गंगा जाते समय हम तीनों ने यह तय किया कि आज हममें से किसी एक को डूबकर मर जाना चाहिए । जब इस तरह हममें से कोई एक चल वसेगा, तब कहीं नाना की आँखें खुलेंगी और वह फिर किसी को तंग न किया करेंगे। हम तीनों गंगा में डूबने लगे । हम सबका इरादा एक ही था कि नाना के दिल में अच्छी दहशत बैठ जाय । मुझ पर तो मार ही पड़ी थी । इसलिए, नाना को सबक सिखाने की इस योजना को पूरी करने का मेरा निश्चय पक्का ही हो चुका था । मैंने पानी में डुबकी लगाई और डुवकी लगाते ही मेरे नाक और मुँह में पानी भरने लगा। मैं थक गई । उस समय नदी के किनारे हमारे एक पड़ोसी महाशय बैठे हुए संध्या कर रहे थे। उनका ध्यान एकदम मेरी ओर आकृष्ट हुआ, वह तुरंत नदी में कूद पड़े और उन्होंने मुझे वाहर निकाल लिया । नाना तो सबक नहीं १. नासिक के क्षेत्र में गोदावरी को गंगा कहते हैं । सीखे, पर मैंने ज़रूर पूरी तरह से सवक़ सीख लिया ! मेरी बुआ के पति का नाम था गोविंदराव खांवेटे । उन्हें सव लोग मामा कहते । हमारे मामा मनुष्यों की संगति के लिए हमेशा बड़े भूखे रहते थे। गाँव था विलकुल छोटा-सा और उनके घर के दरवाज़े हमेशा सबके लिए खुले रहते थे। इस कारण, उनके घर लोगों का आना-जाना सदा जारी रहता । नाना के सोले के पीछे पागल हो जाने के कारण उनके घर का सब कारोवार मामा ही को देखना पड़ता । उनकी खेती-वारी, लेन-देन, व्रतबंध और विवाह इत्यादि सवका भार उन्होंने अपने सिर पर ले लिया था । हम भाई-बहनों को तो अपना निजी घर भी उतना पसंद नहीं था, जितना मामा का । हम कुल मिलाकर पाँच भाई-बहन थे । वैसे हुए बहुत, पर, वचे पाँच ही । वड़ी वहन भिकूताई, उसके बाद केशव, भागीरथी, विष्णु और आखिरी मैं । भिकूताई मुझसे पन्द्रह - सोलह वर्ष वड़ी थी । वह नासिक में पेंडसे के घर व्याही गई थी । नाना साहब पेंडसे को हम लोगों का वड़ा खयाल रहता था । इसी समय नासिक में तिलक' कवि के रूप में प्रसिद्ध होने लगे थे । पेंडसे का तिलक की ओर भी ध्यान था । उन्होंने गोविंदराव मामा को मेरे लिए इस वर के बारे में लिखा । गोविंदराव मामा ने तिलक के पिता वामनराव तिलक से पत्र व्यवहार शुरू किया और लड़की देखने के लिए उन्हें बुलाया । वामनराव का पत्र आया - "मैं दहेज लेकर अपने लड़के को वेचूंगा नहीं । जो आप कर सकें, वह आप करें; और जो मैं कर सकूँगा, वह ' मैं करूँगा । हाँ, जन्मपत्री ज़रूर ठीक से मिल जानी चाहिए। इसके विना मैं अनुमति नहीं दूंगा । मेरे घर में कोई स्त्री नहीं है, इसलिए, लड़की के बड़ी होने तक तुम्हींको उसे सँभालना पड़ेगा । मुझे लड़की देखने की ज़रूरत नहीं । वहाँ के सव लोगों को यदि वह पसंद है, तो मुझे भी पसन्द है । " १. स्व० रेवरेंड नारायण वामन तिलक - मराठी के कवि मायके में. यह पत्र पढ़कर सबको आनंद हुआ । वड़ी होने तक मुझे सँभालने के लिए मामा बड़ी खुशी से तैयार थे । अब मुझे नासिक ले जाकर दिखा आनाभर रह गया था । मुझे जिस दिन दिखाया गया था, उससे कुछ दिन पहले की एक बात बता दूं । मामा उन दिनों नासिक में थे। मैं भी उन्हींके घर थी । मामा के पड़ोस में एक नए किरायेदार रहने आए थे। उनके यहाँ सखू नाम की एक लड़की ससुराल से मायके में रहने आई थी । उसकी उम्र यही कोई वारह- तेरह वर्ष की थी और घर में वही एकमात्र स्त्री थी । पुरुषों में उसके दो बड़े भाई थे । एक अँग्रेज़ी की पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था और दूसरा छठी में । 'सखू जितना खेल पाती, उतना खेलती। मैं भी हमेशा उसके घर खेलने के लिए जाती । हमारे खेल के कारण सखू को चूल्हा सँभालने में देर हो जाती । उसके भाई इस पर नाराज़ होते, उससे तंग आ जाते और भूखे ही जाकर सो जाते । तव बड़े भाई ने स्वयं ही उसके साथ खेलना शुरू किया । सख़ू पड़ोस की लड़कियों के साथ खेलती रहती है और फिर सभीको भूखा • रहना पड़ता है, इससे तो अच्छा यह हो कि उसके साथ स्वयं मैं ही खेलने लगूं और अगर पड़ोस की छोकरियाँ आयँ, तो उन्हें निकाल बाहर करूँ । ऐसा उसने निश्चय किया । लड़कियों के 'सोंगट्या, " 'सागर-गोटे" आदि सभी खेल वह खेलता । उस घर में दो जीने थे । एक दिन मैं नित्य की भाँति सखू के घर खेलने गई । मुझे देखते ही सखू के भाई ने एक लकड़ी से मुझे जीना चढ़ने से रोक दिया । वह बोला. "खवरदार, हमारे घर आई, तो तेरी टाँग ही तोड़ दूंगा !" उधर ऊपर से सखू मुझे पुकार रही थी। तब मैं दूसरे जीने से चढ़कर १. गोटियाँ, चौसर या शतरंज का खेल । २. करंजवा के बीजों को हाथ में उछालने का खेल, जिसे लड़कियाँ खेलती हैं ।
d7661f2e377669ed8f595eba56579abc10c3c815
web
"फ्लीट" अनुभाग में यादृच्छिक आगंतुकों की टिप्पणियां अक्सर मौलिकता के साथ उत्साहजनक नहीं होती हैं। पाठक कुछ ज्ञात मामलों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, पूरी तस्वीर का विश्लेषण करना भूल जाते हैं। और फिर, इसके आधार पर, पूरी तरह से गलत निष्कर्ष निकाले जाते हैं। यह अतीत के शिपबिल्डरों के लिए भी शर्म की बात है, जिनकी एक ही पल में महान रचनाएँ अक्षम और बेकार कचरा में लिखी जाती हैं। एक उदाहरण के रूप में, तोपखाने की आग से बड़े और अच्छी तरह से संरक्षित जहाजों की मौत आमतौर पर "हूड" और "अजेय" द्वारा दी जाती है। केवल कुछ सफल किलोयस, और समुद्र के दिग्गज दुश्मन का बदला लेने के लिए समय न होते हुए भी नीचे तक चले गए। जुटलैंड की लड़ाई के पूर्ण आंकड़ों की बात करने पर अजेय उदाहरण अपनी स्पष्टता खो देता है। अंग्रेजों ने तीन युद्धक विमान (अजेय, अविभाज्य, क्वीन मैरी) खो दिए, कैसर बेड़े ने एक (लुत्फ) को खो दिया। जर्मनों के साथ तारे क्यों गए? घाटे की संख्या में तीन गुना अंतर क्या है? स्पष्टीकरण कुंडली में नहीं, बल्कि जहाजों के निर्माण में मांगा जाना चाहिए। बाईं ओर जर्मन डेरफ्लिंगर टाइप LKR है। दाईं ओर ब्रिटिश अजेय है। और बेवकूफी भरे सवाल मत करो। सभी तीन ब्रिटिश नुकसान विस्फोटों के कारण हुए, चालक दल और जहाजों की कुल हानि के साथ। LKR "लुत्सोव" ने बड़े-कैलिबर प्रोजेक्टाइल (24, 305 और 343 मिमी) के साथ 381 शक्तिशाली हिट प्राप्त किए और धीरे-धीरे रात में डूब गए। विध्वंसक अपने चालक दल के 90% को निकालने में कामयाब रहे। इसलिए यह पता चला कि अंग्रेजों ने गति और मारक क्षमता (सबसे अच्छा बचाव हमला है) पर दांव लगाया, समुद्र के किनारे समाप्त हो गया। जर्मन युद्धकर्मी अधिक हिट का सामना करने में सक्षम थे और परिणामस्वरूप दुश्मन को नष्ट कर दिया। यह उल्लेखनीय है कि भव्य मांस की चक्की में जटलैंड एक भी सुपर-खूंखार नहीं मारा गया था। धीमी गति से, लेकिन बहुत बेहतर संरक्षित युद्धपोत, हालांकि मुश्किल से उन्होंने कोशिश की, एक दूसरे को नष्ट नहीं कर सके। ब्रिटिश "वोरसैप" को 13 280-mm जर्मन प्रोजेक्टाइल हिट्स (305 mm के बराबर) प्राप्त हुए, और कुल विस्फोटों की संख्या और छोटे-कैलिबर प्रोजेक्टाइलों को उन्होंने 150 से तोड़ दिया। नर्क की गोली लगने के बावजूद, "वॉर्सेप्ट" रैंक में रहा, और इसके चालक दल के नुकसान ने एक्सएनयूएमएक्स की हत्या कर दी, एक्सएनयूएमएक्स घायल (एक्सएनयूएमएक्स में सवार)। वह द्वितीय विश्व युद्ध में जर्मनों को गर्मी निर्धारित करेगा। लड़ाई क्रूजर "हूड" के रूप में, उसकी मौत के बारे में शर्मनाक कुछ भी नहीं है। रैखिक क्रूजर शुरुआती 20's। देर से पीढ़ी के एक उच्च गति युद्धपोत के साथ टकरा गया। 76 मिमी डेक 380-mm yubersnaryad का झटका सहन नहीं कर सका। विमान बमबारी में युद्धपोत बहुत बार और अक्सर। और केवल एक बार वह एक भारी जहाज को "छड़ी" करने में कामयाब रही और उसे नीचे रख दिया। यह जहाज इटैलियन रोमा था। यह बहुत कम ज्ञात है कि दो बम "रोमा" में गिरे। दूसरा झटका इंजन रूम के क्षेत्र में आया, जहां गोला बारूद के सेलर आग के प्रकोप से अलग हो गए थे। "मकारोनी" ने आग क्यों नहीं बुझाई? कोई सहमति नहीं है। संस्करणों में से एक के अनुसार, पदावनत दल ने लड़ाई वाले पदों को छोड़ दिया। इटालियंस के लिए, युद्ध पहले ही समाप्त हो गया है - युद्धपोत माल्टा में आत्मसमर्पण करने जा रहा था। तीसरे लेख में "वॉर्सपिट" का उल्लेख किया गया था, जिसमें फ्रिट्सेव की एक जोड़ी उतरी (साइड में एक प्रत्यक्ष हिट और एक 300 विस्फोट किलो विस्फोटक)। विस्फोटों ने उनकी सुंदरता को नहीं जोड़ा, "कोर्सेट" ने अपनी बारी खो दी। केवल अच्छा है समाचार यह था कि चालक दल की अपूरणीय हानि 9 मल्लाह (0,8%) थी। छह महीने बाद, पुनर्निर्मित युद्धपोत ने पहले नॉर्मंडी में किलेबंदी पर आग लगा दी। Fritz X सुपरबॉम्ब 460-mm आर्ट के बराबर है। फेंकने। तीन मीटर से अधिक की लंबाई के साथ, इसमें 1362 किलो का द्रव्यमान था। ओजीवल भाग में दीवारों की मोटाई - 15 सेमी स्टील। विस्फोटकों का द्रव्यमान - 300 किलो। "फ्रिट्ज़" रेडियो सुधार के लिए धन्यवाद, एक्सएनयूएमएक्स किमी की ऊंचाई से गिरते हुए, इसने ट्रांसोनिक गति (एक्सएनयूएमएक्स एम / एस) विकसित की और एक चलती जहाज में उतरने का अवसर मिला। स्पाइस बमबारी के दौरान, उड़ते हुए किले द्वारा गिराए गए दो कवच-भेदी बमों को विटोरियो वेनेटो एलके की दीवार पर गिरा दिया गया था। अपनी विशेषताओं के अनुसार, ये "रिक्त" जर्मन "फ्रिट्ज़" (बड़े पैमाने पर एक टन, निर्वहन 4-6 किमी की ऊंचाई) के अनुरूप थे। हमले का कोई नतीजा नहीं निकला। एक महीने में युद्धपोत की मरम्मत की गई थी। पूरे युद्ध के लिए, इतालवी एलसी "रोमा" बमबारी विमानन का एकमात्र आकस्मिक शिकार बन गया। अपवाद ने सामान्य नियम की पुष्टि कीः एक हवाई बम के साथ एक बड़े अत्यधिक संरक्षित जहाज को नष्ट करना लगभग असंभव है। "लेकिन Tirpitz, Marat और एरिज़ोना के बारे में क्या? " - संदेहवादी शालीनतापूर्वक बहिष्कार करते हैं। और वे गलत होंगे। उपरोक्त सभी उदाहरण इतने घृणित हैं कि उनमें से एक अनुस्मारक पूरी तरह से विपरीत परिणाम देता है। "ह्यूगो" - एक्सएनयूएमएक्स श्रेणी में युद्ध के अंत में शुरू किए गए एक युद्धकाइज़र ने जुलाई में क्योर एक्सएनयूएमएक्स की नौसेना बलों की बमबारी के दौरान एक्सएनयूएमएक्स + प्रत्यक्ष हिट और कई करीबी ब्रेक प्राप्त किए। यह अपने पतवार में कई लीक से उथले पानी में डूब गया। "Ise" 24 जुलाई 1945 को पांच हिट मिले। चार दिनों के बाद, Kure के 9 प्रति घंटा की बमबारी के दौरान, ग्यारह 1000-fnl युद्धपोत में घुस गए। बहुउद्देश्यीय सेनानियों द्वारा बम गिराए गए "कोर्सेर"। थकावट में जहाज नीचे तक डूब गया। "Tirpitz", पानी के नीचे की खानों और दर्जनों ब्रिटिश हवाई छापों से पीड़ित होकर, अंततः टॉलबॉय 5-टन बमों से भरा हुआ था। सभी कम विदेशी साधनों तिरपिट्ज़ अप्रभावी के खिलाफ कर दिया। "एरिजोना"। वर्ष के 1915 की भयानक बुकिंग 800-mm कवच-भेदी प्रक्षेप्य से परिवर्तित 356-kg बम के लिए मुश्किल नहीं थी। जबकि "एरिज़ोना" पर्ल हार्बर के युद्धपोतों में से एकमात्र था, इस तरह से डूब गया। "मरात"। एक भी पैरामीटर नहीं है जिसके द्वारा बाद के समय के युद्धपोतों की तुलना में इसे गंभीरता से लिया जा सकता है। 30-mm डेक को तोड़ें - das ist niht bezonders। वे सभी ठिकानों में डूब गए थे। "तिरपिट्ज़" को छोड़कर सभी सदी के मोड़ पर जंग खाए हुए बाल्टी थे। उनकी मृत्यु के समय, जापानी जहाज युद्ध में घायल हो गए थे और सैकड़ों हजारों मील की दूरी पर आग लगा दी थी। फिर भी, उनके विनाश के लिए प्रभावशाली मात्रा में गोला-बारूद का उपयोग करना पड़ा। सामान्य परिस्थितियों में, खुले समुद्र में, आधुनिक वायु रक्षा की उपस्थिति के साथ, इन परिणामों को दोहराना असंभव होगा। एकमात्र मौका वॉटरलाइन के नीचे पतवार को नष्ट करना है। द्वितीय विश्व युद्ध के वर्षों में, 24 युद्धपोतों को टारपीडो हमलों (इस तथ्य के बावजूद कि "उन्होंने लड़ाई नहीं की थी और पूरे युद्ध को आधार में खड़ा किया था")। और युद्ध में केवल दो बार एक एकल टारपीडो गंभीर नुकसान का कारण बन गया था। Wedged बिस्मार्क स्टीयरिंग व्हील और झुको प्रोपेलर शाफ्ट के नियंत्रण रेखा Richelieu। जबकि डकार में घटना का विवरण एक रहस्य बना हुआ है। फ्रांसीसी युद्धपोत और ब्रिटिश विमान वाहक को लंगर डाला गया था। सुबह में अंग्रेजों ने एक स्क्वाड्रन उठाया और "रिचल्यू" पर हमला किया। टॉरपीडो के हमले से पहले की रात को, उन्होंने एक्सएनयूएमएक्स युद्धपोत के चारों ओर गहराई के आरोपों को बिखेर दिया, और टॉरपीडो के वारहेड ब्लास्ट ने संभवतः निचले स्तर पर लगे आरोपों के विस्फोट की पहल की। विस्फोट का प्रभाव खाड़ी की उथली गहराई से और बढ़ गया था। बस कुछ मामलों में, जिनमें से एक स्पष्ट रूप से अपर्याप्त है, द्वितीय विश्व युद्ध के दर्जनों नौसैनिक युद्धों की पृष्ठभूमि के खिलाफ। और फिर "बिस्मार्क" के उदाहरण पर "eksperty" बड़े युद्धपोतों की विफलता साबित होगी। बेशक, वे बस अन्य मामलों के बारे में नहीं जानते हैं। वर्णित 24 एपिसोड में से, 13 एक जहाज़ की तबाही में समाप्त हो गया। मौत हमेशा दो कारणों से हुई। पहला एंटी-टारपीडो संरक्षण (कांगो, फूसू, बरहम, रॉयल ओक, रिपब्लिक, ओक्लाहोमा, नेवादा, कैलिफोर्निया, वी। वर्जीनिया) की कमी है। ये सभी प्रथम विश्व युद्ध के खूंखार थे, जिनके रचनाकारों को पनडुब्बियों और टारपीडो हमलावरों के तेजी से विकास पर संदेह नहीं था। पाठक शायद पूछेंगे - नेवादा, कैलिफोर्निया और वी। मृतकों की सूची में कैसे आए? वर्जीनिया "जिनकी मरम्मत की गई और सेवा में वापस आए? बहुत विस्तार में जाने के बिना, हम ध्यान दें कि उन पर्ल हार्बर पीड़ितों को गंभीर चोटें आईं और वे जमीन पर लेट गए (फंसे)। गोताखोर निरीक्षण के लिए भेजा "वी। वर्जीनिया "(7 टारपीडो हिट) युद्धपोत के शरीर को देखे बिना एक छेद से होकर गुजरी। किंवदंती के अनुसार, निराशाजनक जहाज को केवल इसलिए बहाल किया गया क्योंकि युद्धपोत का पूर्व कमांडर बेस की कमान के बीच था। इस पर गेय विषयांतर समाप्त हो जाता है और फिर से कठोर आँकड़े बन जाते हैं। युद्धपोतों के दूसरे समूह की पूरी तरह से जंगली संख्या में टारपीडो से मौत हो गई जो उन पर गोलीबारी की थी। "शार्नहॉर्स्ट" - 11 हिट। "मुशी" - 20। डूबने के लिए जापानी दिग्गजों को पूरी वायु सेना का इस्तेमाल करना पड़ा। उन घटनाओं में भाग लेने वालों की गवाही के अनुसार, छठी टॉरपीडो के हिट होने के बाद ही "मुशी" की स्थिति निराशाजनक हो गई। और यह केवल इसलिए है क्योंकि हमले जारी रहे, और इसके पीटीजेड और काउंटर-फ्लड सिस्टम की क्षमताओं को व्यावहारिक रूप से समाप्त कर दिया गया था। 9 घंटे के लिए विमानों की भीड़ ने "मुशी" को रोक दिया। और उसने आखिरी का विरोध किया और अपनी शक्ति के तहत क्रॉल करना जारी रखा। महान जहाज। प्रिंस ऑफ वेल्स एलसी (एक्सएनयूएमएक्स टॉरपीडो) की मौत अलग खड़ी है। देर से अवधि के सबसे कमजोर युद्धपोतों में एक स्पष्ट रूप से अपर्याप्त पीटीजेड था, जिसके लिए उन्होंने भुगतान किया। यह सब बंद करने के लिए, दूसरे टॉरपीडो के विस्फोट ने प्रोपेलर शाफ्ट को झुका दिया। परिक्रामी, उसने पानी के प्रवाह को तेज करते हुए पूरे फ़ीड भाग को "उत्तेजित" किया। उसी समय, "लिटोरियो", "विटोरियो वेनेटो", "नॉर्थ कैरोलीन", "यामाटो" (एक्सएनयूएमएक्स में पनडुब्बी "स्केट" के साथ बैठक) के साथ छोटी-छोटी घटनाएं स्पष्ट दिखाई दीं। एक अच्छी तरह से विकसित PTZ के साथ एक बड़े और टिकाऊ जहाज को एक या दो टॉरपीडो को मारकर निष्क्रिय नहीं किया जा सकता है। परिणाम केवल लड़ाकू प्रभावशीलता में थोड़ी कमी होगी, और आधार पर लौटने पर - अल्पकालिक मरम्मत (कई हफ्तों से लेकर कुछ महीनों तक)। इस तरह के आंकड़ों की पृष्ठभूमि के खिलाफ, "बिस्मार्क" को नुकसान का उदाहरण असंबद्ध दिखता है। उपसंहार। लेखक को पूरी उम्मीद है कि यह सामग्री उन सभी के लिए दिलचस्प थी जो नौसेना विषय के शौकीन हैं। संकेतित तथ्य एक मौलिक रूप से भिन्न छाया देते हैं। कहानियों "बिस्मार्क और व्हाट्नॉट" के बारे में और "विनम्रतापूर्वक यामातो को खो दिया"। मुख्य निष्कर्ष यह हैः बड़े, अच्छी तरह से संरक्षित जहाजों को बेअसर करने के लिए अविश्वसनीय प्रयास करना आवश्यक था। कभी-कभी, उन लोगों के लिए समस्याएं पैदा हुईं जिनके डिजाइन में नए समय के खतरों को पूरी तरह से ध्यान में नहीं रखा गया था। जिन्हें बाद में बनाया गया था वे सामान्य तरीकों से व्यावहारिक रूप से अविनाशी साबित हुए। - लेखकः
166848440a5f4248521619228179d967246707ff
pdf
दो करोड़ अस्सी लाख बयालीस हज़ार इक्कीस प्रादेशिक समाचार 1945बजे मुख्य समाचार मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने शिमला जिला के अस्पतालों में बिस्तरों की क्षमता बढ़ाने के दिए निर्देश अट्ठारह वर्ष से अधिक उम्र के लोगों को कोविड से बचाव का टीका लगवाने के लिए पंजीकरण प्रक्रिया आज से शुरू प्रदेश में अब तक चौदह लाख से अधिक लोगों को लगाई गई कोविड वैक्सीन दो लाख से अधिक लोगों ने लगवाई दूसरी डोज़ | प्रदेश में कोरोना मामलों में वृद्धि जारी आज अभी तक कोरोना के दो हज़ार पाँच सौ उनतालीस नए मामलों की पुष्टि तैंतीस लोगों की मृत्यु कोविड संदेश कोविड मरीजों की संख्या फिर से बढ़ रही है इसलिए सभी श्रोताओं से अपील है कि कोई भी कोताही न बरतें सभी सुरक्षा उपायों का पालन करें और पैंतालीस वर्ष से ऊपर के सभी लोग बेहिचक टीका लगवाएं सुरक्षित रहें और इन तीन आसान उपायों का पालन करें मास्क पहनें दो गज दूरी है जरूरी सुरक्षित दूरी बनाये रखें हाथ और मुंह साफ रखें मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने शिमला जिला के अस्पतालों में बिस्तरों की क्षमता बढ़ाने के निर्देश दिए हैं आज शिमला में कोविड19 की स्थिति की समीक्षा करते हुए उन्होंने कहा कि आईजीएमसी की नई ओपीडी में चरणबद्ध तरीके से तीन सौ अतिरिक्त बिस्तरों की क्षमता उपलब्ध करवाई जाएगी आयुर्वेदिक अस्पताल छोटा शिमला में पचास नागरिक अस्पताल जुन्गा में पचास और टूटीकंडी पार्किंग में सौ बिस्तरों की अतिरिक्त क्षमता उपलब्ध कराई जाएगी उन्होंने कहा कि इसी तरह रोहडू रामपुर बुशहर के खनेरी और ठियोग नागरिक अस्पतालों की बिस्तर क्षमता को बढ़ाने के प्रयास किए जाने चाहिएं मुख्यमंत्री ने कहा कि किसी भी विपरीत स्थिति का सामना करने के लिए शहर या साथ लगते स्थान पर प्रीफैब्रिकेटिड दो सौ बिस्तरों की अतिरिक्त सुविधा उपलब्ध करवाने के प्रयास भी किए जाएं उन्होंने कहा कि सेना के अधिकारियों से सेना अस्पताल के उपयोग की अनुमति से संबंधित मामला भी उठाया जाएगा मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रदेश में ऑक्सीज़न उपकरणों और दवाओं की कोई कमी नहीं है उन्होंने कहा कि रोहडू और रामपुर के अस्पतालों में ऑक्सीज़न संयंत्र स्थापित करने पर विचार किया जा रहा है शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज स्वास्थ्य मंत्री राजीव सैजल उपायुक्त आदित्य नेगी सहित अन्य अधिकारी बैठक में मौजूद रहे भारद्वाज इस बीच शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज ने शिमला के टूटीकंडी स्थित वाहन पार्किंग का निरीक्षण किया और पार्किंग को कोविड सेंटर बनाने के लिए संबंधित अधिकारियों को आवश्यक दिशानिर्देश जारी किए उन्होंने कहा कि शहर के आसपास के क्षेत्रों में भी अस्थाई कोविड सेंटर बनाने के लिए जगह के चयन के लिए निरीक्षण किए जा रहे हैं टीकाकरण पंजीकरण अट्ठारह वर्ष से अधिक उम्र के सभी देशवासियों को कोविड से बचाव का टीका लगवाने के लिए पंजीकरण प्रक्रिया आज शुरू हो गई है इन लोगों को पहली मई से कोविड टीकाकरण अभियान के तीसरे चरण में टीका लगाया जाएगा इस चरण में टीकाकरण के लिए पंजीकरण अनिवार्य है और लोग कोविन पोर्टल कोविन डॉट गोव डॉट इन पर अपना पंजीकरण करा सकते हैं इस चरण में पहले की तरह केन्द्र सरकार के सभी टीकाकरण केन्द्रों पर अट्ठारह वर्ष से ऊपर की आयु के सभी लोगों को निशुल्क टीका लगाया जाएगा केन्द्र ने अब राज्यों और निजी अस्पतालों को भी उत्पादक से टीका खरीदने की छूट दी है टीकाकरण केन्द्र राज्य में मुख्य चिकित्सा अधिकारियों को संबंधित जिलों में नए निजी कोविड टीकाकरण केन्द्रों के पंजीकरण नामित किया गया है एक सरकारी प्रवक्ता ने आज शिमला में बताया कि इन अधिकारियों को कोविन एप पर निजी संस्थानों के आवेदन प्राप्त होने के दो दिन के भीतर नए निजी कोविड टीकाकरण केन्द्र के पंजीकरण का निर्णय लेना होगा उन्होंने कहा कि इसके लिए निजी स्वास्थ्य संस्थान के पास पर्याप्त कोल्ड चेन उपकरण क्षमता प्रतिक्षालय टीकाकरण और टीकाकरण के बाद देखभाल के लिए पर्याप्त स्थान होना अनिवार्य है साथ ही मंत्रालय के दिशानिर्देशों के अनुसार पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित वैक्सीनेटर और वैरीफायर्ज भी उपलब्ध होने चाहिएं ये केन्द्र टीकाकरण के बाद विपरीत परिस्थिति के प्रबंधन में भी सक्षम होने चाहिएं आग राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने शिमला जिला में कोटखाई के फनैल गांव में हुई आगजनी की घटना पर दुख जताया है इस घटना में एक महिला की मृत्यु हो गई और करीब छः घर जलकर राख हो गए हैं राज्यपाल ने प्रभावित परिवारों को रेडक्रॉस की ओर से फौरी राहत सामग्री भेजी है और प्रशासन को प्रभावित परिवारों को हर संभव सहायता प्रदान करने के निर्देश दिए हैं मुख्यमंत्री ने दिवंगत आत्मा की शांति और शोक संतप्त परिजनों के प्रति संवेदना जताते हुए कहा कि प्रभावित परिवारों को हर संभव सहायता प्रदान की जाएगी राठौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर ने बढ़ते कोरोना संक्रमण को देखते हुए खाली पड़े सरकारी भवनों को कोविड केन्द्रों के तौर पर प्रयोग करने की सलाह दी है मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के साथ एक बैठक में उन्होंने कोरोना के बढ़ते संक्रमण को रोकने के लिए कड़े उपायों की ज़रूरत पर बल दिया उन्होंने कहा कि इसके लिए जनहित में पार्टी सरकार का सहयोग करेगी राठौर ने कहा कि संकट के इस काल में कुछ दवा विक्रेता कालाबाजारी कर रहे हैं उन्होंने इनके निरीक्षण के लिए विशेष टास्क फोर्स की जरूरत बताई वैक्सीन प्रदेश में कोविड19 से बचाव के लिए टीकाकरण अभियान के तहत सत्ताईस अप्रैल तक चौदह लाख बारह हजार नौ सौ अठहत्तर लोगों को वैक्सीन लगाई गई स्वास्थ्य विभाग के एक प्रवक्ता ने आज शिमला में बताया कि इनमें दो लाख से अधिक वे व्यक्ति शामिल हैं जिन्हें कोरोना वैक्सीन की दूसरी डोज़ भी लगा दी गई है उन्होंने बताया कि प्रदेश में अभी तक बीस प्रतिशत से अधिक जनसंख्या को कोविड वैक्सीन लगाई गई है प्रवक्ता ने बताया कि सरकार ने अट्ठारह से चौंतालीस वर्ष की आयु वर्ग के लोगों का सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों में निशुल्क टीकाकरण करने के लिए कोविन पोर्टल और आरोग्य सेतु ऐप पर पंजीकरण शुरू कर दिया है उन्होंने बताया कि प्रदेश में अट्ठारह से पैंतालीस वर्ष की आयु के करीब इकतीस लाख लोग टीकाकरण के लिए पात्र हैं उन्होंने कहा कि सरकारी टीकाकरण केंद्रों पर टीकाकरण का कार्य वैक्सीन की आपूर्ति पूरी होने शुरू किया जाएगा और पात्र व्यक्ति अगर चाहें तो निजी टीकाकरण केंद्रों पर भी निर्धारित शुल्क जमा करवा कर टीका लगवा सकते हैं हिमाचल कोरोना छः प्रदेश में कोरोना के मामलों में वृद्धि लगातार जारी है राज्य में आज अभी तक कोरोना के दो हज़ार पाँच सौ उनतालीस नए मामले सामने आए हैं जबकि एक हज़ार पाँच सौ बावन लोग स्वस्थ भी हुए हैं आज अभी तक सर्वाधिक छः सौ तिरानवे मामले कांगड़ा जिला में दर्ज किए गए हैं प्रदेश में कोरोना के कुल मामलों की संख्या बढ़कर तिरानवे हजार आठ सौ नवासी हो गई है इनमें से सोलह हजार अट्ठानवे मामले सक्रिय हैं जबकि छिहत्तर हजार तीन सौ पैंतीस लोगों ने कोरोना को मात दी है राज्य में कोरोना से अभी तक एक हजार चार सौ सात लोगों की मृत्यु हो चुकी है पिछले चौबिस घंटों के दौरान कोरोना से प्रदेश में तैंतीस लोगों ने जान गंवाई है वेबिनार सूचना व प्रसारण मंत्रालय और केंद्र व राज्य सरकार के विभागों की इकाईयों की इंटर मीडिया प्रचार समन्वय समिति की एक बैठक आज पीआईबी चंडीगढ़ की अतिरिक्त महानिदेशक देवप्रीत सिंह की अध्यक्षता में आयोजित की गई पत्र सूचना कार्यालय शिमला द्वारा वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आयोजित इस बैठक में कोविड टीकाकरण अभियान और पहली मई से शुरू होने वाले कोविड टीकाकरण अभियान के महत्व संबंधी गतिविधियों पर विचार विमर्श किया गया इस दौरान सभी इकाईयों को कोरोना बचाव के संदेशों को बढ़ाने के अलावा लोगों में विभिन्न माध्यमों से जागरूकता लाने पर जोर दिया गया
1fa13d288581e81f21579af4e0d25affbd5c7b66
web
भारतीय इतिहास के महान गौरव आचार्य चाणक्य द्वारा रचित दो हज़ार साल पुराने संस्कृत ग्रंथ 'चाणक्य नीति' को लोक-व्यवहार के लिए अनुपम उपहार कहा जाता है। इसके श्लोक पढ़ते हुए मन में बार-बार आश्चर्य के भाव उठते हैं कि आख़िर कैसे इनमें व्यक्त विचार युगों का दायरा तोड़ आज भी अपनी प्रासंगिता सिद्ध करते हैं। इसे नीति काव्य का पहला संग्रह माना जाता है। चाणक्य शास्त्रों के आदर्श को व्यवहार में उतारकर दिखाने वाले एक अद्भुत व्यक्तित्व थे। कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री और शिक्षक की विशिष्टताओं का मिला-जुला एक ऐसा चेहरा, जिसने संकल्प लिया तो नंद वंश का ख़ात्मा करके ही दम लिया। एक युवक को ऐसी सीख दी कि वह एक दिन समूचे भारत को एक सूत्र में जोड़ने वाला सम्राट चन्द्रगुप्त बना। 'चाणक्य नीति' के 17 अध्यायों में सैकड़ों ऐसे सूत्र हैं जो राज-काज से लेकर आम जनजीवन की रोज़मर्रा की समस्याओं तक का अद्भुत समाधान प्रस्तुत करते हैं। इसमें कुछ ऐसे श्लोक भी हैं, जिन पर आज के समय के हिसाब से कुछ सवाल उठाए जा सकते हैं पर ध्यान देने की बात है कि चाणक्य जिस युग में थे, उस युग के अनुभवों के आधार पर अपनी बात कह रहे थे। अगर कुछ बातें आज के बदलते परिवेश से मेल नहीं खातीं, तो उन्हें छोड़कर आगे बढ़ा जा सकता है। तो आइए, पहले अध्याय से इस कालजयी ग्रंथ की दुनियादारी का सीख को समझने की कोशिश करते हैं। आचार्य सबसे पहले 'साथ' के महत्व पर बात करते हैं। पहले अध्याय के चौथे श्लोक में वह कहते हैं, मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान देने से बुद्धिमान को कोई लाभ नहीं होता, अन्ततः नुकसान उठाना पड़ता है। दुखी व्यक्ति की मदद करना उचित है पर विषाद जिनका मानसिक और शारीरिक स्थायी भाव बन गया हो, उनसे दूरी बनाए रखने में ही लाभ है, अन्यथा दुखदायी परिस्थितियां सुखी व्यक्ति से भी चिपकने लगेंगी। आठवें श्लोक में वह कहते हैं, ऐसे स्थान पर निवास नहीं करना चाहिए, जहां नाते-रिश्ते, मान-सम्मान, आजीविका का इंतज़ाम और शिक्षा प्राप्ति के साधन न हों। चाणक्य नीति कहती है कि काम वही करना चाहिए, जिसके बारे में ठीक से जानकारी हो। वह कुलभेद को खारिज करते हुए कहते हैं, कन्या किसी भी कुल में पैदा हुई हो, अगर अच्छे गुणों से युक्त हो, तो उससे विवाह करने में कोई हानि नहीं। क़िताब के दूसरे अध्याय के शुरू में स्त्रियों की ओर ध्यान दिलाते हुए बात आगे बढ़ाई गई है। पहले श्लोक में कहा गया है, झूठ बोलना, बिना सोचे-समझे किसी कार्य को प्रारंभ करना, दुस्साहस करना, छलकपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्र रहना और निर्दयता, ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। इस वक्तव्य से उन पर स्त्री-विरोधी होने के आरोप लगाए जा सकते हैं, पर ध्यान रखना चाहिए कि शैक्षिक माहौल से दूर, चारदीवारी में क़ैद स्त्रियों के स्वभाव के हिसाब से चाणक्य अपनी बात कह रहे थे। वास्तव में चाणक्य स्त्री-पुरुष, दोनों के गुण-दोष पर बराबर निगाह रखते दिखाई देते हैं। वह कहते हैं, पीठ पीछे बुराई करने वालों से जितना हो सके बचकर रहना चाहिए। तीसरे अध्याय के पहले श्लोक में आचार्य कहते हैं, संसार में ऐसा कोई कुल नहीं, जिसमें कोई दोष या अवगुण न हो। ऐसा मनुष्य दुर्लभ है, जो व्यसनों में न पड़ा हो या जो सदा सुखी रहता हो। वह आचार और चरित्र की शिक्षा देते हुए कहते हैं, शिक्षा ही जीने की कला सिखाती है। 18वें श्लोक में चाणक्य कहते हैं, पांच वर्ष की आयु तक पुत्र से लाड़ करना चाहिए। अगले दस वर्ष तक उसकी सावधानी से देखभाल, ज़रूरत पड़ने पर दंड भी देना चाहिए, परन्तु जब वह 16 का हो जाए तो उससे मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए। चाणक्य की दृष्टि मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत सूक्ष्म है। चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में इसकी झलक देखने को मिलती है। वह कहते हैं, जैसे मछली अपने बच्चों को देखकर, मादा कछुआ ध्यान देकर और मादा पक्षी स्पर्श से अपने बच्चों का लालन-पालन करती है, उसी तरह से सज्जन व्यक्ति की संगति भी अपने संसर्ग में आए व्यक्ति का पालन करती है। वह कहते हैं कि विद्यार्थियों को एक-दूसरे से सहयोग करके पढ़ना चाहिए, इससे उन्हें लाभ होगा। इसी तरह से संगीत और खेती जैसे काम सहायकों की अपेक्षा रखते हैं। युद्ध के लिए जितने ही सहायक हों, उतना ही अच्छा। पांचवें अध्याय का प्रारंभ चाणक्य गुरु की महिमा से करते हैं। वह बताते हैं कि कौन किसका गुरु हो सकता है। तीसरे श्लोक में वह कहते हैं, संकट सामने खड़ा हो, तो डरकर पलायन करने के बजाय पूरी शक्ति से उसका मुक़ाबला करना चाहिए। इस अध्याय में भी एक श्लोक ऐसा है, जिस पर जाति भेद का आरोप लगाया जाता है, जबकि सही परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसका अद्भुत अर्थ निकलता है। आचार्य कहते हैं, 'मनुष्य में नाई सबसे अधिक चालाक और होशियार होता है। पक्षियों में कौआ, चार पैरों वाले जानवरों में सियार और स्त्रियों में मालिन बहुत चतुर होती है। ' वास्तव में आचार्य चाणक्य के समय में जातियां अपने पेशे का प्रतिनिधित्व करती थीं। उनके कहने का अर्थ है कि जिन लोगों में सामाजिकता जितनी ज़्यादा होती है, उनका व्यावहारिक ज्ञान भी उतना ज़्यादा होता है। अध्याय के 15वें श्लोक में आचार्य कहते हैं, काम छोटा हो या बड़ा, अगर करने का फ़ैसला लिया हो, तो शुरू से ही उसमें पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए। समझदार व्यक्ति को अपनी इन्द्रियां क़ाबू में रखनी चाहिए और बगुले की तरह धैर्य के साथ अपने काम में तब तक लगे रहना चाहिए, जब तक कि लक्ष्य चलकर पास न आ जाए। सातवें अध्याय में आचार्य चारित्रिक गुणों और व्यावहारिकता के विकास को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, 'जो मनुष्य धन-धान्य के लेन-देन में, भांति-भांति की विद्याएं सीखने में, आहार और व्यवहार में शर्म-संकोच नहीं करता, वह सुखी रहता है। आठवें अध्याय में आचार्य ने गुणों और स्वभाव के अनुसार मनुष्यों का वर्गीकरण किया है। वह कहते हैं, जो लोग केवल धन एकत्रित करने के चक्कर में रहते हैं, वे अधम कोटि के होते हैं। मध्यम कोटि के व्यक्ति धन और सम्मान दोनों कमाने की कामना करते हैं, जबकि उत्तम श्रेणी वाले व्यक्ति केवल मान-सम्मान की इच्छा करते हैं। नौवें अध्याय में जीवन का लक्ष्य बताते हुए सीख दी गई है कि बुरी आदतों को विष समझकर त्याग देना चाहिए। क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान समझकर धारण करना चाहिए। इस अध्याय के दूसरे श्लोक में सचेत किया गया है कि जो लोग एक-दूसरे के भेद खोलने में लगे रहते हैं, वे उसी तरह नष्ट हो जाते हैं, जैसे बांबी में फंसकर सांप। दसवें अध्याय में चाणक्य विद्यार्थियों को सचेत करते हैं कि यदि सुख और आराम की कामना हो, तो विद्या अध्ययन का विचार दिमाग़ से निकाल देना चाहिए। वह निर्धनता को अभिशाप जैसा मानते हैं और मेहनत-मशक़्कत करके किसी भी तरह उससे बाहर निकलने का उपदेश देते हैं। ग्यारहवें अध्याय में चाणक्य अपने स्वभाव में स्थिर रहकर काम करने का उपदेश देते हैं, तो बारहवें अध्याय में सुखी गृहस्थ जीवन का राज़ बताते हैं। 'चाणक्य नीति' के तेरहवें अध्याय में कर्म के महत्व को स्थापित करते हुए वह कहते हैं, जैसे हज़ारों गायों के बीच रहता हुआ बछड़ा केवल अपनी मां के पास ही आता है, उसी प्रकार किया गया कर्म कर्ता के पीछे-पीछे लगा रहता है। चौदहवें अध्याय में समाज के साधारण जनों के लिए आचार्य ने कुछ विशिष्ट बातें की हैं। पहले श्लोक में वह कहते हैं, धरती पर तीन ही रत्न हैं - अन्न, जल और नीति वचन, परंतु मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़े को रत्न समझते हैं। पंद्रहवें अध्याय में वह सामाजिक जीवन में दया के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि जिस व्यक्ति में दया का भाव जीवित है, उसे मोक्ष के लिए अलग से जटा-जूट धारण करने की ज़रूरत नहीं। सत्रहवें यानी अंतिम अध्याय में आचार्य कूटनीति की दृष्टि से 'दुष्टे दुष्टं समाचरेत्' यानी 'जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करें' का उपदेश देते हैं। अंत में वह सद्गुणों के विकास पर ज़ोर देते हुए कहते हैं कि केतकी में भले सांप लिपटे रहते हैं, पर उसमें जो सुगंध है, वह सबका मन मोह लेती है इसलिए हमें भी लोक कल्याणकारी कोई-न-कोई गुण अपने भीतर अवश्य विकसित करना चाहिए।
88aa53138d1017a336d6d7854e963949cd4b0bedd771f540e1d065c03d3f2e49
pdf
* जन्म-मृत्यु, अमररथ, परलोक और पुनर्जन्मका स्वरूप तथा रहस्य * इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकृतिमें पूर्वजन्मकी विस्मृति सहेतुक है। ९ -- अमरत्वका स्वरूप अमरत्वका विचार करते समय एक महत्त्वपूर्ण बात ध्यान में रखनी चाहिये कि सच्चे अमरत्वमें और किसी भी प्रकारके दीर्घकाल-अवस्थायित्वमें महदन्तर है। यदि अमरत्वसे अभिप्राय केवल दीर्घकालतक बने रहनेसे हो तो ऐसे अमरत्वका न तो व्यावहारिक दृष्टिसे कोई मूल्य हो सकता है और न तात्त्विक दृष्टिसे ही, ब्यावहारिक दृष्टिसे किसी भी प्रकारका उपाधिसे ग्रस्त अस्तित्व एक निश्चित अवधिके अनन्तर बजाय सुखके दुःखके लिये ही कारण बन जाय । ऐसा जीवन असा भाररूप ही हो जाय । स्वर्गस्थ देवादिको 'अमर' कहा गया है । 'अमर' शब्द 'देव' शब्दका पर्यायवाची है। किंतु देवादिका अमरत्व भी केवल दीर्घकाळ अवस्थायित्वका द्योतक है, न कि तत्वज्ञानद्वारा प्राप्य सच्चे अमरत्वका, तात्त्विक दृष्टिसे सच्चा अमरत्व दिक्कालाधनवच्छिन्न आत्मतत्त्ववेचाओंको ही प्राप्त हो सकता है। देवादि भोग-योनि है। पुण्यकर्मोके संचयद्वारा और स्वर्गस्थ भोगोंकी इच्छाके कारण वह प्राप्त होती है और पुण्यकर्मोके भोगद्वारा समाप्तिके साथ ही उसकी भी समाप्ति हो जाती है और उन्हें फिर वापिस मृत्युलोकमें ही आना पड़ता है। 'ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मयंलोकं विशन्ति ।। ( गीता ९, । २१ ) हमारे शास्त्रकारोंने किसी भी प्रकारकी जन्म-मरणपरम्पराको 'भव' या 'संसार' कहा है। इस घटीयन्त्रवत् परम्परासे छूटनेमें ही मनुष्यका सच्चा परम पुरुषार्थ है और मनुष्य-जीवनकी सार्थकता है । सच्चा अमरत्व किसी भी प्रकार कालसे घटित न होकर वह सर्वथा कालसे अस्पृष्ट रहता है । आत्माको काल-परिच्छेद नहीं । वेदान्तदर्शनके अनुसार कालका अर्थ है ब्रह्म तथा मायाका अनादिकालसे चला आया हुआ सम्बन्ध ।' यह सम्बन्ध आध्यासिक होनेसे काल भी आभ्यासिक अतएव मिथ्या है। वह अनादि सान्त है । वह 'ज्ञाननिवर्त्य' है। तत्त्वतः आत्मा कालमें नहीं है, काल स्वयं आत्मामें है और वह उसपर अभ्यस्त है। इसलिये सच्चा अमरत्व काळसे अघटित, कालसे सर्वथा अस्पृष्ट ही हो सकता है । नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त सच्चिदानन्द आत्मस्वरूप ही सच्चे अर्थमें अमर है और यही 'अमरत्व' का अर्थ है । उसे छोड़कर अन्य सब काल सर्पसे ग्रस्त है - 'प्रस्त कालाहिना जगत् । अमर आत्मा ही जीवमात्रका सञ्चा स्वरूप है। वह नित्य प्राप्त है। अमरत्व कहीं बाहरसे लाना नहीं है; उसके अनुभवमें प्रतिबन्ध करनेवाली अज्ञानमूलक कल्पनाओंको यथार्थ ज्ञानके द्वारा दूर कर देना है। सारा प्रयत्न, शास्त्रोक्त कर्म, उपासना तथा योगादि साधना इत्यादि सब एकमात्र आत्मज्ञानको सम्पादन करनेमें ही चरितार्थ होते हैं । यही सबका अन्तिम प्राप्तव्य है। इसलिये सच्चा अमरत्व मरणोत्तर दशामें प्राप्त होनेवाला न होकर इसी जन्ममें, यथार्थ ज्ञानोदयके साथ ही प्राप्त हो सकता है'ज्ञानसमकालमुक्तः कैवल्यं याति हतशोकः ।। 'अन्न ब्रह्म समश्नुते ॥" इसीलिये मोक्ष दृष्टफल है, जिसे यथार्थ ज्ञानके द्वारा इसी जीवनमें सभी अधिकारी पुरुष प्राप्त कर सकते हैं और जीवन्मुक्त दशाका अनुभव कर सकते हैं । पाश्चात्य तत्त्वचिन्तक भी इस तथ्यसे सहमत हैं । श्रीप्रिंगल पेटिसन कहते हैं'अनन्तत्वका अर्थ अनन्त कालावस्थायित्व न होकर कालातीत वस्तुका अनुभव है।" इसीलिये धर्मशास्त्रज्ञ तथा दार्शनिक यह साग्रह प्रतिपादन करते हैं कि 'अनन्त और अमर जीवनका अनुभव मरणोत्तर न होकर यहीं और इसी समय प्राप्त होने योग्य है।' ( अमरत्वका विचार पृ० १३४-१३५ ) १० - जीवकी मरणोत्तर स्थिति गति प्रारब्धकर्मकी समाप्तिके साथ ही रोगादि निमित्तको लेकर जीवका सूक्ष्मदेह या लिङ्गशरीर स्थूलशरीरसे पृथक् हो जाता है। इसीको पिंड' प्राणका वियोग या 'मृत्यु' कहते हैं। यहींसे जीवकी परलोकयात्रा प्रारम्भ हो जाती है। जैसे जीवकी इहलौकिक अच्छी या बुरी स्थिति उसके कर्मोंपर ही अवलम्बित रहती है, वैसे ही उसकी मरणोत्तर स्थिति भी उसके कर्मोंपर ही अवलम्बित होती है । 'यथाकारी यथाचारी तथा भवति । साधुकारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति । पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन ।काममय एवायं पुरुष इति स * पुनर्जन्म पाला न कभी जो पुरुष हो गया भगवरमाप्त * पथाकामो भवति तत्कतुर्भवति यक्कतुर्भवति तत् कर्म कुरुते यत् कर्म कुरुते तदभिसम्पद्यते।' (बृ. उपनिषद् ४।४१५) 'वह ( मनुष्य ) जैसा करनेवाला और जैसे आचरणवाला होता है, वैसा ही हो जाता है। शुभ कर्म करनेवाला शुभ होता है और पापकर्मा पापी होता है। पुरुष पुण्य कर्मसे पुण्यात्मा होता है और पापकर्मसे पापी होता है। यह पुरुष काममय ही है। वह जैसी कामनावाला होता है, वैसा ही संकल्प करता है, जैसे संकल्पवाला होता है, वैसे ही कर्म करता है और जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल प्राप्त करता है ।" मनुष्यकी शुभाशुभ वासनाओंके अनुसार ही उसके संकल्प बनते हैं और ये ही विशिष्ट प्रकारकी शुभाशुभ योनिमें जन्म ग्रहण करनेके कारण होते हैं । इस विषयमें कठश्रुति भी यही कहती है - योनिमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देहिनः । स्थाणुमन्येऽनुसंयन्ति यथाकर्म यथाश्रुतम् ॥ 'अपने कर्म और ज्ञानके और ज्ञानके अनुसार कोई देहधारी शरीरधारणार्थ विशिष्ट योनिको प्राप्त होते हैं और अन्य कोई देहधारी स्थावरभावको प्राप्त होते हैं।" मनुष्यके यथार्थ या अयथार्थ एवं दूषित ज्ञानके अनुसार अन्तःकरणमें उत्पन्न होनेवाली वासनाएँ, उनकी पूर्तिके लिये किये जानेवाले संकल्प और कर्म इत्यादि होते हैं। यह अनुभवसिद्ध है। इनमेंसे विशिष्ट प्रबल वासनाएँ, जो जीवनकालमें सुप्त या प्रकट रहती हैं, मरनेके समय पूर्वाभ्यासवश जग जाती हैं और ये ही मनुष्यके जन्मान्तरकी नियामक बन जाती हैंयं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ ( श्रीमद्भगवद्गीता ८ । ६) 'अन्ते मतिः सा गतिः' का यही अभिप्राय है। 'यथाप्रज्ञं हि सम्भवाः' अर्थात् 'बुद्धिके अनुसार ही जन्म हुआ करते हैं।' इस श्रुतिमें जन्मान्तरका रहस्य सूत्ररूपसे निर्दिष्ट किया गया है। कृतकर्मोंके भोग, वासनाओंका प्राबल्य, विशिष्ट हेतुकी पूर्तिकी प्रबल इच्छा, विशिष्ट प्रकारकी आसक्ति - इत्यादि सब बातें उपलक्षण तथा यहाँ अभिप्रेत हैं और ये ही जन्मान्तरकी नियामक हैं। मृत्युके साथ ही जीवको देवयान अथवा पितृयाणमार्गसे विभिन्न देवता ले जाते हैं ! इसका वर्णन श्रीमद्भगवद्गीताके आठवें अध्यायमें अच्छी तरह किया गया है। इनमेंसे प्रथम मार्गसे जानेवाले उपासक क्रममुक्तिको प्राप्त कर लेते हैं। अतएव वे इस मृत्युलोकर्मे वापस लौटकर नहीं आते। दूसरे मार्गसे जानेवाले पुण्यवान् लोग स्वर्गादि पुण्यलोकोंमें जाकर वहाँके भोग भोगकर वापस इसी लोकमें लौट आते हैं। निषिद्ध पापकर्म करनेवाले नरकमें दुःख भोगकर फिर यहाँ आकर जन्म पाप-पुण्य होते हैं, वे इसी लोकमें जन्म लेते हैं। घोर पापी तथा उत्कट वासनादिसे युक्त जीव भूत-पिशाचादि योनिमें जाते हैं। स्थूलशरीरसे रहित होनेके कारण ये सब तरहके मानवोचित भोगोंसे वञ्चित रहते हैं। यह ग-योनि है। इस प्रकार जीवकी मरणोत्तर स्थितिगतिके विभिन्न प्रकार हैं। हमने इनका संक्षेपमें निर्देश किया है। ११ -परलोक है और अवश्य है परलोक है या नहीं १-यह विवाद्य प्रश्न है; क्योंकि इस विषय में प्रत्यक्ष प्रमाणकी सम्भावना बहुत ही कम है। वैज्ञानिक अभी अन्य ग्रहोंके साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करनेमें प्रयत्नशील हैं; किंतु अभीतक वे इस दिशामें सफलता प्राप्त नहीं कर पाये हैं। अतएव शब्दप्रमाण ही इस विषयमें एकमेव महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। जो लोग परलोक नहीं मानते, उन्हें हमारे शास्त्रकार उन्हींके हितमें कहते हैंसंदिग्धे परलोकेऽपि त्याज्यमेवाशुभं जनः । नास्ति चेन्नास्ति नो हानिरस्ति चेन्नास्तिको हतः ॥ 'परलोक है या नहीं - यह संदेहका विषय होनेपर भी अशुभ कर्मोंका त्याग करना चाहिये; क्योंकि यदि परलोक न हो तो शुभ कर्म करनेवाले आस्तिक पुरुषको किसी हानिकी कोई सम्भावना नहीं। किंतु यदि परलोक हो, तो इस सम्भावनाकी ओर ध्यान न देनेवाले नास्तिककी दुर्गति हुए बिना न रहेगी।" हमारे शास्त्र-ग्रन्थोंमें परलोककी सत्यता प्रतिपादन करनेवाले अनेकानेक उल्लेख हैं। अनुमानसे भी हम 'परलोक है'--इसी निर्णयपर पहुँच सकते हैं। अनन्त प्रकृति
4eac4dfebc828c35680bd6aa80de0a4efe1f56dcb3d0ffbcce3d93c3f1c51d92
pdf
दोनों ग्रन्थों में परशुराम चरित्र की योजना भिन्न प्रकार से की गई है। रामायण में जनकपुर से लौटते समय उनका प्रसंग वर्णित है, मानस में स्वयम्बर की रंग भूमि पर ही उनका आगमन दर्शाया गया है । अतएक रामायण में तो उनके पूर्व तपादि का उल्लेख करते हुये दशरथ उनसे अभयदान की याचना करते हैं परन्तु मानस के उक्त प्रसंग में परशुराम का शारीरिक, वाचिक रौद्र रूप प्रदर्शन कर तुलसी ने नाटकीय ढंग से लक्ष्मण द्वारा उनको वाक् युद्ध से उद्वेलित किया है तत्पश्चात् राम के शील एवं तेजस्वी स्वरूप से उनको अभि भूत दर्शाकर परम शान्त रूप में परिणत करना उनका लक्ष्य रहा है। मानस के परशुराम के चित्रण में भिन्नता का कारण तुलसी की मौलिकता है । रामायण तथा मानस के गौण नारी पात्र दोनों ही ग्रन्थों में तीनों ही प्रकार की गौण नारी पात्राओं का विवरण मिलता है । ( १ ) सात्विक गुण की प्रतीक स्वरूपा - शबरी (२) राजसी गुण की प्रतीक स्वरूपा - मन्थरा (३) तामसी गुण की प्रतीक स्वरूपा - सूर्पणखा रामायण में शबरी रामायण में शबरी का चरित्रांकन अत्यन्त तपोनिष्ठा श्रमिणी के रूप में किया गया है । इसका प्रमाण यह है कि शबरी के आश्रम में पहुँचते ही सिद्धा शबरी द्वारा स्वागत किये जाने पर राम उनकी तपस्या के विषय में प्रश्न करते हैं । 'तामुवाच ततो रामाः श्रमणीं शंसितव्रताम् कच्चित्ते निजिता विघ्नाः कच्चित्ते वर्धते तपः । कच्चित्ते नियतः कोप आहारश्च तपोधने कच्चि नियमाः प्राप्ताः कच्चित्ते मनसः सुखम् । कच्चित्ते गुरुशुश्रूषा सफला चारुभाषिणि " वह अपनी तपस्या में साधक ही नहीं, सिद्धा भी थी । उसका प्रमाण यह है कि वह स्वयं कहती है कि आज मेरी तपस्या सफल हुई इत्यादि परन्तु शबरी को तपस्या सकाम थी निष्काम नहीं क्योंकि वह कहती हैं कि मैं आज ही स्वर्ग को चली जाऊँगी । रामायण की शबरी की गुरु भक्ति भी वर्णित हुई है । इस प्रकार रामायण की शबरी समाधि योगिनी के रूप में चित्रित हुई है जो कि आत्म समाधि से स्वर्ग लोक सिधार गई।" २. 'अद्य प्राप्तः तपः सिद्धिस्तव संदर्शनान्मया' ३. 'अद्य मे सफलं जन्म स्वर्गश्चैव भविष्यति ।' मानस में शबरी तुलसी की भक्ति भावनानुसार मानस की शबरी राम की अनन्य भक्ता के रूप में चित्रित हुई है। वह अपना दैन्य प्रदर्शन करती हुई प्रभु के दर्शन पाकर आत्मविभोर हो जाती है। भगवान राम उसकी तन्मयतासक्ति से प्रणीत हो उसके निकटतम सम्बन्ध स्थापित कर लेते हैं और कहते हैंमन्थरा 'मानउँ एक भगति कर नाता । सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें । सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥१ दृढ़ इतना ही नहीं उसे परमाधिकारिणी समझ कर नवधा भक्ति का उपदेश भी देते हैं । रामायण की मन्थरा कैकेयी की चिरकाल से पालिता दासी है जो राम का राज्या भिषेक सुनकर स्वतः क्रोध से प्रज्ज्वलित हो उठती है और कैकेयी को ललकारती हुई प्रबुद्ध करती है - 'उत्तिष्ठ मूठे कि शेषे भयं त्वामभिवर्तते । उपप्लुतमघौघेन नात्मानमवबुध्यसे ।.......... कैकेयी को अपने व्यंग बाणों से आाविद्ध कर वाक्य विशारदा मन्थरा ने नाना प्रकार के भावी अनिष्टों के दर्शन कराकर कैकेयी को अपने वश में कर लिया, यहां तक कि कैकेयी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगी । तब मन्थरा ने योजनाएँ बनाकर नाना तर्कों के आधार पर कैकेयी को दोनों वरदान मागने के लिये विवश कर दिया । मानस की मन्थरा भी रामायण की ही मन्थरा की भाँति कार्य करती है । परन्तु अन्तर यह है कि मानस की मन्थरा में आधिदैविक तत्व का योग कर मन्थरा को भी निर्दोष सा हो सिद्ध किया है क्योकि तुलसी मन्थरा का कटु चित्रण करने के पूर्व यह कह देते हैं कि 'गई गिरा मति फेरि । इसका तात्पर्य यह है कि राम के अहित चिन्तन में इसके पूर्व उसकी बुद्धि तत्पर न थी । तुलसी के लिये यह अन्तर स्वाभाविक ही था क्योंकि वे अपने राम का विरोधी उन्हीं के परिजन की दासी को स्पष्टतः कैसे लिख देते । दूसरा कारण यह है कि राम के अवतार कारण का लक्ष्य देव दुःख निवृत्ति बतलाया गया है अतएव देवताओं को राम वनवास की प्रेरणा सरस्वती द्वारा देनी संगत ही हुई । इसके अतिरिक्त दोनों ही ग्रन्थों में मन्थरा के चित्रण में साम्य ही है । दोनों ग्रन्थों में राम के प्रति झूर्पणखा की आसक्ति वर्णित है। अन्तर केवल यह है कि रामायण की सूर्पणखा का चित्रण यथार्थ रूपेण हुआ है अतएव उसकी कामासक्ति का विवरण विस्तृत है जबकि मानसकार ने शूर्पणखा की इस उच्छृंखलता को रामायण की अपेक्षा संयत करने का ही प्रयास किया है। मानस की शूर्पणखा नीतिज्ञा भी है। रामायण की भांति रावण को युद्ध के लिये उद्वेलित तो करती ही है परन्तु उसका नीतिज्ञा रूप भी परिलक्षित है जिसमें प्रत्येक प्रकार के आदर्श वर्णित हैं। यहाँ तक कि हरि भक्ति के तत्वों की भी वह ज्ञात्री है। इस रूप चित्रण में तुलसी की मौलिकता स्पष्ट है जो शूर्पणखा जैसी अघम पात्राओं में भी गूढ़ तत्वों का ज्ञान दर्शाया है । अन्य पात्र रामायण के मुनि वर्ग तपस्वी हैं, मानस के भक्त रूप में चित्रित किये गये हैं जिसके प्रतिनिधि रामायण में अगस्त्यादि हैं, मानस में सुतीक्ष्णादि । रामायण के वानर, भालु, गीध कर्मनिष्ठ हैं जबकि मानस के ये वर्ग पूर्णतः राम परायण हैं । तुलसी ने उन्हें भी भगवान् की लीला का एक अंग बना दिया है । 'कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक विनोद । गोधराज जटायु तो सतत् 'राम चरन की रेखा' का ही स्मरण करते रहते हैं । समस्त 'चरित्र चित्रण' में दोनों कवियों की युगकालीन संस्कृति एवं लेखक का व्यक्तित्व सर्वत्र सफलरूपेण प्रतिविम्बित है । रामायण एवं मानस में विभिन्न परिस्थितियों का चित्रण 'सम्' उपसर्ग, 'कृ' धातु तथा 'क्तिन्' प्रत्यय से समन्वित शब्द 'संस्कृति' बनता है जिसका तात्पर्य है 'भूषण भूत् सम्यक् कृति' । मानव योनि मात्र ही बुद्धि प्रधान होने से सम्यक् असम्यक् के विचार में समर्थ है। अतएव जिन चेष्टाओं द्वारा मानव जीवन के समस्त क्षेत्रों में विकास प्राप्त करें उन्हीं को भूषणभूत् चेष्टाएँ कहना नितान्त संगत होगा । इन चेष्टाओं का आधार है देह, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । इनमें से प्रथम दो की चेष्टाए 'आचार' तथा अंतःकरण चतुष्टय की चेष्टाएँ 'विचार' कही जाती हैं । अतएव मानव के लौकिक एवं पारलौकिक सर्वोन्नति के अनुरूप आचार विचार ही 'संस्कृति' है । किसी देश या जाति के अभ्युदय पथ पर चलने के 'आचार विचार' के निर्देशक नीति ग्रन्थ एवं धर्म ग्रन्थ होते हैं । इस प्रकार संस्कृति का अत्यन्त व्यापक एवं विशाल क्षेत्र है जिसमें वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, कलात्मक, भाषा, वेष-भूषा, उपासना सम्बन्धी सभी दृष्टि से विचार किया जाता है । विभिन्न देश के आचार विचारानुसार विभिन्न जातियों की विभिन्न संस्कृतियाँ हैं । भारतीय संस्कृति की कुछ निजी विशेषताएं हैं जिनका दिग्दर्शन सभी धर्म ग्रन्थों में कराया गया है। रामायण तथा महाभारतादि काव्य ग्रन्थ भी आख्यानों के द्वारा भारतीय संस्कृति की झाँकी ही प्रस्तुत करते हैं । रामायण में भारतीय संस्कृति को उदाहरण रूप में देखने के पूर्व भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का अवलोकन असंगत न होगा । अनन्त श्री १००८ श्री पूज्य स्वामी जी श्री करपात्री जी के शब्दों में 'वेद एवं वेदानुसारी आर्ष धर्म ग्रन्थों के अनुकूल लौकिक पारलौकिक अभ्युदय एवं निःश्रेयसोपयोगी व्यापार ही मुख्य संस्कृति है और वही हिन्दू संस्कृति, वैदिक संस्कृति अथवा भारतीय संस्कृति है। जैसे इस्लाम संस्कृति और मुस्लिम जाति का आधार 'कुरान' हैं, है, वैसे ही वैदिक सनातन संस्कृति एवं हिन्दू जाति का आषार वेद एवं तदनुसारी आर्ष धर्म ग्रन्थ हैं।" इस सनातन संस्कृति के कुछ प्रमुख मूलाधार हैं। धर्मानुकूल शारीरिक व्यापार 'आचार' तथा आत्मा की ओर उन्मुख करने वाली बौद्धिक प्रकृति 'विचार' धर्म प्राण जाति के जीवन के प्रमुख आलम्बन हैं । 'समष्टि क्षेत्र' में सुकरता से जीवन संचालन हेतु 'वर्ण' व्यवस्था की व्यवस्था की गई है। व्यष्टि क्षेत्र में पुरुषार्थ चतुष्टय ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) को पूर्ण रूपेण प्राप्त करने के हेतु आश्रम व्य. वस्था भी पूर्ण वैज्ञानिक है । दैव जगत पर अटूट श्रद्धा एवं विश्वास करना भी जीवन की सुरक्षा एवं शान्ति की सुदृढ़ आधार है । उस अखिल ब्रह्मांड नायक ईश्वर के प्रति अटूट श्रद्धा एवं भक्ति पूज्य बुद्धि का संचार कर असत् प्रवृत्तियों की ओर से पराङ मुख करती है । ईशोपासना की योग एवं भक्ति दो प्रणालियाँ हैं । उस सर्वव्यापी प्रभु के प्रतिमा में दर्शन कर मूर्ति पूजा का विधान भी पूर्वोक्त भक्तिमार्ग पर अग्रसारित करता है। प्रशस्त पथ के पथिक जीव के लिये शुद्धाशुद्ध विवेक भी परमावश्यक है क्योकि पंच कोषों ( अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय एवं आनन्दमय ) द्वारा आच्छादित जीवात्मा इसी ज्ञान द्वारा अपने को इनके दोषों से अपने को अनावृत रख सकता है । इसी को अन्य शब्दों में कर्मकांड भी कहा जा सकता है । इसके द्वारा जीवात्मा मल, विकार, विक्षेप, आवरण एवं अस्मिता आदि दोषों से अपने को मुक्त कर सकता है । 'यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्म समुद्भवः' के अनुसार कर्म कांड का प्रमुख ध्येय यज्ञ भी है। शास्त्रों में पंच महायज्ञों का सतत् विधान है। ब्राह्मयज्ञदेवयज्ञ, पितृयज्ञ, भूतयज्ञ एवं नृयज्ञ दैनिक धर्म के प्रधान अंग हैं । धर्म ग्रन्थों ( वेद, स्मृति, तन्त्रादि ) पर अटूट श्रद्धा एवं विश्वास भी भारतीय संस्कृति का प्रधान स्तम्भ हैं । 'पुनर्जन्मवाद' का सिद्धान्त एक जन्म के लिये ही नहीं जन्मान्तरों के लिये भी सद्व्यवस्था स्थापित कर अत्यधिक वैज्ञानिक एवं व्यवस्थित रूप उपस्थित करता है । इस प्रकार इहलोक एवं परलोकार्थ, भूत, भविष्य, वर्तमान के लिये उपयुक्त त्रिकालदर्शी भारतीय संस्कृति का स्वरूप अत्यन्त सुदृढ़, सुव्यवस्थित, श्रेयस् एवं प्रेयस् का स्वर्ण सुगंध रूप प्रस्तुत करता है जिसका एक मात्र आनन्द लौकिक सुख एवं पारलौकिक आनन्द है तथा कैवल्य प्राप्ति है। जीवन्मुक्ति एवं मरण मुक्ति दोनों के लिये नितान्त उपयोगी है। इस प्रकार स्वर्गीय कवि सम्राट् पंडित अयोध्यासिंह जी उपाध्याय के शब्दों 'संस्कृति ही वह आधारशिला है, जिसके सहारे जाति, जीवन का विशाल प्रासाद, निर्मित होता है। जिस दिन वह आषार शिला स्थान च्युत होगी, उसी दिन पुष्ट से पुष्ट प्रासाद भी भहरा पड़ेगा १२ 'संस्कृति' का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक एवं विशाल है। व्यक्तिगत एवं समष्टिगत दोनों क्षेत्रों में इसकी अतिव्याप्ति है । भारतीय संस्कृति का विशिष्टतम स्थान है । है । इसकी निजी विशेषताएँ हैं जिनका उल्लेख हम निगमागम पुराणान्तर्गत पाते हैं। केवल उल्लेख ही नहीं ये ग्रन्थ हमारी भारतीय संस्कृति के आधार स्तम्भ एवं मार्ग निर्देशक भी हैं। श्री बलदेव उपाध्याय का कथन इस सम्बन्ध में नितान्त न्यायसंगत है । 'संस्कृति की आत्मा साहित्य के भीतर से अपनी मधुर झांकी सदा दिखलाया करती है। संस्कृति के बहुल प्रचार तथा प्रसार का सर्वश्रेष्ठ साधन साहित्य है ।...... साहित्य सामाजिक भावना तथा सामाजिक विचार की विशुद्ध अभिव्यक्ति होने के कारण यदि समाज का मुकुर है, तो सांस्कृतिक आचार तथा विचार के विपुल प्रचारक तथा प्रसारक होने के हेतु संस्कृति के संदेश को जनता के हृदय तक पहुँचाने के कारण साहित्य संस्कृति का प्रधान वाहन रहा है । यदि संस्कृत के काव्यों में संस्कृति अपनी अनुपम गाथा सुनाती है, तो संस्कृत के नाटकों में वह अपनी कमनीय क्रीड़ा दिखलाती है। भारतीय संस्कृति का प्राण आध्यात्मिक भावना है। त्याग से अनुप्राणित, तपस्या से पोषित तथा तपोवन में संवर्धित भारतीय संस्कृति का रमणीय आध्यात्मिक रूप संस्कृत भाषा के ग्रन्थों में अपनी सुन्दर झाँकी दिखलाता हुआ सहृदयों के हृदय को बरबस खींचता है । महर्षि वाल्मीकि तथा व्यास, काबिदास तथा भवभूति, बाण तथा दंडी पाठकों की हृदयकली को विकसित करने वाले मनोरम काव्य की रचना के कारण जितने मान्य हैं उतने ही वे भारतीय संस्कृति के विशुद्ध रूप के चित्रण करने के कारण भी आदरणीय हैं ।" संस्कृत साहित्य के तीनों कालों में भारतीय संस्कृति का दिग्दर्शन सर्वत्र दर्शनीय है । श्रुतिकाल में संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों के अन्तर्गत भारतीय संस्कृति का मूल अंकित है । स्मृति काल में रामायण, महाभारत, पुराण तथा वेदांगों के रूप में संस्कृति के विभिन्न रूप परिलक्षित होते हैं। तृतीय काल 'लौकिक संस्कृति के काल' का साहित्य भी संस्कृति से पूर्णतया अनुप्राणित है। अतएव वैदिक साहित्य यद्यपि सबसे प्राचीन धर्म ग्रन्थ है जिनमें आर्य सभ्यता एव संस्कृति तथा धर्म तत्वों का साधन प्राप्त है परन्तु उनका व्यावहारिक रूप है, वाल्मीकि रामायण में स्पष्ट रूपेण दृष्टिगत होता है । वस्तुतः यह कहना असगत न होगा कि रामायण के द्वारा हम वैदिक धर्म एवं संस्कृति के अज्ञात तथ्यों का साक्षात्कार कर सकते हैं । प्राचीन धर्म, संस्कृति एवं सभ्यता का सांगोपांग चित्रण हमें रामायण में मिलता है । वेद सूक्ष्म तत्वों का भंडार है । उनको समझने एवं मनन करने के हेतु भी व्युत्पन्न बुद्धि एवं सूक्ष्म ग्राहिणी बुद्धि की आवश्यकता है । रामायण अपेक्षाकृत इतिहास ग्रन्थ एवं आदि काव्य होने के कारण लोक ग्राह्य एवं सर्वजन सुलभ है । दुष्क्रमणीय वेद रूप पर्वत शिखर से खोदकर लाई हुई मणियो की लड़ियाँ इस आदि काव्य में पिरोई हुई हैं । जिन्हें जनसाषारण वर्ग भी भी देखकर सराहना कर अनुकरण एवं अनुसरण द्वारा ग्रहण कर सकता है । १. संस्कृत साहित्य का इतिहास पृष्ठ ३,४,५० रामायण कालीन संस्कृति का दिग्दर्शन कराने के पूर्व वेदकालीन संस्कृति का संक्षिप्त परिचय दे देना असंगत न होगा। कारण कि यह स्वाभाविक सत्य है कि कवि की रचनाए अपने समाज की प्रतिबिम्ब हुआ करती हैं। वह तत्कालीन स्थितिथों का चित्रण तो करता ही है, परन्तु इसके साथ ही साथ पूर्व कालीन साहित्य से प्रेरणा पाकर पर कालीन साहित्य को प्रेरणा व सम्बल प्रदान करता है । वेदकालीन सभ्यता एवं संस्कृति का प्रसार एवं विस्तार विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध है । साहित्यिक क्षेत्र में मंत्रदृष्टा ऋषियों ने वेद के अन्तर्गत अपार ज्ञान राशि का संग्रहीत रूप प्रस्तुत किया । विश्व के इतिहास में साहित्यिक प्रतिभा के जाज्वल्यमान रूप का यह एक अन्यतम निदर्शन था । रामायण काल में राजनैतिक जीवन का भी विकास हो चुका था । आर्यों ने राष्ट्र की कल्पना कर ली थी जिनमें राजनैतिक संस्थाएं निर्धारित हो चुकी थीं । राजा का चुनाव करना समस्त प्रजा के अधिकार में था । प्रथम बड़ी संस्था थी, द्वितीय छोटी । राज्य के कर्मचारियों में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी का विशेष स्थान था । राज्य तंत्र के साथ-साथ गण तांत्रिक शासन प्रथा का भी स्वरूप विद्यमान था जिसका उल्लेख अथर्ववेद में है। सामाजिक क्षेत्र में भी कार्य विभाजन की सुविधा का विचार रख कर विभिन्न जातियों का निर्माण हो चुका था जिनका प्रसंग 'पञ्चजनाः' तथा पञ्च कृष्टयः के रूप में विशेष आता है । आर्य से इतर वर्ग की जातियाँ 'आर्यंतर' वर्ग में कही जाती थीं। फिर आर्य जातियाँ तथा आर्येतर जानियों का मिश्रण हो गया, आर्थिक और सामाजिक जीवन के विकास के आधार पर श्रम विभाग किये गये और गुण, कर्म के अनुरूप ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जातियां बनीं । ब्राह्मण वर्ग बौद्धिक एवं धार्मिक कार्यों के लिये, क्षत्रिय राजनैतिक एवं सुरक्षा के कार्यों के लिये, वैश्य आर्थिक सम्पन्नता के लिये, तथा शूद्र तीनों वर्गों की सहायता एवं शारीरिक परिश्रम के लिये उत्तरदायी हुये। इस विभाजन का प्रारम्भिक रूप सरल और सुविधाजनक था परन्तु शनैः शनैः परस्पर सम्बन्ध एवं व्यवसाय विनिमयादि में बाधा आ गई और समाज का यह वर्ण विभाजन रुद्र रूप धारण करने लगा। इस प्रकार आर्य जातियों के विस्तार की रूप रेखा ने जब स्थिर रूप धारण कर लिया तो सामाजिक व्यवस्था भी स्थिर रूप धारण करने लगी । 1. These divisions answer to four cosmic principles, the wisdom that conceives the order and principle of thing, the power that sanctions upholds and enforces it, the Harmony that creates the arrangement of its Parts, the work that carries out what the rest direct. Next, out of this idea there developed a firm but not yet rigid social order based primarily upon temperament and psychic type with a corresponding euthical discipline and secondarily upon the social and economic functions. ( Indias culture through the Ages, by M. L. Vidyarthi, Page 71) उत्तर वैदिक काल में इन वर्गों को स्थायित्व प्राप्त हुआ और ऋग्वेदकालीन गुण कर्म पर आधारित वर्ण अब जन्म पर आधारित होने लगा । व्यावसायिक वर्ण विभाजन के स्थान पर पैतृक वर्ण निर्धारण हो गया । आर्थिक विकास के साथ-साथ इन जातियों में भी उत्तरोत्तर विकास हुआ। इस प्रकार समाज इस वर्ण व्यवस्था पर आधारित था जो कि अब जन्म पर निर्धारित होने लगी थी। इस प्रकार अनेक जातियाँ एवं उपजातिय विकासोन्मुख होकर विविध नाम गुण धारिणी हो गईं। रामायण में वर्ण व्यवस्था उत्तर वैदिक काल अथवा रामायण काल में वर्ण व्यवस्था का विकास हुआ । अन्तजातीय विवाह में कुछ नियमों के बन्धन लग गये । वर्ण परिवर्तन असम्भव हो गया । ' ब्राह्मण तथा क्षत्रिय दोनों वर्णों की प्रमुखता स्थापित हुई जिसका ज्वलन्त उदाहरण 'रामायण' है । एक ओर 'ऋषिवर्ग' दूसरी ओर 'रघुकुल' । श्री शान्ति कुमार नानूराम व्यास ने 'रामायण में हिन्दू संस्कृति' पर व्यापक प्रकाल डाला है तथा तत्कालीन सामाजिक वर्ण व्यवस्था का चित्रण किया है । 'रामायणकालीन आर्यों की सामाजिक व्यवस्था वर्णाश्रम की भिति पर अवलम्बित थी । वर्ण चार थे । वेदों का अध्ययन, व्रत, नियम का पालन, यज्ञों का अनुष्ठान तथा दान ये प्रथम तीन वर्ण द्विजों के साधारण धर्म थे ।' २ उस समय वर्ण व्यवस्था जन्म पर ही आधारित थी कर्म पर नहीं, क्योंकि रामायण मे ऐसे उदाहरण हैं जहाँ 'जन्मना ब्राह्मण' कर्मणा क्षत्रिय, वैश्य के प्रसंग भी है परन्तु उन्हें 'ब्राह्मण' ही कहा गया है। ब्राह्मणों के भी कर्मानुसार कई वर्ग मिलते है । कुछ ब्राह्मण अपने नित्य नैमित्तक कर्मों को करते हुये सदाचरण के मार्ग का अवलम्ब लेते थे उन्हे 'देव ब्राह्मण' कहा जाता था। राजा दशरथ के राज्य में उनका उल्लेख मिलता है । 'तामाग्निममिर्गुणवद्भिरावृतां द्विजोत्तमेवेंदषडङ्गपारगः सत्यरतैर्महात्मभिमंषिकल्प ऋषिभिश्च केवलंः 3 इनके अतिरिक्त कुछ विरक्त ब्राह्मण 'ऋषि वर्ग के रूप में वन में तपस्या करते हुये अपना तपस्वी जीवन व्यतीत करते थे। वे मुनि 'ब्राह्मण' कहलाते थे । महर्षि वाल्मीकि ने वन निवासी तपस्वी मुनियों का अन्य ब्राह्मणों की अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत वर्णन किया है जिससे तत्कालीन तपोनिष्ठ महात्माओं का अत्यन्त सूक्ष्म चित्रण प्राप्त होता है । 1. No one is allowed to marry out of his own caste, or to exchange one profession or trade for another, or to follow more than one business." ( Mc. Crindle Magasthenes, PP. 85-86) २. 'रामायण में हिन्दू संस्कृति पृष्ठ ३०७ ।
6049e443b1c7332db93985845cb24b6aa0780e82
web
आप जानते हैं कि यह मोतियाबिंद की तरह एक बीमारी है? कला के अनुसार, के लिए कहा रोग दबाव (intraocular) की समय-समय पर या नियमित रूप से वृद्धि हुई है, के बाद की विशेषता है ऑप्टिक तंत्रिका, का शोष दोष के दृश्य के क्षेत्र और अपनी तीव्रता में कमी का विकास। आज कई दवाओं है कि इस बीमारी का इलाज कर सकते हैं। उनमें से एक दवा भेजा "Dorzopt प्लस"। के लिए उपयोग करते हैं, एनालॉग निर्देश, धन जारी प्रपत्र नीचे उपलब्ध कराया जाएगा। किस रूप में दवा निर्मित है "Dorzopt प्लस"? उपयोग के लिए निर्देश में कहा गया है कि इस उत्पाद आंख बूंदों के रूप में निर्मित है, एक, रंगहीन पारदर्शी और थोड़ा चिपचिपा समाधान है। इस दवा पदार्थों की कार्रवाई dorzolamide हाइड्रोक्लोराइड और timolol maleate काम करते हैं। एक सहायक घटक समाधान gietillozu, साइट्रिक एसिड monohydrate, benzalkonium क्लोराइड, शुद्ध पानी, सोडियम हाइड्रोक्साइड, हाइड्रोक्लोरिक एसिड और mannitol में शामिल है के रूप में। खरीदें चला जाता है "Dorzopt प्लस", रचना जिनमें से ऊपर प्रस्तुत किया गया है, यह बहुलक flakonah- कि गत्ता बक्से में रखा जाता है में संभव है। आवेदन कैसे करें आई ड्रॉप "Dorzopt प्लस"? गाइड यह एक दो सक्रिय घटक, जिनमें से प्रत्येक उच्च दबाव (intraocular) को कम कर देता युक्त antiglaucoma एजेंट दावा करता है। यह intraocular तरल पदार्थ का स्राव को कम करने से होता है। और अधिक विस्तार में दवा के सक्रिय तत्व के गुणों पर विचार करें। Dorzolamide कार्बोनिक anhydrase के चुनिंदा अवरोध करनेवाला कहा जाता है। इस घटक intraocular द्रव स्राव कम करता है। कला के अनुसार, इस तरह के एक प्रभाव कार्बोनेट आयनों के गठन है, जो अंततः सोडियम परिवहन और intraocular तरल पदार्थ की एक धीमा करने के लिए सुराग को कम करने के कारण है। timolol का सवाल है, यह एक गैर-चयनित बीटा ब्लॉकर है। अपने ऑपरेशन के सिद्धांत अभी भी समझ नहीं है। intraocular दबाव की दवा कमी लागू करने के बाद 20 मिनट के बाद मनाया जाता है और पूरे दिन चलाने है। यह "Dorzopt प्लस" चला जाता है प्रणालीगत संचलन में अवशोषित कर लेता है? गाइड की रिपोर्ट है कि इस दवा के सक्रिय तत्व की गतिकी खासी भिन्न हो सकती। Dorzolamide कॉर्निया के माध्यम से आंख में हो जाता है। इसके प्रणालीगत अवशोषण बहुत कम है। पदार्थ रक्त में मिल गया है, तो यह जल्दी से लाल रक्त कोशिकाओं में प्रवेश। संचार dorzolamide प्लाज्मा प्रोटीन 33% है। 4 महीने के भीतर dorzolamide गुर्दे का प्रदर्शन किया। Timolol भी प्रणालीगत संचलन में अवशोषित कर लेता है। इसके प्लाज्मा एकाग्रता केवल दिन में दो बार आवेदन के लिए मनाया जाता है। कुछ मामलों में, दवा "Dorzopt प्लस" लिख? उपयोग के लिए निर्देश की रिपोर्ट है कि इस एजेंट ऊंचा intraocular दबाव है, जो जब तब होता है पर प्रयोग किया जाता हैः - pseudoexfoliation मोतियाबिंद; - खुले कोण मोतियाबिंद। चला जाता है वहाँ "Dorzopt प्लस" में मतभेद हैं या नहीं? उपयोग के लिए निर्देश कहते हैं निम्नलिखित रोकः - हृदयजनित सदमे; - स्तनपान; - ब्रोन्कियल अस्थमा; - गंभीर दिल की विफलता; - प्रतिरोधी पुरानी फेफड़ों के रोग, गंभीर; - शिरानाल मंदनाड़ी; - गर्भावस्था के दौरान; - तीसरे और दूसरे डिग्री के ए वी-ब्लॉक; - कॉर्निया में dystrophic प्रक्रियाओं; - वृक्क असफलता, गंभीर; - नाबालिग उम्र; - तत्वों के लिए अतिसंवेदनशीलता। दवा को लागू करने में बुजुर्गों में और मधुमेह के रोगियों में जिगर की बीमारी के साथ लोगों का सम्मान करना, विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए। स्थानीय दवा की समीक्षा नीचे प्रस्तुत किया जाएगा। देखा गया दवा में पैदा नेत्रश्लेष्मला थैली दिन में दो बार 1 बूंद। मोतियाबिंद के इलाज के दौरान कई स्थानीय नेत्र एजेंटों द्वारा किया जाता है, उनके टपकाना 10 मिनट के अंतराल के साथ किया जाता है। उपकरण के द्वारा उपचार की अवधि रोगी के आधार पर चिकित्सक निर्धारित किया है। आई ड्रॉप "Dorzopt प्लस", अनुदेश जो गत्ते के बने एक पैकेज में संलग्न है, अवांछित प्रतिक्रियाओं का कारण हो सकता है। dorzolamide की तैयारी में उपस्थिति के कारण दुष्प्रभाव निम्नलिखित उठताः - पानी आँखें, पलक की सूजन, flaking और जलन सदी, कबरा स्वच्छपटलशोथ, iridocyclitis, गले में जलन, क्षणिक निकट दृष्टि है, जो दवा के उन्मूलन के बाद की जाती है; - शुष्क मुँह, वाहिकाशोफ, लाल चकत्ते; - पित्ती, श्वसनी-आकर्ष, खुजली; - nosebleeds, सिर दर्द, थकान, अपसंवेदन, थकान। इस सक्रिय पदार्थ के संबंध में timolol है, वह निम्नलिखित प्रतिक्रियाओं की अभिव्यक्ति भड़कातीः - नेत्रश्लेष्मलाशोथ, ब्लेफेराइटिस, अपसंवेदन, स्वच्छपटलशोथ, कॉर्निया संवेदनशीलता, कार्डियक अतालता, अवरोधित आंख, पलकों का पक्षाघात, द्विगुणदृष्टि के अपवर्तन शक्ति में परिवर्तन की कमी हुई; - टिनिटस, सिर दर्द, सूखी आंख सिंड्रोम, स्मृति हानि, थकान, बुरे सपने, थकान, अवसाद, चक्कर आना, मायस्थेनिया के विकास के संकेत, अनिद्रा ग्रैविस; - रेनॉड सिंड्रोम, दृश्य गड़बड़ी, बेहोशी, अतालता, दिल की विफलता, रक्तचाप, सूजन में कमी आई कमी हुई पैर और हाथ तापमान; - श्वसनी-आकर्ष, सीने में दर्द, खांसी, - खालित्य, सोरायसिस के गहरा, psoriasiform दाने; - तीव्रग्राहिता, पित्ती, angioneurotic शोफ, सामान्यीकृत या स्थानीय लाल चकत्ते; - दस्त, शुष्क मुँह, अपच, - कामेच्छा, प्रणालीगत एक प्रकार का वृक्ष, Peyronie रोग की कमी हुई। क्या लक्षण होते हैं, जब दवा की अधिक मात्रा "Dorzopt प्लस"? उपयोग के लिए निर्देश इस तरह चक्कर आना, श्वसनी-आकर्ष, सिर दर्द, मंदनाड़ी, श्वास कष्ट, और दिल का दौरा के रूप में प्रतिक्रियाओं के अनुसार। इसके अलावा एसिडोसिस, इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन, थकान, अपसंवेदन और थकान विकसित कर सकते हैं। इस तरह की स्थितियों के तहत रखरखाव चिकित्सा प्रदर्शन किया। अन्य दवाओं के साथ दवा माना की बातचीत पर अनुसंधान का आयोजन नहीं किया गया है। इसलिए, संयुक्त छोटी बूंद "Dorzopt प्लस" अन्य साधनों के साथ ही डॉक्टर के साथ परामर्श के बाद किया जाना चाहिए। आँख "Dorzopt प्लस" के लिए दवा की नियुक्ति से पहले कि अपने दिल और संचार प्रणाली के रोगी पर्याप्त नियंत्रण सुनिश्चित करना चाहिए। इस ऊंचा हो गया में असामान्यताएं के साथ लोगों को विशेषज्ञों की लगातार निगरानी में होना चाहिए। देखा गया औषधि एक संरक्षक के benzalkonium क्लोराइड होता है। वह नर्म कांटैक्ट लैंसों पर व्यवस्थित और दृश्य अंग के ऊतकों पर एक हानिकारक प्रभाव हो सकता है। इसलिए, उपकरण का उपयोग कर लोगों को दृष्टि में सुधार लाने, बूंदों वे हटा दिया और स्थापित किया जाना चाहिए 20 के बाद ही मिनट दवा के टपकाना के बाद लागू करने से पहले। अत्यधिक सावधानी "Dorzopt प्लस" मधुमेह के साथ लोगों के लिए निर्धारित है। यह तथ्य यह है कि बीटा ब्लॉकर्स तीव्र हाइपोग्लाइसीमिया के लक्षणों मुखौटा के कारण है। इससे पहले की योजना बनाई सर्जरी उत्तरोत्तर दो दिन सामान्य संज्ञाहरण से पहले दवा को समाप्त करने के लिए आवश्यक है बीटा ब्लॉकर्स मांसपेशियों को ढीला के प्रभाव में वृद्धि हो सकती है। क्या जगह ले सकता है आई ड्रॉप "Dorzopt प्लस"? अपने समकक्षों "Trusopt 'और' Floksal" कर रहे हैं। हालांकि, इन निधियों का उपयोग करने के लिए अन्य प्रयोजनों के लिए केवल एक विशेषज्ञ होना चाहिए। दवा की लागत बहुत अधिक माना जाता है। फार्मेसी 400-450 रूबल के लिए खरीदा जा सकता है। धन की उपभोक्ता समीक्षा बहुत ज्यादा नहीं है। इस दवा के फायदे उच्च दक्षता और प्रभावशीलता, और पहुंच (किसी भी फार्मेसी में लगभग बेचा) शामिल हैं। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि "Dorzopt प्लस" बूँदें पाए जाते हैं और रोगियों से नकारात्मक प्रतिक्रिया। उनमें से कई की शिकायत है कि स्थानीय निधियों के उपयोग के बाद अक्सर स्थानीय या प्रणालीगत प्रतिकूल प्रतिक्रिया का विकास। इसलिए, विशेषज्ञों अकेले कहा दवा के प्रयोग की सलाह नहीं देते। सबसे अच्छा उपचारात्मक परिणाम यह केवल एक अनुभवी चिकित्सक विचार किया जाना चाहिए प्राप्त करने के लिए। सिर्फ अगर विकास के ठीक से चयनित स्कीमा चिकित्सा दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है।
13da47de67eab6a427aebccac2f7977f732a05aa
web
नमस्कार मित्रो आज हम आपको अपने पति को कैसे सुधारे इसके बारे में बताने वाले है अक्सर कई महिलाये अपने पति की गलत आदतों से काफी ज्यादा नाराज होती है और वो उन्हें सुधारने का प्रयास करती है पर सही जानकारी पता न होने के कारण महिलाये अपने पति को सुधार नहीं आती अगर आप सही तरीके को अपनाते है तो इसके बाद आप मात्र 1 दिन में अपने पति को सुधार सकती है. अपने पति को सुधारने के लिए सबसे पहले तो आपको अपने पति की कुछ आदते पता होनी आवश्यक है इससे पति को सुधारना आपके लिए काफी ज्यादा आसान हो जायेगा इसके साथ ही आपको अपने पति के सामने कुछ अलग अंदाज से पेश आना चाहिए इससे आपका पति बहुत ही जल्दी सुधरने लग लग जायेगा अगर आप इसके बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करना चाहती है तो इस आर्टिकल को ध्यान से पढ़े. - Actor Kaise Bane - बॉलीवुड फिल्म या टीवी सीरियल में एक्टर कैसे बनते हैं? - Lakhpati Kaise Bane - मात्र 1 दिन में घर बैठे लखपति कैसे बने? एक महिला चाहे तो अपने परिवार के किसी भी सदस्य को बहुत ही आसानी से सुधार सकती है फिर चाहे वो उसका पति ही क्यों न हो अगर आप अपने पति को सही तरीके से सुधारने का प्रयास करती है तो इससे आपका पति आपसे काफी ज्यादा डरने लग जायेगा इसके बाद वो ऐसा काम कभी भी नहीं करेगा जो आपको पसंद नहीं है एवं यह डर आपके पति के मन में हमेशा इसी तरह से बना रहता है इससे आपका पति भविष्य में किसी भी प्रकार की गलती करने से बचा रहेगा. अक्सर ज्यादातर मामलो में देखा होता है की किसी भी व्यक्ति की गलत दोस्तों के साथ संगत हिने से उसकी आदते काफी जल्दी बिगड़ने लग जाती है और वो कई तरह के गलत काम करना शुरू कर देता है ऐसे में उस व्यक्ति के परिवार वालो को काफी ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है अगर आप इस तरह की गन्दी आदतों से अपने पति को बचाना चाहती है तो सबसे पहले तो आपको अपने पति के दोस्तों के बारे में जानना होगा की कौनसा दोस्त अच्छा है और कौनसा दोस्त ख़राब है. इसके बाद आपके पति के जितने भी दोस्त ऐसे है जो आपके पति की आदत को बिगाड़ने का प्रयास कर रहे है उन सभी दोस्तों से आपके पति को दूर रहने के लिए कहना है एवं आप चाहे तो इस तरह के दोस्तों से अपने पति को दूर रखने के लिए अन्य कोई तरीका भी अपना सकती है अगर आप किसी भी तरह से अपने पति को बुरे दोस्तों की संगत छुडवा देती है तो आपका पति बहुत ही जल्दी पहले जैसा होने लग जायेगा और उसकी आदतों में काफी ज्यादा सुधार होने लगेगा. अक्सर कई मामलो में देखा जाता है की कोई व्यक्ति दूसरी महिलाओ के संपर्क में आने से बिगड़ने लग जाता है और अपने घर परिवार में इतना ध्यान नही दे पाता अगर आप भी इस तरह की परेशानी से पीड़ित है तो ऐसे में आपको बहुत ही सावधानीपूर्वक और बहुत ही सोच समझकर किसी भी बात का निर्णय लेना चाहिए नही तो छोटी गलती भी आपको बहुत ही गंभीर परिणाम दिखा सकती है. अगर आपका पति दूसरी महिला के चक्कर में है तो सबसे पहले तो आप अपने पति को प्यार से समझाए और उसके मन की भावनाओं को जाग्रत करे की उसकी वजह से आपको और आपके बच्चो को कितनी ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है और आने वाले समय में आपका जीवन किस प्रकार का हो सकता है इस तरह की बाते करने से आपका पति काफी जल्दी इमोशनल हो जायेगा और बहुत ही जल्दी वो सुधरने लग जायेगा. अक्सर एक मिडल क्लास आदमी को कई तरह की परेशानियाँ होती है जिसके कारण कई बार लोग काफी ज्यादा तनाव में आ जाते है अगर आपका पति किसी भी प्रकार के तनाव में है तो उसके ऊपर गुस्सा होने की बजाये आपको ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए और अपने पति को समझाने का प्रयास करना चाहिए इससे आपके पति को हिम्मत मिलेगी है और उसका तनाव भी बहुत ही जल्दी कम होने लग जायेगा. जब भी आप अपने पति को परेशान देखती है या तनाव में देखती है तो ऐसे में आप अपने पति को शांति से समझाने का प्रयास करे की उसकी जो भी तकलीफे है वो बहुत ही जल्दी दूर हो जाएगी और आने वाला समय आप दोनों के लिए काफी ज्यादा बेहतर होगा इस तरह से अगर आप अपने पति का हौसला बढ़ाती है तो आपका पति किसी भी गलत राह पर नहीं जायेगा और हमेशा मन लगाकर काम करने का प्रयास करेगा ताकि उसकी परेशानियाँ जल्दी दूर हो सके. कई बार महिलाओ को इस तरह की परेशानी होती है की उनका पति आमदनी से कई ज्यादा पैसा हर महीने खर्च कर देता है जिसके कारण उन्हें अपना घर चलाने में काफी ज्यादा परेशानी होती है अगर आपको भी इस तरह की समस्या है तो ऐसे में आपको अपने पति को समझाना चाहिए की वो फालतू में अपने पैसो को खर्च न करे एवं अपने पैसो की बचत करें. इसके साथ ही आप अपने पति को यह भी बताये की उसके द्वारा इतना ज्यादा खर्च करने के कारण आप किस स्थिति में अपना गुजारा करते है एवं इसके कारण आपको और आपके बच्चो को कौन कौनसी परेशानी का सामना करना पड़ता है अगर आप यह सभी चीजे अपने पति को बताएगी तो शायद आपका पति फालतू में पैसे खर्च करना बंद कर देगा. किसी भी व्यक्ति को बदलने के लिए उसे भरपूर प्यार देना बेहद ही आवश्यक है अगर आप अपने पति को खूब सारा प्यार करती है तो आपका पति आपको काफी ज्यादा पसंद करने लग जाता है और आपकी बहुत ही ज्यादा केयर करने लग जाता है इसके बाद आपका पति हर एक गलत राह को छोड़कर आपको खुश रखने का प्रयास करेगा इसलिए आप चाहे तो इस तरीके को अपनाकर भी अपने पति को सुधार सकती है. ध्यान रखे की आप अपने पति को प्यार के साथ जितना हो सके उतना रोमांटिक फ़ील जरुर करवाए क्युकी जब आपका पति काफी ज्यादा रोमांस में होगा तो उस वक्त वो आपके बिना बिल्कुल भी नहीं रह पायेगा ऐसे में आप धीरे धीरे अपने पति को सुधार पायेगी और हर एक बुरी आदत से अपने पति को बचा पायेगी. कई ऐसा होता है की महिला अपने काम काज में इतनी ज्यादा व्यस्त हो जाती है की वो अपने पति के ऊपर ध्यान ही नहीं दे पाती ऐसे में उसके पति को लगने लगता है की आप उसके साथ दूरियाँ बढ़ा रही है जिसके कारण वो बुरी आदतों का शिकार हो सकता है ऐसे में आपको यह गलती करने से बचना चाहिए और जितना हो सके उतना ज्यादा से ज्यादा समय अपने पति को देने का प्रयास करना चाहिए. जब आप अपने पति को समय देना शुरू कर देती है तो इसके बाद आप दोनों के बिच प्यार बढ़ने लगेगा और आप दोनों भुत ही हंसी ख़ुशी से एकसाथ रहने लगोगे इसके बाद आप देखेगे की आपका पति बहुत ही जल्दी बदलने लग जायेगा और आपके पति की जो भी गन्दी आदते है उसे जल्दी ही आपका पति छोड़ने लग जायेगा. अगर आप छोटी छोटी बातो पर अपने पति के साथ लड़ाई झगड़े करना शुरू कर देती है तो इसके कारण भी आपका पति बिगड़ने लग जाता है क्युकी किसी भी व्यक्ति को यह बिल्कुल भी पसंद नहीं होता की उसकी पति बार बार उसके साथ लड़ाई झगड़े करे ऐसे में वो दूसरी औरतो की तरफ आकर्षित होने लगता है और बुरी आदतों की तरफ बढ़ने लगता है. अगर आप अपने पति के साथ किसी भी प्रकार के लड़ाई झगड़े नहीं करती तो इससे आपका पति हमेशा आपको प्यार करता रहेगा और आपको काफी ज्यादा सम्मान भी देता रहेगा इसके साथ ही आपका पति कभी भी बुरी आदतों की तरफ नहीं जायेगा इससे आप दोनों का रिश्ता हमेशा बहुत ही अच्छा बना रहेगा इसलिए अपने पति के साथ लड़ाई झगडा करने से बचे रहे. जब आपका पति बिगड़ने लगता है तो इसके बाद उसे वापिस सुधारने के लिए आप उसे प्यार से समझाना शुरू कर सकती है आप अपने पति को जितने ज्यादा प्यार से समझाएगी उतनी ही आसानी से आपका पति दुबारा से सुधारने लग जायेगा इसके लिए आप अपने पति के पास बैठकर बुरी आदतों से होने वाले नुकसान के बारे में बताये और हर एक बुरी आदत को छोड़ने के लिए आग्रह करे इससे आपका पति जल्दी ही बुरी आदतों को छोड़ सकता है. अगर लाख कोशिश करने के बाद भी आपका पति सुधर नहीं रहा है तो ऐसे में आप अपने पति के साथ बातचीत करना बंद कर सकती है अक्सर कोई भी व्यक्ति नही चाहेगा की उसकी पत्नी उसके साथ बातचीत करना बंद कर दे अगर आप अपने पति से बोलचाल बंद कर देती है तो इसके बाद आपका पति अपनी गलतियों को जानने का प्रयास करेगा की आखिर किस कारण से आप उसके साथ बातचीत नही कर रही है. इसके बाद आपका पति अपनी हर एक बुरी आदत को छोड़ने का प्रयास करेगा ताकि आप पहले की तरह अपने पति को प्यार करने लग जाये और उसके साथ बातचीत करना शुरू कर दे इससे आपका पति बहुत ही जल्दी सुधरने लग जायेगा और दुबारा कभी भी बुरी आदतों को नहीं अपनाएगा. यह कुछ खास तरीके है जिन्हें अपनाकर आप अपने पति को बहुत ही आसानी से सुधार सकती है अक्सर यह तरीके काफी ज्यादा कारगर साबित होते है अगर आप इन तरीको को अपनाती है तो इसके बाद आपको बहुत ही अच्छा परिणाम देखने के लिए मिल सकता है एवं अगर आप इससे जुडा किसी भी तरह का सवाल पूछना चाहे तो आप हमे कमेंट करके भी बता सकते है. The post पति को कैसे सुधारें - मात्र 1 दिन में पति को सुधारने का सबसे बेहतरीन तरीका appeared first on PMO योजना.
6fe7369a7aa85e4d535a521949c82c609f49641f
web
Ubuntu के संस्करणः एक सिंहावलोकन, सुविधाओं, विचारों और समीक्षा। कैसे Ubuntu के संस्करण पता करने के लिए? मूल निर्माता - उबंटू विज्ञप्ति लिमिटेड से हर छह महीने में पाए जाते हैं। नाम के अलावा "Ubuntu", के प्रत्येक नए संस्करण, अपने सीरियल नंबर के रूप में साल और रिहाई के महीने का उपयोग कर। खोल की पहली रिलीज, उदाहरण के लिए, Ubuntu 4. 10 कहा जाता है और 20 अक्टूबर, 2004 को जारी किया गया था। नतीजतन, भावी संस्करणों के लिए संख्या अनंतिम कर रहे हैं; यदि रिहाई की योजना बनाई के संबंध में अन्य महीनों (या वर्षों) तक देरी हो रही है, वितरण संख्या के हिसाब से बदल जाएगा। कैसे रिलीज करता है? हर चौथे संस्करण प्रत्येक सम-संख्यांकित साल की दूसरी तिमाही में बाहर आ रहा, लंबी अवधि के समर्थन के साथ एक वितरण के रूप में कार्य करता है। इसका मतलब है कि इन विज्ञप्ति ओएस विकसित और पांच साल के लिए अपडेट प्राप्त और विहित लिमिटेड से तकनीकी सहायता राशि ये उबंटू 6. 06, 8. 04, 10. 04, 12. 04, 14. 04 और 16. 04 के संस्करण शामिल हैं। हालांकि, वितरण कि करने के लिए जारी किए गए थे के सभी "Ubuntu 12. 04? " केवल केवल तीन साल के लिए समर्थन किया। अन्य संस्करणों 13. 04 आमतौर पर 18 महीने के लिए बनाए रखा पहले जारी किए गए, और आमतौर पर अगले "लंबे समय से खेल" वितरण से पहले पुराना हो चुका गिर नहीं है। यही कारण है कि बदल गया है, तथापि, के बाद से Ubuntu13. 04 - समर्थन अवधि 9 महीने के लिए, आधे से कम हो गया है। उबंटू का कौन सा संस्करण नवीनतम है? तिथि करने के लिए, इस ओएस की नवीनतम रिलीज उबंटू 16. 04 LTS Xenial Xerus है। अक्टूबर 21, 2015 डेवलपर्स ने घोषणा की कि उबंटू 16. 04 LTS XenialXerus, या बुलाया जाएगा 'दोस्ताना जमीन गिलहरी। " यह बाहर शैल अप्रैल 21 पर 2016 और तुरंत विशेषज्ञों द्वारा सराहना की गई। आप इसे वर्णन कैसे करेंगे? डिफ़ॉल्ट डेस्कटॉप वातावरण ही रहते हैं करने के लिए जारी - संस्करण 8 जारी करने के लिए उन्नत करने के लिए विकल्प के साथ, एकता 7 cephalometric और ZFS-फाइल सिस्टम, ओपनस्टैक के लिए LXD-हाइपरविजर (Seccomp का प्रयोग करके), और साथ ही समर्थन तेज़ संकुल के लिए समर्थन जोड़ता। इसके अलावा, ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए एक प्रणाली प्रारंभ के रूप में systemd बजाय कल का नवाब उपयोग करता है। यह रिलीज सूक्ति सॉफ्टवेयर सॉफ्टवेयर के साथ Ubuntu सॉफ्टवेयर केंद्र बदल दिया है, साथ ही आईएसओ फ़ाइल का नुकसान को खत्म करने। विशेषज्ञों की टिप्पणियों से इस प्रकार के रूप में, Ubuntu सॉफ्टवेयर केंद्र एक बहुत लंबे समय के लिए एक बुरा साधन था। वर्तमान अद्यतन बहुत प्रत्येक उपयोगकर्ता के लिए "Ubuntu" सुधार हुआ है। इसके अलावा ध्यान देने योग्य है कि उबंटू 16. 04 LTS AMD / ATI ग्राफिक्स कार्ड के लिए एएमडी उत्प्रेरक (नया कर्नेल) ड्राइवर का समर्थन नहीं करता है, और बदले Radeon amdgpu मुफ्त सॉफ्टवेयर की सिफारिश की। हालांकि, वे इष्टतम ग्राफिक्स प्रदर्शन प्रदान नहीं कर सकते। 16. 04. 1 - - के उबंटू इस संस्करण की पहली रिलीज 21 जुलाई, वर्ष 2016 के साथ सभी उपयोगकर्ताओं के लिए उपलब्ध हो जाएगा। अप्रैल 21, वर्ष 2016 में यह घोषणा की गई कि उबंटू 16. 10 Yakkety याक बुलाया जाएगा, और संस्करण अक्टूबर 20, वर्ष 2016 में जारी किया जाएगा। यह रिलीज एकता 7 शामिल होंगे, लेकिन संस्करण 8 के एक विकल्प, आईएसओ संस्करण में शामिल उपयोगकर्ताओं को अपने स्वयं परिभाषित करने के लिए अनुमति देने के लिए की पेशकश करेगा। अन्य की घोषणा की सुधार एक नए के लिए जो तेजी से डाउनलोड, (एक जीयूआई के बिना केवल अनुप्रयोगों के लिए) स्थापना कमांड लाइन के लिए बेहतर समर्थन का समर्थन करेंगे सॉफ्टवेयर उबंटू सॉफ्टवेयर के संस्करण,, समर्थन शामिल फ़ॉन्ट की स्थापना और मल्टीमीडिया कोडेक, साथ ही भुगतान किया अनुप्रयोगों के सुधार को बढ़ावा देने के। मैं अपने डिवाइस पर Ubuntu संस्करण कैसे जानते हो? कभी कभी उन वास्तव में अपने डिवाइस पर चल रहा उबंटू का कौन सा संस्करण भूल जाते हैं। पता लगाने के लिए यह बहुत नहीं ले करता है। निदा वर्णित किया जाएगा कैसे कमांड लाइन और ग्राफिकल यूजर इंटरफेस से यह करने के लिए। इस विधि कोई फर्क नहीं पड़ता और ओएस के संस्करण क्या डेस्कटॉप वातावरण आप उबंटू लिनक्स में काम काम करेंगे। उसी तरह से एक चेक द्वारा रूसी संस्करण। सबसे पहले, एक टर्मिनल खोलें। आप एकता या अन्य का उपयोग करते हैं ग्राफिकल यूजर इंटरफेस, आप LaunchPad में टर्मिनल नामक एक एप्लिकेशन पा सकते हैं। lsb_release -एकः एक बार जब आप एक कमांड प्रॉम्प्ट खोलें, वहाँ एक साधारण आदेश है कि आप "Ubuntu" . इस आदेश इस प्रकार है के अपने संस्करण को खोजने के लिए उपयोग कर सकते हैं। उसके बाद, लाइन आपके ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में जानकारी प्रदर्शित करेगा, वितरण कक्ष शामिल है। आप एकता का उपयोग कर रहे हैं, तो कार्य बहुत सरल है। शुरू करने के लिए करने के लिए डेस्कटॉप, जो एकता के मुख्य मेनू में स्थित है से "सिस्टम प्राथमिकताएं" जाओ। तुम भी, LaunchPad एकता में करने के लिए "सिस्टम सेटिंग" जा सकते हैं यह आप के लिए आसान है। कैसे इस तरह से संस्करण उबंटू जाँच करने के लिए? सिस्टम सेटिंग मेनू जीयूआई से सीधे कमांड लाइन से कई कार्य करने के लिए एक आसान तरीका है। उपयोगकर्ताओं को शामिल करना अद्यतन, समय परिवर्तन, और इतने पर स्थापित करने के लिए - यह सब मेनू से किया जा सकता है। के अंतर्गत स्थित "अधिक" टैब पर क्लिक करें "सिस्टम वरीयताएँ। " तो अगर आप "Ubuntu" आप उपयोग कर रहे के संस्करण के बारे में सभी जानकारी प्रदर्शित करेगा। यह एक महान जगह न केवल ऑपरेटिंग सिस्टम की संख्या के बारे में जानकारी देखने के लिए है, लेकिन यह भी पता लगाने के लिए कितनी स्मृति डिवाइस पर उपलब्ध है, अपने CPU प्रकार (CPU) और GPU (ग्राफिक्स), और साथ ही हार्ड डिस्क की कुल क्षमता क्या है। हालांकि, अगर आप अपने लिनक्स Ubuntu संस्करण का पूरा नंबर की आवश्यकता (उदाहरण के लिए, «14. 04. 3 LTS», और न सिर्फ «14. 04 LTS»), आप कमांड लाइन में उपर्युक्त विधि का उपयोग करने की आवश्यकता होगी। ग्राफिकल इंटरफेस आपकी मदद नहीं कर सकते हैं। अद्यतन करने के लिए कैसे अगले संस्करण के लिए "Ubuntu" अधिकांश लोगों को वर्तमान दिन ओएस में है कि उनके उपकरणों को अद्यतन किया है रुचि और प्रासंगिक हैं। कैसे Ubuntu के उन्नयन संस्करण करता है? सबसे पहले आप याद रखना चाहिए कि प्रमुख ऑपरेटिंग सिस्टम के रिलीज के साथ जुड़े किसी भी अपग्रेड, असफलता, डेटा हानि या बिगड़ा सॉफ्टवेयर विन्यास का खतरा रहता है। एकीकृत बैकअप और व्यापक परीक्षण अत्यधिक किसी भी मामले में सिफारिश की है, भले ही आप एक उन्नत उपयोगकर्ता हैं। दिए गए ट्यूटोरियल नीचे है कि आपके डिवाइस उबंटू 15. 10 पर चल रहा है, प्रशासनिक कार्यों के लिए Sudo-विशेषाधिकारों के साथ विन्यस्त हो जाती है। कई प्रणालियों तुरंत बिना किसी कठिनाई के अद्यतन किया जा सकता है, सुरक्षित समाधान, बूट फ़ाइल, नए संस्करण के लिए जाना खरोंच से यह स्थापित करने और सावधानीपूर्वक परीक्षण और एक अलग चरण में आवेदन डेटा के आयात के साथ सेवा को कॉन्फ़िगर करना होगा। क्या आप अपग्रेड करने से पहले पता करने की जरूरत? कि पुस्तकालयों, भाषाओं और सिस्टम सेवाओं में काफी बदल सकता है ध्यान में रखें। उबंटू 16. 04 में पिछले LTS रिलीज के साथ तुलना में महत्वपूर्ण परिवर्तन है, जो एक प्रारंभ बजाय कल का नवाब systemd प्रणाली के लिए संक्रमण शामिल हैं, और अजगर 3 और 7 के बजाय पीएचपी PHP 5 के लिए समर्थन पर जोर देने के। किसी भी प्रणाली में एक प्रमुख उन्नयन के लिए आगे बढ़ने से पहले, आप सुनिश्चित करें कि डेटा खोने के लिए अद्यतन गलत हो जाता है, तो नहीं होना चाहिए। सबसे अच्छा तरीका है इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए - पूरी फाइल सिस्टम का एक बैकअप बनाने के लिए। डिजिटल महासागर बूंद का उपयोग करके आप सबसे सरल दृष्टिकोण का उपयोग कर सकते हैं - प्रणाली बंद करने और उसे देखने के लिए बनाते हैं। इससे पहले कि आप रिहाई अद्यतन करते हैं, सबसे सुरक्षित बात वर्तमान संस्करण के लिए सभी संकुल के नवीनतम संस्करण स्थापित करने के लिए है। सर्विस पैक्स की एक सूची से शुरू करेंः Sudo अद्यतन apt-get। आप अपडेट की एक सूची है कि बनाया जा सकता है दिखाया जाएगा। का चयन करें "हाँ" और Enter दबाएं। इस प्रक्रिया में कुछ समय लग सकता है। इसके पूरा होने पर, जिला-अपग्रेड, जो आवश्यकतानुसार परिवर्तन, इसके अलावा या नए संकुल को हटाने के विन्यास से संबंधित अद्यतन प्रदर्शन करेंगे का उपयोग करें। सभी प्रणाली प्रश्नों उत्तर "हां" और प्रक्रिया पूर्ण होने तक प्रतीक्षा करें। अब जब कि तुम उबंटू 15. 10 के लिए नवीनतम अद्यतन है, तो आप versiyu16. 04 पर ओएस जगह ले सकता है। "Ubuntu" अपडेट के लिए डाउनलोड उपकरण। sudo apt-get अद्यतनः ऐसा करने के लिए, निम्न आदेश चला। परंपरागत रूप से डेबियन विज्ञप्ति अपार्ट /etc/apt/sources. list बदल रहा है, जो पैकेज खजाने को परिभाषित करता है के द्वारा विस्तार की संभावना दिए गए थे। उबंटू अभी भी, डेबियन के सिद्धांतों पर काम कर रहा है तो प्रक्रिया की संभावना अभी भी बिना किसी कठिनाई के लिए काम करेंगे। इसके बजाय, तथापि, यह वांछनीय "Ubuntu" परियोजना है, जो सभी चेक प्रक्रियाओं के लिए नए संस्करण अद्यतन sources. list प्रदान करता है, और भी अन्य कार्य करता है द्वारा प्रदान की उपकरण का उपयोग करने के लिए है। यह आधिकारिक तौर पर सर्वर एक दूरस्थ कनेक्शन पर निष्पादित करने के लिए अद्यतन करने के लिए जिस तरह से सिफारिश की है। किसी भी विकल्प के बिना अद्यतन चलाकर शुरूः sudo apt-get जिले से अपग्रेड किया गया। आप SSH के माध्यम से आपके सिस्टम से जुड़े हैं, तो आप यदि आप जारी रखना चाहते हैं के लिए कहा जाता (सबसे अधिक संभावना है, तो आप एक डिजिटल महासागर बूंद है)। कमांड प्रॉम्प्ट पर, टाइप करें Y और प्रेस जारी रखने के लिए दर्ज करें। इसके बाद, आप को सतर्क कर दिया जा सकता है कि प्रवेश दर्पण पाया गया है। डिजिटल महासागर प्रणाली पर, आप सुरक्षित रूप से इस चेतावनी को अनदेखा और उन्नयन के लिए जारी के रूप में 16. 04 की एक स्थानीय दर्पण वास्तव में उपलब्ध है सकते हैं। आप "पूछना होगा आप 'sources. list' फ़ाइल 'अधिलेखित करने के लिए करना चाहते हैं? आप "हाँ" का चयन करते हैं, वहाँ ऑपरेटिंग सिस्टम की एक पूरी अद्यतन किया जाएगा। यदि आप "नहीं" अद्यतन रद्द कर दिया जाएगा। बाद नए पैकेज सूचियों डाउनलोड किया है और परिवर्तनों का परीक्षण कर रहे हैं, तो आप अपडेट प्रारंभ करने के लिए कहा जाएगा। प्रेस वाई, तो जारी रखने के लिए। एक अद्यतन स्थापित कर रहा है कई घंटे लग सकते हैं। डाउनलोड की प्रक्रिया के बाद रद्द नहीं किया जा सकता है। नए पैकेज आपके इंस्टॉलेशन पूरा हो जाने के बाद, आप अगर आप अप्रचलित पैकेज निकालना के लिए तैयार हैं कहा जाता है। उपयोगकर्ता विन्यास के बिना आदेश प्रॉम्प्ट पर, इस प्रक्रिया सुरक्षित होना चाहिए। "हाँ" पर क्लिक करें। आप एक बड़ी हद तक अपने पूरे सिस्टम को अपडेट, तो आप पैकेज कि निकाल दिया जाएगा की सूची की जांच करने के लिए घ डाल सकते हैं। अंत में, यदि सब कुछ ठीक है, तुम में सूचित किया जाएगा अपडेट पूरा होने और एक रिबूट की आवश्यकता है कि। जारी रखने के लिए वाई दर्ज करें। कंप्यूटर के लिए प्रतीक्षा करें फिर से बूट और फिर से कनेक्ट करने के लिए। जब प्रणाली जूते, आप देखना चाहिए संदेश इस बात की पुष्टि है कि आप Xenial Xerus Ubuntu (समर्थन के साथ स्थिर संस्करण) के लिए ले जाया जा रहा है। अब आप उबंटू 16. 04 की एक काम स्थापना स्थापित करने के लिए की जरूरत है। शायद, आप आवश्यक विन्यास बदलाव और तैनात अनुप्रयोगों सेवाओं का पता लगाने करना होगा।
dd673f048d4c7b4b54436f1c8df77a58b7095cae
web
हिरन द्वारा हिरणी की मद की परीक्षा अधिकांश स्तनपोषी मादाओं में एक निश्चित अवधि के बाद बार-बार शारीरिक परिवर्तन (physiologic changes) होते हैं जो उनमें जनन हार्मोनों द्वारा उत्पन्न होते हैं। इसे जनसामान्य की भाषा में पशु का 'गरम होना' (heating) कहा जाता है। और इस चक्र मद चक्र (estrous cycle) कहते हैं। मद चक्र लैंगिक रूप से वयस्क (sexually mature) मादाओं में चलता रहता है जब तक वे गर्भ धारण न कर लें। यह चक्र प्रायः मृत्यु तक जारी रहता है। कुछ जानवरों की मादाओं की योनि से खून मिला हुआ पदार्थ भी निकलता है जिसको लोग गलती से 'मासिक धर्म' समझ बैठते हैं। . 9 संबंधोंः पीयूष ग्रन्थि, बकरी, भेड़, मस्तिष्क, मासिक धर्म, योनि, हार्मोन, गाय, कृत्रिम गर्भाधान। पीयूष ग्रन्थि या पीयूषिका, एक अंतःस्रावी ग्रंथि है जिसका आकार एक मटर के दाने जैसा होता है और वजन 0.5 ग्राम (0.02 आउन्स) होता है। यह मस्तिष्क के तल पर हाइपोथैलेमस (अध;श्चेतक) के निचले हिस्से से निकला हुआ उभार है और यह एक छोटे अस्थिमय गुहा (पर्याणिका) में दृढ़तानिका-रज्जु (diaphragma sellae) से ढंका हुआ होता है। पीयूषिका खात, जिसमें पीयूषिका ग्रंथि रहता है, वह मस्तिष्क के आधार में कपालीय खात में जतुकास्थी में स्थित रहता है। इसे एक मास्टर ग्रंथि माना जाता है। पीयूषिका ग्रंथि हार्मोन का स्राव करने वाले समस्थिति का विनियमन करता है, जिसमें अन्य अंतःस्रावी ग्रंथियों को उत्तेजित करने वाले ट्रॉपिक हार्मोन शामिल होते हैं। कार्यात्मक रूप से यह हाइपोथैलेमस से माध्यिक उभार द्वारा जुड़ा हुआ होता है। . बकरी और उसके बच्चे बकरी एक पालतू पशु है, जिसे दूध तथा मांस के लिये पाला जाता है। इसके अतिरिक्त इससे रेशा, चर्म, खाद एवं बाल प्राप्त होता है। विश्व में बकरियाँ पालतू व जंगली रूप में पाई जाती हैं और अनुमान है कि विश्वभर की पालतू बकरियाँ दक्षिणपश्चिमी एशिया व पूर्वी यूरोप की जंगली बकरी की एक वंशज उपजाति है। मानवों ने वरणात्मक प्रजनन से बकरियों को स्थान और प्रयोग के अनुसार अलग-अलग नस्लों में बना दिया गया है और आज दुनिया में लगभग ३०० नस्लें पाई जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के अनुसार सन् २०११ में दुनिया-भर में ९२.४ करोड़ से अधिक बकरियाँ थीं। . भेड़ अर्जेंटीना में भेड़ों के झुंड भेड़ एक प्रकार का पालतू पशु है। इसे मांस, ऊन और दूध के लिए पाला जाता है। . मानव मस्तिष्क मस्तिष्क जन्तुओं के केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र का नियंत्रण केन्द्र है। यह उनके आचरणों का नियमन एंव नियंत्रण करता है। स्तनधारी प्राणियों में मस्तिष्क सिर में स्थित होता है तथा खोपड़ी द्वारा सुरक्षित रहता है। यह मुख्य ज्ञानेन्द्रियों, आँख, नाक, जीभ और कान से जुड़ा हुआ, उनके करीब ही स्थित होता है। मस्तिष्क सभी रीढ़धारी प्राणियों में होता है परंतु अमेरूदण्डी प्राणियों में यह केन्द्रीय मस्तिष्क या स्वतंत्र गैंगलिया के रूप में होता है। कुछ जीवों जैसे निडारिया एंव तारा मछली में यह केन्द्रीभूत न होकर शरीर में यत्र तत्र फैला रहता है, जबकि कुछ प्राणियों जैसे स्पंज में तो मस्तिष्क होता ही नही है। उच्च श्रेणी के प्राणियों जैसे मानव में मस्तिष्क अत्यंत जटिल होते हैं। मानव मस्तिष्क में लगभग १ अरब (१,००,००,००,०००) तंत्रिका कोशिकाएं होती है, जिनमें से प्रत्येक अन्य तंत्रिका कोशिकाओं से १० हजार (१०,०००) से भी अधिक संयोग स्थापित करती हैं। मस्तिष्क सबसे जटिल अंग है। मस्तिष्क के द्वारा शरीर के विभिन्न अंगो के कार्यों का नियंत्रण एवं नियमन होता है। अतः मस्तिष्क को शरीर का मालिक अंग कहते हैं। इसका मुख्य कार्य ज्ञान, बुद्धि, तर्कशक्ति, स्मरण, विचार निर्णय, व्यक्तित्व आदि का नियंत्रण एवं नियमन करना है। तंत्रिका विज्ञान का क्षेत्र पूरे विश्व में बहुत तेजी से विकसित हो रहा है। बडे-बड़े तंत्रिकीय रोगों से निपटने के लिए आण्विक, कोशिकीय, आनुवंशिक एवं व्यवहारिक स्तरों पर मस्तिष्क की क्रिया के संदर्भ में समग्र क्षेत्र पर विचार करने की आवश्यकता को पूरी तरह महसूस किया गया है। एक नये अध्ययन में निष्कर्ष निकाला गया है कि मस्तिष्क के आकार से व्यक्तित्व की झलक मिल सकती है। वास्तव में बच्चों का जन्म एक अलग व्यक्तित्व के रूप में होता है और जैसे जैसे उनके मस्तिष्क का विकास होता है उसके अनुरुप उनका व्यक्तित्व भी तैयार होता है। मस्तिष्क (Brain), खोपड़ी (Skull) में स्थित है। यह चेतना (consciousness) और स्मृति (memory) का स्थान है। सभी ज्ञानेंद्रियों - नेत्र, कर्ण, नासा, जिह्रा तथा त्वचा - से आवेग यहीं पर आते हैं, जिनको समझना अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना मस्तिष्क का काम्र है। पेशियों के संकुचन से गति करवाने के लिये आवेगों को तंत्रिकासूत्रों द्वारा भेजने तथा उन क्रियाओं का नियमन करने के मुख्य केंद्र मस्तिष्क में हैं, यद्यपि ये क्रियाएँ मेरूरज्जु में स्थित भिन्न केन्द्रो से होती रहती हैं। अनुभव से प्राप्त हुए ज्ञान को सग्रह करने, विचारने तथा विचार करके निष्कर्ष निकालने का काम भी इसी अंग का है। . माहवारी (पीरियड्स) का चक्र 10 से 15 साल की आयु की लड़की के अंडाशय हर महीने एक विकसित डिम्ब (अण्डा) उत्पन्न करना शुरू कर देते हैं। वह अण्डा अण्डवाहिका नली (फैलोपियन ट्यूव) के द्वारा नीचे जाता है जो कि अंडाशय को गर्भाशय से जोड़ती है। जब अण्डा गर्भाशय में पहुंचता है, उसका अस्तर रक्त और तरल पदार्थ से गाढ़ा हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि यदि अण्डा उर्वरित हो जाए, तो वह बढ़ सके और शिशु के जन्म के लिए उसके स्तर में विकसित हो सके। यदि उस डिम्ब का पुरूष के शुक्राणु से सम्मिलन न हो तो वह स्राव बन जाता है जो कि योनि से निष्कासित हो जाता है। इसी स्राव को मासिक धर्म, पीरियड्स या रजोधर्म या माहवारी (Menstural Cycle or MC) कहते हैं। . मादा के जननांग को योनि (वेजाइना) कहा जाता है। इसके पर्यायवाची शब्द भग, आदि हैं। सामान्य तौर पर "योनि" शब्द का प्रयोग अक्सर भग के लिये किया जाता है, लेकिन जहाँ भग बाहर से दिखाई देने वाली संरचना है वहीं योनि एक विशिष्ट आंतरिक संरचना है। . ऑक्सीटोसिन हार्मोन का चित्र आड्रेनालिन (Adrenaline) नामक हार्मोन की रासायनिक संरचना हार्मोन या ग्रन्थिरस या अंतःस्राव जटिल कार्बनिक पदार्थ हैं जो सजीवों में होने वाली विभिन्न जैव-रसायनिक क्रियाओं, वृद्धि एवं विकास, प्रजनन आदि का नियमन तथा नियंत्रण करता है। ये कोशिकाओं तथा ग्रन्थियों से स्रावित होते हैं। हार्मोन साधारणतः अपने उत्पत्ति स्थल से दूर की कोशिकाओं या ऊतकों में कार्य करते हैं इसलिए इन्हें 'रासायनिक दूत' भी कहते हैं। इनकी सूक्ष्म मात्रा भी अधिक प्रभावशाली होती है। इन्हें शरीर में अधिक समय तक संचित नहीं रखा जा सकता है अतः कार्य समाप्ति के बाद ये नष्ट हो जाते हैं एवं उत्सर्जन के द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिए जाते हैं। हार्मोन की कमी या अधिकता दोनों ही सजीव में व्यवधान उत्पन्न करती हैं। . अभारतीय गाय जर्सीगाय गाय एक महत्त्वपूर्ण पालतू जानवर है जो संसार में प्रायः सर्वत्र पाई जाती है। इससे उत्तम किस्म का दूध प्राप्त होता है। हिन्दू, गाय को 'माता' (गौमाता) कहते हैं। इसके बछड़े बड़े होकर गाड़ी खींचते हैं एवं खेतों की जुताई करते हैं। भारत में वैदिक काल से ही गाय का विशेष महत्त्व रहा है। आरंभ में आदान प्रदान एवं विनिमय आदि के माध्यम के रूप में गाय उपयोग होता था और मनुष्य की समृद्धि की गणना उसकी गोसंख्या से की जाती थी। हिन्दू धार्मिक दृष्टि से भी गाय पवित्र मानी जाती रही है तथा उसकी हत्या महापातक पापों में की जाती है।; गाय व भैंस में गर्भ से संबन्धित जानकारी. कृत्रिम गर्भाधान के निम्नलिखित अर्थ हो सकते हैं-.
7f3947fc946c5c484b241a736266d7f3356bb243f476decfee0edc855850d958
pdf
संभवतः इनमें से अनेक हर्षवर्धन के करद राज्य थे, किंतु उसके प्रतापसूर्य को अस्त होता देख कर - जिसके चिह्न पुलकेशी द्वितीय से प्राप्त पराजय से स्पष्ट हो चुके थे- वे हर्ष के आधिपत्य से मुक्त होने क प्रयत्न उसके जीवन काल में हो करने लग गये हों । बाण तथा हर्ष के परवर्ती संस्कृत साहित्य में इस राजनीतिक स्थिति के स्पष्ट लक्षण मिलते हैं। ईसा को आठवीं नवीं शती के आसपास गुजरात में बलभी, राजस्थान में मौर्यों की राजधानी चित्रकूट (चित्तौड़ ), प्रतीहारों की राजधानी कन्नौज, तथा दक्षिण में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट विशेष प्रसिद्ध हो चली थीं। वलभी में भट्टि तथा माघ जैसे संस्कृत कवियों को, कन्नौज में भवभूति, वाक्पतिराज तथा राजशेखर जैसे संस्कृत प्राकृत कवियों को, माहिष्मती में मुरारि एवं मान्यखेट में त्रिविक्रम, स्वयंभू, त्रिभुवन और पुष्पदंत जैसे संस्कृत एवं अपभ्रंश कवियों को राजाश्रय मिला था। जैसा कि राजशेखर ने बताया है, इनके दरबारों में संस्कृत, प्राकृत, पैशाची तथा अपभ्रंश सभी भाषाओं के कवि सम्मानित थे। इसके बाद की शताब्दियों में भी चौहानों ने जयानक जैसे संस्कृत कवि तथा अनेक अज्ञात पुरानी हिंदी के भट्ट कत्रियों को आश्रय दिया था। काशी के गहडवाल राजाओं के यहाँ 'नैषध' के रचयिता श्रीहर्ष, 'उक्ति व्यक्ति प्रकरण' के लेखक दामोदर जैसे संस्कृत कवि व पंडित हो नहीं थे, अपितु महामंत्री विद्याधर जैसे कवि भी थे, जो देशी भाषा में रचना करना फल समझते थे । राहुल जी ने कलचुरि कर्ण के यहाँ भी कुछ हिंदी कवियों का होना माना है, जिनमें से एक कवि बच्चर के कुछ पद्य 'प्राकृत पैंगलम्' में मिलते हैं। ईसा को ग्यारहवीं-बारहवीं सदियों में मालवा के परमार तथा गुजरात सोलंकियों ने भी संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश के साहित्यिक विकास में अपूर्व योग दिया था । गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह तथा कुमारपाल ने कई जैन कवियों व पंडितों को प्रश्रय दिया था, जिनमें हेमचन्द्र सूरि प्रमुख हैं। मालवा के नरेश मुंज तथा उनका भतीजा भोज साहित्य तथा साहित्यिकों के प्रेमी थे । ये दोनों स्वयं भी संस्कृत तथा अपभ्रंश ( देशी भाषा ) में कविता करते थे । साहित्यिक प्रसार की दृष्टि से यह काल चाहे महत्त्वपूर्ण हो, किंतु राजनीतिक एकता तथा सुस्थिरता का अभाव देश की भावी स्वतंत्रता के लिये घातक सिद्ध हो रहा था। जैसा कि मैंने अन्यत्र निर्देश किया है, उत्तरी भारत की राजनीतिक स्थिति आठव-नव शती में इतनी सुदृढ न थी। "इन राजाओं में निरंतर विरोध चला आ रहा था और प्रत्येक राजा कन्नौज पर अधिकार जमाना चाहता था, क्योंकि कन्नौज उत्तरी भारत में साम्राज्यवाद का प्रतीक समझा जाता था । यहाँ तक कि मान्यखेट के राष्ट्रकूट तक कन्नौज पर कई बार चढ़ आये थे और 'अंतर्वेद उनकी अश्वसेना के खुरपुटों से निनादित हो गया था ।। पाल भी निश्चित न थे तथा उनकी भी कन्नौज पर 'गृधदृष्टि' थी ।" नमीं शती उत्तरार्ध तथा दसवीं शती मे उत्तरी भारत फिर एक बार विदेशो आक्रमणों के विरुद्ध मजबूत गढ़ बन गया था, किंतु ग्यारहवीं शतो से ही कन्नौज की प्रतिष्ठा समाप्त हो चली थी । इस समय से लेकर शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमण तक उत्तरी भारत राजाओं के पारस्परिक कलह, वैमनस्य तथा अहंभाव से इतना जर्जर हो चुका था कि इस समय उत्तरी भारत में लगभग ७ राज्यों के होने पर भी कोई एक राज्य ऐसा न था, जिसे उत्तरी भारत की एकता का प्रतीक कहा जा सके । फलस्वरूप जब पृथ्वीराज को ११९३ ई० में शहाबुद्दीन गोरी ने पराजित किया, तो उसको सहायता अन्य किसी भी राजा ने न को । मुसलमानों की जिगोपा के लिये यह राजनीतिक परिस्थिति विशेष लाभदायक सिद्ध हुई, उन्होंने एक शताब्दी के भीतर को उत्तरी भारत के समस्त हिंदू राज्यों को एक एक कर विध्वस्त कर डाला । ९१४. पुरानी हिन्दी के कवियों में से अधिकांश इन्हीं राजाओं १. There was a constant rivalry among these princes and each one of them wanted to win over Kanauj, which was considered as a symbol of Imperialism in northern India. Even Rastrakutas of Manyakheta had run up to Kanauj and "the 'antarveda' had been resounded by the steps of their steads." Pals were also not inactive and they had their 'eagle's eye over Kanauj.' - मेरे अप्रकाशित ग्रंथ "Hindi Literature in Changing Phases" के द्वितीय परिच्छेद से उद्धृत । के आश्रित थे। इन्हीं के आश्रय में रहकर वे उनको युद्धवोरता, दानवोरता, उदारता आदि की प्रशंसा में मुक्तक पद्य बनाया करते थे। आश्रयदाता के मनोरंजन के लिए कभी कभी शृंगार रस वाली षट्ऋतु वर्णन, नायिका वर्णन आदि की रचनायें, तथा नीतिपरक एवं देवस्तुतिपरक पद्य भी समय-समय पर दरबारों में सुनाया करते होंगे । कुछ एक कवि अपने आश्रयदाता राजा के जीवन से संबद्ध किसी न किसी प्रबन्धकाव्य की रचना भी कर डालते होंगे; जिनमें समयसमय पर बनाये हुए अपने मुक्तक पद्यों की भी छौंक डाल देते थे । मैंने श्रीहर्ष के 'नैषध' के सम्बन्ध में लिखते समय इस बात का संकेत किया था कि उसमें ११-१२वें सर्ग के पद्य राजस्तुतिपरक मुक्तक पद्य जान पड़ते हैं, जिन्हें कवि ने समय समय पर आश्रयदाता राजाओं को प्रशंसा में लिखा था और बाद में थोड़ा हेर-फेर कर उन्हें यहाँ जोड़ दिया है। यह प्रवृत्ति इस काल के संस्कृत तथा देशी भाषा ( पुरानी हिन्दी ) के कवियों में समान रूप से पाई जाती हैं । प्रा०] पैं में उपलब्ध मुक्तक पद्यों से यह अनुमान और अधिक पुष्ट होता है। कुछ लोगों का अनुमान हो सकता है कि कर्ण, काशोराज तथा हम्मीर से संबद्ध पद्य तत्तत् राजा से संबद्ध महाकाव्यों से उद्धृत हों, किन्तु मुझे ऐसा मानने का कोई प्रमाण नहीं दिखाई पड़ता। हो सकता है, प्राकृतपैङ्गलम् के संग्राहक के पास अपने अनेक पूर्वजों, निकटतम या सुदूर संबन्धियों या अन्य देशी भाषा के भट्ट कवियों के पद्य संकलित हों और उनमें बन्चर, विद्याधर आदि के भी पद्य हों, जिनमें से कुछ यहाँ उद्धृत किये गये हैं। हमारा अनुमान है कि आज के राजस्थान के चारणों तथा भाटों की भाँति प्रा०प० के संग्राहक के पास पुरानी हिन्दी के मुक्तक पद्यों का विशाल संकलन रहा होगा। इन राजाश्रित भट्ट कवियों ने जो कुछ भी लिखा वह राजाओं को कचि का ध्यान रखकर लिखा था। यही कारण है कि इनमें केवल सामंती वर्ग के रहन-सहन, आशा-निराशा, रूढि-विश्वास, एवं सामाजिक मान्यताओं का आलेखन होना लाजमी है। वस्तुतः हिन्दी के आदिकाल का साहित्यिक इतिहास इन्हीं राजाओं तथा सामन्तों के वैयक्तिक काव्याश्रय का इतिहास है। साधारण जनता की, कृपकों निम्न वर्ग के १. भोलाशंकर व्यासः संस्कृत कवि दर्शन पृ० २०० । लोगों की स्थिति का परिचय अगर यहाँ न मिले तो बिदकने की जरूरत नहीं। वैसे कुछ लोगों ने 'आदिकाल' की सामान्य सामाजिक परिस्थिति का अध्ययन करने के लिये नाथसिद्धों के पदों को महार्घ मान लिया है, किंतु वे भी उसका सच्चा चित्र कहाँ तक अंकित करते हैं, यह नहीं कहा जा सकता। बहरहाल हमें इतना ही कहना है कि हिंदी आदिकाल के भट्ट कवि यूरोप के आंग्ल एवं फ्रेंच 'ट्रबेर' कवियों को तरह केवल आश्रित राजाओं के ही लिये लिख रहे थे । इस संबंध में हम डा० शुकिंष के इस मद को उद्धृत करना आवश्यक समझते हैं, जो उन्होंने मध्ययुगीन आंग्ल कवियों के विषय में व्यक्त किया है, किंतु जो हमारे हिंदी भट्ट कवियों पर भी पूरी तरह लागू होता है :"गायक सदा राजा के साथ साथ रहता था, इसलिये नहीं कि वे दोनों 'मानवता के शीर्ष' थे, बल्कि इसलिये कि गायक के लिये राजा ही एक मात्र आश्रय था । किंतु इसका यह अर्थ था कि आश्रित व्यक्ति को सदा आश्रय मिलता रहे तथा वह अपनी कृतज्ञता प्रकाशन का कर्तव्य कभी न भूले। इस आश्रय-दान के कारण टन्यूटन राज-गायक, जो एंग्लो-सेक्सन में 'स्कोप' कहलाते थे, आश्रयदाता राजाओं तथा उनके पूर्वजों के महान् कार्यों पर रचना करते थे तथा उत्सवादि के समय कविता सुनाया करते थे । " ' हिंदी का प्राचीन परिनिष्ठित साहित्य भी प्रधानतः आश्रयदाता या अन्नदाता के सामान्य दृष्टिकोण को ध्यान में रख कर लिखा गया है । मध्ययुगीन साहित्य की प्रगति एवं विकास में राजा या धर्म के आश्रय का काफी हाथ रहा हैं । आदिकालीन जैन कृतियों के प्रणयन में - रास, फागु, चर्चरी काव्यों की रचना में धर्म का खास हाथ है; तथा भक्तिकालीन हिंदी साहित्य के विकास में भी धर्म का अपूर्व योग है । कृष्णभक्तिशाखा तथा रामभक्तिशाखा का ही साहित्य नहीं, निर्गुण ज्ञानाश्रयी संतों की कविताओं तथा सूफोसंतों के प्रेमगाथा काव्यों के प्रणयन में भी तत्तत् धार्मिक मान्यता ही प्रेरक तत्व है । कबीर, जायसी, सूर या तुलसी ने किसी नहीं लिखा और The Sociology of Literary १. L. I. Schucking: Taste oh II. p. 9.
9eff07feb5ef4e87ff612cc740c64eb6257246c4
web
इलाहाबाद : बेसिक शिक्षा परिषद के प्राथमिक विद्यालयों में नियुक्ति पाने के लिए याची पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, बल्कि अब प्रमुख सचिव बेसिक शिक्षा आशीष गोयल को भी घेरने का अल्टीमेटम दिया गया है। लगातार छठे दिन सुबह से शाम तक क्रमिक अनशन चला, लेकिन उन्हें अब भी शासन के निर्देश का इंतजार है। प्राथमिक स्कूलों में 72825 शिक्षकों की नियुक्ति में शामिल होने के लिए हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक में बड़ी संख्या में युवाओं ने याचिका कर रखी हैं। दिसंबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई के दौरान 1100 याचियों को भी एडहॉक पर नियुक्ति देने का निर्देश हुआ है। उस पर एक माह में अमल होना था, पर अब तक इस दिशा में ठोस पहल न होने पर याची आंदोलन की राह पर हैं। जनवरी माह में तीन-तीन दिन तक दो बार हुए आंदोलन के बाद कहा गया था कि एक फरवरी तक सभी दावेदारों के नाम ऑनलाइन कर दिए जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इसीलिए फिर से आंदोलन शुरू हुआ और लगातार छठे दिन शिक्षा निदेशालय में सचिव बेसिक शिक्षा परिषद कार्यालय के सामने डटे रहे साथ ही जल्द नियुक्ति देने की मांग होती रही। युवाओं का कहना है कि इस बार बिना प्रक्रिया शुरू हुए वापस नहीं जाएंगे। अभ्यर्थियों ने आरोप लगाया कि अफसर जानबूझकर इस मामले को लटका रहे हैं। वहीं परिषद के सचिव ने दूरभाष पर आंदोलन कर रहे अशोक द्विवेदी से कहा कि सारा प्रकरण शासन को भेज दिया गया है, वहां से जो निर्देश मिलेगा उसका अनुपालन किया जाएगा। इस सूचना पर याचियों ने अब प्रमुख सचिव बेसिक शिक्षा गोयल को भी घेरने की योजना बनाई है। मंगलवार शाम तक कुछ न होने पर बुधवार से लखनऊ में भी अनशन करेंगे। यहां संजीव मिश्र, विनोद वर्मा, प्रशांत शर्मा, अमित कौशिक, राजेंद्र चौधरी थे। इलाहाबाद : प्रशिक्षु शिक्षकों के तृतीय चरण की प्रशिक्षण परीक्षा का परिणाम इसी महीने जारी होगा। परीक्षा नियामक प्राधिकारी कार्यालय का दावा है कि परिणाम फरवरी के अंतिम सप्ताह में जारी होगा। इसी प्रकरण को लेकर सोमवार को अभ्यर्थियों ने परीक्षा नियामक कार्यालय पर प्रदर्शन भी किया। बेसिक शिक्षा परिषद के प्राथमिक स्कूलों में 72825 शिक्षकों की भर्ती के तहत तैनाती पाने वाले प्रशिक्षु शिक्षकों की चरणवार परीक्षा कराकर परिणाम जारी हुए। इसके बाद ही उन्हें मौलिक नियुक्ति मिल सकी। पहला एवं दूसरा चरण पूरा हो चुका है जबकि तीसरे चरण की प्रशिक्षण परीक्षा बीते 22 व 23 जनवरी को हुई थी। इसमें करीब 2300 प्रशिक्षु शामिल हुए थे। 15 दिन बीतने के बाद भी परिणाम जारी न होने से परेशान प्रशिक्षुओं ने सोमवार को सचिव परीक्षा नियामक प्राधिकारी कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया। उनका कहना था दस दिन में परिणाम जारी करने की घोषणा हुई थी, लेकिन वह पूरा नहीं हो रहा है। अभ्यर्थियों ने यह भी कहा कि यदि जल्द परिणाम जारी न हुआ तो 15 फरवरी से कार्य बहिष्कार करके सचिव परीक्षा नियामक प्राधिकारी का घेराव करेंगे। उधर, रजिस्ट्रार नवल किशोर ने बताया कि परीक्षा परिणाम फरवरी के अंतिम सप्ताह में जारी होगा। इसकी तैयारियां चल रही हैं। महराजगंज : टीईटी उत्तीर्ण संघर्ष मोर्चा के तत्वावधान में आयोजित मंडल स्तरीय सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए मुख्य अतिथि विधिक सलाहकार राहुल पाण्डेय ने कहा कि टीईटी अभ्यर्थी हक के लिए एकजुट रहें। क्योंकि एकजुटता में ही बल है । इसके के आधार पर ही हम किसी भी लड़ाई को सफलतापूर्वक लड़ सकते हैं। सम्मेलन में विशिष्ट अतिथि सचिव शशिकांत यादव तथा जिलाध्यक्ष रामकुमार पटेल ने भी सम्बोधित किया। खबर साभार : 'दैनिक जागरण' महराजगंज : ग्रामीण क्षेत्र सहित उपनगर के तमाम स्कूलों में कम्प्यूटर शिक्षा कहने भर की चीज बनकर रह गई है। आलम यह है कि अधिकांश स्कूलों के बच्चों को महीने-महीने भर कम्प्यूटर छूने को भी नहीं मिलता। फिर भी बच्चों के अभिभावकों से कम्प्यूटर शिक्षा के नाम पर मोटी रकम विद्यालय अवश्य वसूल लेते हैं। नये खुले कई स्कूलों में कहीं कम्प्यूटर तो कहीं प्रशिक्षक ही नहीं हैं। ऐसे में तमाम दावों के बावजूद बच्चे कम्प्यूटर की एबीसीडी..भी नहीं जानते। खबर साभार : 'दैनिक जागरण' महराजगंज : परिषदीय विद्यालयों में पानी पीने की बेहतर व्यवस्था न होने से दोपहर का भोजन करने के उपरांत बच्चों को पड़ोस के चापाकलों से अपनी प्यास बुझानी पड़ रही है। कहने को तो सभी परिषदीय विद्यालयों में इंडिया मार्का हैण्डपम्प लगे हैं पर उचित देखरेख के अभाव में इनमें से ज्यादातर खराब पडे़ या दूषित पानी दे रहे हैं। खबर साभार- 'दैनिक जागरण' महराजगंज : प्राथमिक एवं पूर्व माध्यमिक विद्यालयों में मध्याह्न भोजन योजना की खिचड़ी लकड़ी पर पक रही है क्योंकि जिले में लगभग साढ़े बाइस सौ विद्यालय हैं लेकिन रसोई गैस कनेक्शन करीब साढ़े पन्द्रह सौ विद्यालयों में ही है। ऐसे में शेष विद्यालयों में एमडीएम का भोजन लकड़ी पर ही बनाया जाता है। इससे जहां रसोइयों को परेशानी होती है वहीं धुएं से न सिर्फ स्कूल के किचन का छत काला हो रहा है बल्कि जहरीला धुआं बच्चों के स्वास्थ्य पर भी प्रभाव डाल रहा है। खबर साभार : 'दैनिक जागरण' लखनऊ : प्राथमिक स्कूलों व पूर्व माध्यमिक स्कूलों में होने वाली परीक्षाओं में अब विद्यार्थियों को प्रश्नपत्र व कॉपियां दी जाएंगी, ताकि वह ढंग से परीक्षा दे सकें। यह विचार बेसिक शिक्षा मंत्री अहमद हसन ने व्यक्त किए। वह रविवार को चौक स्टेडियम में 36 वीं मंडलीय बाल क्रीड़ा प्रतियोगिता एवं शैक्षिक समारोह में उपस्थित लोगों को संबोधित कर रहे थे। इस प्रतियोगिता में लखनऊ मंडल के छह जिलों के प्राइमरी स्कूल व पूर्व माध्यमिक स्कूलों के करीब 1200 विद्यार्थी हिस्सा ले रहे हैं। 1बेसिक शिक्षा मंत्री ने कहा कि प्राइमरी स्कूल व पूर्व माध्यमिक स्कूलों में खेलकूद को बढ़ावा देने के लिए सरकारी मदद और बढ़ाई जाएगी। उन्होंने कहा कि अगले महीने राज्य स्तरीय क्रीड़ा प्रतियोगिता आयोजित होगी। पढ़ाई के साथ खेल का भी बहुत महत्व है और इससे व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास होता है। कार्यक्रम में मुख्यमंत्री के सचिव आशीष गोयल, निदेशक बेसिक शिक्षा डीबी शर्मा, सहायक बेसिक शिक्षा निदेशक महेंद्र सिंह राणा व बीएसए प्रवीण मणि त्रिपाठी मौजूद रहे। इस मंडलीय प्रतियोगिता में दौड़, खो-खो, कबड्डी, ऊंची कूद, लंबी-कूद, दौड़, अंत्याक्षरी, योग आदि प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जा रहा है। खेल शिक्षक अनुराग सिंह राठौर ने बताया कि पहले दिन प्राइमरी स्तर की बालिका की दौड़ में लखनऊ की अर्चना ने पहला, उन्नाव की गुड़िया ने दूसरा व सीतापुर की सुनैना ने तीसरा स्थान हासिल किया। वहीं प्राइमरी स्तर पर बालकों की दौड़ में लखीमपुर के तीन छात्र अजरुन, दिलीप व आशुतोष क्रमशः पहले, दूसरे व तीसरे स्थान पर रहे। सोमवार को इस मंडलीय प्रतियोगिता का समापन होगा। 📌 इलाहाबादः उत्तर प्रदेश प्राथमिक शिक्षामित्र संघ की बैठक में समायोजन से वंचित शिक्षामित्रों को मानदेय देने की मांग हुई। चंद्रशेखर आजाद पार्क में हुई बैठक को संबोधित करते हुए जिलाध्यक्ष वसीम अहमद ने कहा कि समायोजन से वंचित शिक्षामित्रों को मानदेय नहीं दिया जा रहा है। इससे उन्हें आर्थिक परेशानी हो रही है। इस अवसर पर शिक्षामित्र पंकज कुमार, राजकुमार, विनोद मौर्या, सुनीता यादव, नीरज यादव, विजय शंकर रावत, परवीन बानो, अजय प्रताप सिंह आदि मौजूद रहे। 📌 इलाहाबादः अंतर जनपदीय शिक्षक वेलफेयर एसोसिएशन के बैनर तले शिक्षकों ने जेष्ठता संबंधी विसंगति व पदोन्नति की मांग को लेकर मुख्यमंत्री को संबोधित ज्ञापन सपा जिलाध्यक्ष को सौंपा। 1 जिलामंत्री रमाशंकर पांडेय के नेतृत्व में सौंपे गए ज्ञापन के माध्यम से बताया गया कि विभिन्न जनपदों से स्थानांतरित होकर आए अंतर जनपदीय शिक्षकों की वरिष्ठता शून्य कर दी गई है। ज्ञापन सौंपने वालों में मनीष तिवारी, अवनीश मिश्र, शांति भूषण द्विवेदी, विनीत यादव, संजय वर्मा, फूलचंद यादव, आलोक मिश्र, कमल पांडेय, भानू प्रताप सिंह शामिल रहे। '25 फीसदी सीटों पर गरीब बच्चों को दें दाखिला' , भारत अभ्युदय फाउंडेशन और यूनीसेफ की ओर से आयोजित इस कार्यशाला में निजी स्कूलों के प्रतिनिधि के साथ ही शिक्षा विभाग के अधिकारी भी मौजूद रहे। इस अवसर पर मुख्य अतिथि सचिव मुख्यमंत्री पार्थ सारथी सेन शर्मा ने कहा कि यह हर्ष का विषय है कि हमारा प्रदेश शिक्षा के अधिकार में सामाजिक समावेश वर्कशॉप श्रृंखला के मामले में एक उदाहरण पेश कर रहा है। यह कार्यक्रम समाज के गरीब एवं उपेक्षित वर्ग के बच्चों को उनके स्कूलों में पैडागोजिकल तकनीक के जरिये सभी के साथ लेकर चलने में निजी स्कूलों की क्षमता बढ़ाने के लिए चलाया जा रहा है। वर्कशॉप में भारत अभ्युदय फाउंडेशन की चेयरपर्सन सबीना बानो ने बताया कि शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत सभी निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटें निशुल्क दाखिले के लिए आरक्षित हैं। नए शैक्षिक में इन सभी पर दाखिले के लिए आव्ज़दन की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है। कार्यशाला में जिला विद्यालय निरीक्षक उमेश कुमार त्रिपाठी, बीएसए प्रवीण मणि त्रिपाठी भी उपस्थित थे। जागरण संवाददाता, गोरखपुर : परिषदीय प्राथमिक विद्यालयों में सहायक अध्यापक पद पर समायोजित शिक्षामित्रों के लिए अच्छी खबर है। उन्हें जल्द ही वेतन मिलना शुरू हो जाएगा। बेसिक शिक्षा विभाग ने जोर-शोर से प्रक्रिया शुरू कर दी है। फिलहाल, 1668 समायोजित शिक्षामित्रों में से 1335 का सत्यापन पूरा हो चुका है। शेष 333 शिक्षामित्रों का सत्यापन भी 8 फरवरी तक पूरा हो जाएगा। जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी के अनुसार जिले के समस्त खंड शिक्षा अधिकारियों को समायोजित शिक्षामित्रों की सेवा पुस्तिका तैयार करने के लिए दिशा-निर्देश जारी कर दिया गया है। उन्हें निर्देशित किया गया है कि वे 9 फरवरी तक हर हाल में सेवा पुस्तिका तैयार कर विभाग को उपलब्ध करा दें, ताकि सत्यापित शिक्षकों को वेतन उपलब्ध कराया जा सके। इसके लिए खंड शिक्षा अधिकारियों को सत्यापित शिक्षामित्रों की सूची भी उपलब्ध करा दी गई है। समायोजित शिक्षामित्रों का वेतन सितंबर से ही नहीं मिल रहा है। 12 सितंबर को न्यायालय ने उनका समायोजन निरस्त कर दिया था। इसके बाद वे सड़क पर आ गए और दिल्ली तक आंदोलन किया। फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट ने समायोजन रद के आदेश पर अगली सुनवाई तक स्टे दिया है, सुनवाई 24 फरवरी को है। इसी बीच प्रदेश सरकार ने समायोजित शिक्षामित्रों को वेतन देने का शासनादेश जारी कर दिया है।
203ce4d46d3306b72a0ba2ecd59827c78347e79a
web
विकीहाउ एक "विकी" है जिसका मतलब होता है कि यहाँ एक आर्टिकल कई सहायक लेखकों द्वारा लिखा गया है। इस आर्टिकल को पूरा करने में और इसकी गुणवत्ता को सुधारने में समय समय पर, 17 लोगों ने और कुछ गुमनाम लोगों ने कार्य किया। विकीहाउ एक "विकी" है जिसका मतलब होता है कि यहाँ एक आर्टिकल कई सहायक लेखकों द्वारा लिखा गया है। इस आर्टिकल को पूरा करने में और इसकी गुणवत्ता को सुधारने में समय समय पर, 17 लोगों ने और कुछ गुमनाम लोगों ने कार्य किया। यह आर्टिकल ६,०८० बार देखा गया है। जब आपके कंप्यूटर के साथ कोई गड़बड़ हो और आप उस समस्या को हल न कर पाएं, तो सिस्टम रिस्टोर (System Restore) का उपयोग करना आपके लिए सबसे अच्छा रहेगा । विंडोज़ 7 में सिस्टम रिस्टोर से आप अपने कंप्यूटर को उस पूर्व अवस्था में ले जा पाएंगे जब उसके साथ वह समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी । सिस्टम रिस्टोर का उपयोग करने के कई कारण हैं, जैसे कि एक नया ऑपरेटिंग सिस्टम, ड्राइवर, या कोई सॉफ्टवेयर इंस्टॉल करने में दिक्कत होना । विधि 1 का 2: {"smallUrl":"https:\/\/www2एक पासवर्ड रीसेट डिस्क बनाएं (वैकल्पिक): यदि आपने हाल ही में अपना पासवर्ड बदला है तो यह अनुशंसित है, क्योंकि रिस्टोर की प्रक्रिया से आपका पासवर्ड बदलकर पहले जैसा हो सकता है । एक पासवर्ड रीसेट डिस्क बनाने पर निर्देशों के लिए यहां क्लिक करें । {"smallUrl":"https:\/\/www4उस रिस्टोर पॉइन्ट को चुनें जिसका आप उपयोग करना चाहते हैंः विंडोज एक रिस्टोर पॉइन्ट का सुझाव देगा जो आमतौर पर सबसे हाल ही का रिस्टोर पॉइन्ट होगा । यदि आप एक पुराने रिस्टोर पॉइन्ट को चुनना चाहते हैं, तो Next > क्लिक करें । - सभी उपलब्ध रिस्टोर पॉइन्ट देखने के लिए "Show more restore points" बॉक्स को चेक करें । हो सकता है कि आपके द्वारा चुने जाने के लिए ज़्यादा रिस्टोर पॉइन्ट न हों, क्योंकि विंडोज़ स्वचालित रूप से स्टोरेज स्थान को बचाने के लिए पुराने रिस्टोर पॉइन्ट्स को हटा देती है। - प्रत्येक रिस्टोर पॉइन्ट के लिए एक संक्षिप्त विवरण होगा जो बताएगा कि वह पॉइन्ट क्यों बनाया गया था । {"smallUrl":"https:\/\/www6रिस्टोर करने से पहले रिस्टोर पॉइन्ट का निरीक्षण करेंः सिस्टम रिस्टोर करने से पहले, एक आखिरी बार सभी बदलावों का निरीक्षण करें । रिस्टोर की प्रक्रिया शुरू करने के लिए Finish क्लिक करें । - यदि सिस्टम रिस्टोर से काम और खराब हो गया है, या आप अपने कंप्यूटर को पहले जैसी अवस्था में ले जाना चाहते हैं, तो आप सिस्टम रिस्टोर खोल कर "Undo System Restore" का चयन करके, हाल ही में किए गए रिस्टोर को रद्ध कर सकते हैं । {"smallUrl":"https:\/\/www2यदि विंडोज़ शुरु न हो तो सिस्टम रिस्टोर को कमांड प्रॉम्प्ट (Command Prompt) से चलाएंः यदि कुछ गलत हो गया है और आप विंडोज़ को सामान्य रूप से शुरू नहीं कर पा रहे हैं, तो आप सिस्टम रिस्टोर को कमांड प्रॉम्प्ट से चला सकते हैं । - अपने कंप्यूटर को रिबूट करें और F8 कुंजी (key) दबाएं । ऐसा करने से एड्वान्स्ड बूट ऑप्शन्स (Advanced Boot Options) मेनू खुल जाएगा । - एड्वान्स्ड बूट ऑप्शन्स मेनू से "Safe Mode with Command Prompt" का चयन करें । विंडोज़ आवश्यक फाइलों को लोड करेगी और फिर आपको कमांड प्रॉम्प्ट पर ले जाएगी । - rstrui3हार्ड ड्राइव में कोई समस्याओं की जांच करने के लिए चेक डिस्क (Check Disk) उपयोगिता चलाएंः एक खराब हार्ड ड्राइव सिस्टम रिस्टोर के ठीक से काम न करने का कारण हो सकती है । चेक डिस्क संभवतः इन समस्याओं को हल कर सकता है । - स्टार्ट (Start) पर क्लिक करें, कमांड प्रॉम्प्ट (Command Prompt) पर राइट क्लिक करें, और फिर "Run as administrator" का चयन करें। - chkdisk /r टाइप करें और फिर एन्टर दबाएं । - इस बात की पुष्टि करें कि आप अपने कंप्यूटर को रिबूट करना चाहते हैं । विंडोज़ के शुरू होने से पहले चेक डिस्क चलेगा और किसी भी एरर (error) की जांच करेगा । उसे जो भी एरर मिलेंगे, वह उन्हें ठीक करने का प्रयास करेगा । {"smallUrl":"https:\/\/www5यदि सिस्टम रिस्टोर काम नहीं करता है तो विंडोज़ को फिर से इंस्टॉल करने पर विचार करेंः यदि और कुछ भी काम नहीं कर रहा है, तो आपकी समस्याओं को हल करने के लिए विंडोज़ को फिर से इंस्टॉल करना ही एकमात्र तरीका हो सकता है । यदि आपके पास पहले से ही अपनी महत्वपूर्ण फाइलों का बैकअप है, तो संभावना है कि फिर से इंस्टॉल करने की प्रक्रिया में कम वक्त लगेगा, और आम तौर पर आपके कंप्यूटर के प्रदर्शन में भी सुधार होगा । - विंडोज 7 को फिर से इंस्टॉल करने पर विस्तृत निर्देशों के लिए यहां क्लिक करें। विधि 2 का 2: {"smallUrl":"https:\/\/www2बाईं फ्रेम में "System protection" लिंक पर क्लिक करेंः यह "System Protection" टैब में सिस्टम प्रापर्टीस (System Properties) विंडो को खोलेगा । {"smallUrl":"https:\/\/www4रिस्टोर पॉइन्ट के बनने तक इंतज़ार करेंः इसमें संभवतः कुछ मिनट लगेंगे । - रिस्टोर पॉइन्ट्स आकार (size) में अलग होते हैं, लेकिन विंडोज़ डिफ़ॉल्ट रूप से उनके लिए हार्ड ड्राइव का 5% स्थान आरक्षित रखती है । नए रिस्टोर पॉइन्ट्स के लिए स्थान बनाने के लिए पुराने रिस्टोर पॉइन्ट्स को स्वचालित रूप से हटा दिया जाता है । - आप आमतौर पर अपनी सिस्टम ट्रे (system tray) में एंटीवायरस के आइकन पर राइट क्लिक करके और फिर "Disable" या "Stop" का चयन करके अपने एंटीवायरस को अक्षम कर सकते हैं । {"smallUrl":"https:\/\/www3सुनिश्चित करें कि रिस्टोर पॉइन्ट्स बनाने के लिए आपके पास पर्याप्त डिस्क स्थान हैः यदि आपके कंप्यूटर पर पर्याप्त खाली स्थान नहीं है, तो आप रिस्टोर पॉइन्ट्स नहीं बना पाएंगे । विंडोज 1 जीबी (GB) से कम स्थान वाली हार्ड ड्राइव में रिस्टोर पॉइन्ट नहीं बनाएगी । - स्टार्ट (Start) क्लिक करें और "Computer" का चयन करें। - जिस डिस्क में विंडोज़ इंस्टॉल की गई है (आमतौर पर C: में), उसे राइट-क्लिक करें और फिर प्रापर्टीस (Properties) का चयन करें । - सुनिश्चित करें कि आपकी डिस्क में कम से कम 300 एमबी (MB) का मुक्त स्थान free space है । आदर्श रूप से डिस्क में कम से कम 2-3 जीबी का मुक्त स्थान होना चाहिए । {"smallUrl":"https:\/\/www.wikihow.com\/images_en\/thumb\/e\/ee\/Use-System-Restore-on-Windows-7-Step-22.jpg\/v4-460px-Use-System-Restore-on-Windows-7-Step-22.jpg","bigUrl":"https:\/\/www.wikihow.com\/images\/thumb\/e\/ee\/Use-System-Restore-on-Windows-7-Step-22.jpg\/v4-728px-Use-System-Restore-on-Windows-7-Step-22.jpg","smallWidth":460,"smallHeight":345,"bigWidth":728,"bigHeight":546,"licensing":"<div class=\"mw-parser-output\"><\/div>"}4अपनी विंडोज रिपॉज़िट्री (Windows Repository) को रिसेट करने की कोशिश करेंः इससे रिस्टोर पॉइन्ट्स बनाने से जुड़ी समस्याएं हल हो सकती हैं । - अपने कंप्यूटर को रिबूट करें और F8 को दबाकर रखें । एड्वान्स्ड बूट ऑप्शन्स मेनू से "Safe Mode" का चयन करें । - स्टार्ट मेनू पर क्लिक करें, कमांड प्रॉम्प्ट (Command Prompt) पर राइट क्लिक करें, और फिर "Run as administrator" का चयन करें । - net stop winmgmt टाइप करें और एन्टर दबाएं । - स्टार्ट (Start) क्लिक करें और "Computer" का चयन करें। C:\Windows\System32\wbem में जाएं और repository का नाम बदलकर repositoryold रखें । - विंडोज़ में सामान्य रूप से जाने के लिए अपने कंप्यूटर को रिबूट करें । स्टार्ट मेनू क्लिक करें, कमांड प्रॉम्प्ट (Command Prompt) पर राइट क्लिक करें, और फिर "Run as administrator" का चयन करें । - net stop winmgmt टाइप करें और एन्टर दबाएं । फिर winmgmt /resetRepository टाइप करें और एन्टर दबाएं । - एक आखिरी बार अपने कंप्यूटर को रिबूट करें और एक रिस्टोर पॉइन्ट बनाने की कोशिश करें । - सुनिश्चित करें कि आप अपनी सभी खुली हुई फाइलों को सेव कर लें और सभी प्रोग्रामों को बंद कर दें । सिस्टम रिस्टोर की प्रक्रिया को बाधित नहीं किया जाना चाहिए । सभी लेखकों को यह पृष्ठ बनाने के लिए धन्यवाद दें जो ६,०८० बार पढ़ा गया है।
9c940882a32a675e4d5a3cc928469cb8160a5c5a6606babeec535c86bd7ca7c0
pdf
कि जिस प्रकार हमें सदा अपने ही देशके अनाज और हवाकी आवश्यकता है, उसी प्रकार खादीकी भी हर समय आवश्यकता है। मगर कम बिक्री होना भी एक तरहसे अच्छा ही है। बशर्ते कि यह इस बातका द्योतक हो कि इतनी बिक्री सदा ही होती रहेगी। इस भण्डार और दूसरे भण्डारोके अस्तित्वसे यह साबित होता है कि वे एक ऐसी मांगकी पूर्ति कर रहे है, जिसे लोग सचमुच महसूस करते हैं। लेकिन सालाना एक लाखसे कुछ अधिक रुपयेकी बिक्री होनेसे तो खादी कोई राजनैतिक परिणाम नहीं दिखा पायेगी। इसके लिए कई करोड़, और ठीक-ठीक कहा जाये तो सालाना ६० करोड़की बिक्री होना आवश्यक है। इसलिए, बम्बईके लोगोंको खादीका इतना अधिक उपयोग करना चाहिए कि यहाँ इस तरहके सिर्फ एक-दो भण्डार ही नही, बल्कि जिस प्रकार विदेशी वस्त्रोंके कई सौ भण्डार चलते है उसी प्रकार कई सौ खादी भण्डार चल सके चल सके । अब तो जनताके पास इस भण्डारको और ऐसे ही बहुतसे दूसरे भण्डारोंको सहारा न देने का कोई बहाना भी नहीं रह गया है, क्योकि अब उनमें सभी तरहकी विवेकसम्मत रुचियोंके अनुकूल माल बिकता है । सूचीपत्रमें कमीज - के लायक खादी, खादी मलमल, साड़ियाँ, धोतियाँ, तौलिये, रुमाल, तैयार कमीजें वनियानें, टोपियाँ, थैलियाँ, पलंगकी चहरे, शाल, परदे, ओढ़नेकी चहरे, मेजपोश, तकियागिलाफ, ब्लाउज, बच्चों और बड़ो, दोनोंके लिए जाँघिये, पाजामे इत्यादि बहुत-सी चीजें है। लेकिन इसपर टीका करनेवाले महाशय कहते है कि उनकी जरा कीमत भी तो देखिए । मैंने उनकी कीमतका भी हिसाब लगाकर देख लिया है और मेरे मनको पूरी तरह सन्तोष है कि ऊपरी तौरपर देखनेमें कीमत जहाँ कुछ अधिक मालूम होती है, वहाँ दरअसल वह अपेक्षाकृत कम है, क्योंकि आप खादीपर जो पैसा खर्च करते हैं, उससे खादी तो मिलती ही है, साथ ही उसका यह भी मतलब होता है कि आप स्वराज्यके लिए कुछ दे रहे है। यदि आपको यह विश्वास नहीं है कि खादीमें स्वराज्य प्राप्त करनेकी शक्ति है, तो आप यही समझें कि खादी खरीदकर आप कमसेकम क्षुधात स्त्रियों और पुरुषोंकी सहायता तो कुछ अशोंमें कर ही रहे हैं । यदि खादी पहननेवाले अपने कपड़े के लिए सालाना औसतन १० रुपया भी खर्च करे तो ऐसे चार खादी पहननेवाले साल भर एक क्षुषा-पीड़ित मनुष्यका पोषण तो अवश्य करते है । जिन्हें अपने देशसे प्रेम है और गरीबोंकी फिक्र है, उन्हें खादीकी इतनी शक्ति और सम्भावना देखते हुए भी क्या वह कभी महंगी लग सकती है ? २४१. रामनाम और एक 'जूना जोगी' इस प्रकार लिखते है : ' यह पत्र दो महीनेसे मेरे पास ही पड़ा हुआ है । मैंने सोचा था कि कुछ फुर्सत मिलनेपर मै उसे 'नवजीवन' के पाठकोंके सामने पेश करूंगा। आज फुर्सत मिली है अथवा यों कहिए कि मैने ही इसके लिए कुछ फुर्सतका समय निकाला है। मुझे पत्र लेखकने दोष न देखने की सलाह दी है। आज यदि मैं उनके पत्रकी टीका कर रहा हूँ तो इसका अर्थ यह नही है कि मै उसके दोषोंको हो देख रहा हूँ, लेकिन उसका हेतु तो इस पत्रको 'नवजीवन' में कही-न-कहीं स्थान देकर रामनामकी महिमा प्रकट करना है। पत्र लेखक महाशय और दूसरे लोग भी इस बातका यकीन रखें कि जो ग्रहण करने योग्य है, उसे मै अवश्य हो ग्रहण करता । मुझे यह प्रतीत होता है कि रामनामको महिमाके सन्दर्भमें मुझे अब कुछ नया सीखना वाकी नही है । क्योंकि मुझे उसका अनुभव है और इसीलिए मेरा अभिप्राय यह है कि खादी और स्वराज्यके प्रचारकी तरह रामनामका प्रचार नही हो सकता। इस कठिन कालमें रामनामका उलटा जाप होता है । अर्थात् मैने बहुत से स्थानों में केवल आडम्बरके लिए, कुछ स्थानों में अपने स्वार्थ के लिए और कुछ जगहोंमें व्यभिचार करनेके लिए इसका जाप होते हुए देखा है। यदि जाप केवल अक्षरोंको हदतक उलटा हो तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। यह हमने पढ़ा है कि शुद्ध हृदय लोगोंने उलटा जाप जपकर भी मुक्ति प्राप्त की है और इसे हम मान भी सकते है। लेकिन शुद्धोच्चारण करनेवाले पापी, पापकी पुष्टिके लिए रामनामके मन्त्रका जप करें तो हम उसे क्या कहेगे ? इसीलिए मै रामनामके प्रचारसे डरता हूँ । जो लोग यह मानते हैं कि भजन मण्डल में बैठकर रामनामकी रट लगानेसे और शोर करनेसे भूत, भविष्य और वर्तमानके सव पाप नष्ट हो जायेंगे और कुछ भी करना बाकी न रहेगा, उन्हें तो दूर हो से नमस्कार कर लेना चाहिए। उनका अनुकरण नही किया जा सकता। रामनाम जपनेकी योग्यता प्राप्त करनेके लिए मै तो प्रथम खादी प्रचार इत्यादिकी योग्यताकी ही अपेक्षा रखूंगा । रामनामके जापसे ही खादीके प्रचारके लिए वायुमण्डल तैयार होगा। आज वह मुझे कही भी दिखाई नही दे रहा है । यह बात कि विद्वानोंको ससारमें कोई भी नहीं समझा सका है, यह वे किस प्रकार लिख सकते हैं जो रामके दास है ? मुझे तो मालूम नही होता कि मुझे कोई मोह है। विद्वान् भी तो रामकी दुनियामें ही रहते है और बहुतेरे विद्वान् रामका नाम लेकर तर भी गये है। सच बात तो यह है कि विद्वानोंको बिना भक्तके और कोई नही समझा सकता । और भक्त होनेकी अभिलाषा रखनेवाला में विद्वानोंको समझानेका प्रयत्न भी कर रहा हूँ। और मुझे मोह न होने के कारण जो लोग समझते नही १. पत्र यहाँ नहीं दिया जा रहा है। रामनाम और खादी उनपर मुझे क्रोध भी नही होता है; किन्तु मुझे अपनी भक्तिमें ही न्यूनता होनेके कारण स्वय अपनेपर क्रोध होता है । और मेरे हृदयमें राम सर्वदा निवास करे इसके लिए अधिक हृदयशुद्धिकी आवश्यकता है; यह उपदेश पानेके लिए में सदा लालायित रहता हूँ और मैं अपनेको सदा यही उपदेश देता रहता हूँ । यदि भक्तिमें रस पैदा न कर सके तो यह भक्तका दोष है, श्रोताका नही । रस हो तो श्रोता उसे अवश्य ही लूटेंगे। लेकिन यदि रस ही न हो तो श्रोताओंका क्या दोष ? यदि कृष्णकी बसी गूंजती, किन्तु उसमें से कर्कश शब्द निकलता होता तो उसे सुनकर गोपियाँ भयभीत होकर भाग जाती और उससे निन्दा कृष्णकी ही होती, गोपियोंकी नही। अर्जुन बेचारा यह योड़े ही जानता था कि वह पढ़ा हुआ मूर्ख है और अपनी विद्वत्ता दिखानेमें गोलमाल कर रहा है । लेकिन कृष्णकी शुद्धताने अर्जुनको शुद्ध कर दिया और उसका मोह दूर हुआ । इसलिए जो रामनामका प्रचार करना चाहता है उसे स्वयं अपने हृदय में ही उसका प्रचार करके उसे शुद्ध कर लेना चाहिए और उसपर रामका साम्राज्य स्थापित करके उसका प्रचार करना चाहिए। फिर उसे संसार भी ग्रहण करेगा और लोग भी रामनामका जप करने लगेंगे। लेकिन जिस किसी स्थानपर रामनामका चाहे जैसा जप कराना तो पाखण्डकी वृद्धि करना और नास्तिकताके प्रवाहका वेग बढ़ाना है । एक जगह बैठनेसे मनुष्य स्थिर थोड़े ही हो सकता है। जिसका मन सदा करोड़ों योजनकी मुसाफिरी करता है और जो शरीरको बाँधकर बैठा है उसका राम भी क्या सुधार कर सकेंगे। लेकिन जो दमयन्तीकी तरह जंगल-जंगल भटकता है और पेड़ोंसे, जगलके जानवरोंसे भी अपने रामरूपी नलकी खबर पूछता रहता है, उसे भटकता हुआ कहेगे? यह क्यों न कहें कि बैठे हुएको जो भटकता देखता है और भटकते हुएको जो स्थिर देखता है वही ठीक देखता है ? कर्तव्य कर्मकी स्थापना कैसे की जा सकती है ? कर्म करनेसे ही न ? यदि ऐसा ही है तो मैं संसार जीत चुका हूँ, क्योंकि जिसे मै नही करता उसका कभी उपदेश नही देता । इस 'पुराने जोगी' के मोहकी बात मुझे पाठकोंको सुनानी होगी। यदि दूसरे लोग यह नही जानें तो यह क्षन्तव्य है; लेकिन यह 'जोगी' तो यह जानते ही है कि मेरे पास ऐसे पार्षद है ही नहीं जो सद्भावसे लिखे गये ऐसे पत्र मेरे पास शीघ्र न पहुँचा दें। यह पत्र तो मुझे फौरन ही मिल गया था, लेकिन मैं आज दो महीनेके बाद उसका उत्तर दे सका हूँ । इसमें दोष किसका है ? बेचारे गरीब निन्दापात्र बने हुए पार्षदोंका है, मेरा है, विधिका है या पत्र लिखनेवालेका ही है ? इसमें हम लोग लिखनेवालेका ही दोष मान लेगे । जो लोग मुझे घर्मसंकट में डालनेवाले ऐसे पत्र लिखते है उन्हें राह देखनी चाहिए, धीरज रखना चाहिए। उन्होंने जो समस्या मेरे सामने रखी है, वह ऐसी तो है ही नहीं कि जिस प्रकार में यह पलमें कह सकता हूँ कि मिलके सूतका बना कपड़ा खादी नही है उसी प्रकार उसका भी उत्तर दे सकूँ । ऐसे पत्रोंका उत्तर देनेसे रामनामकी महिमा घट जानेका भी डर मुझे लगा रहता है । इसलिए यह खयाल भी होता है कि इसका उत्तर ही न दें तो क्या नुकसान है ? और फिर
62113842e0be1fc4d19725acf9462cc7db48cca65e90b0275dcef139c3931680
pdf
उससे प्रचुर सुख बरस रहा है । गोरी राधा और श्याम कृष्ण अभिराम प्रेमलीला में भरपूर हैं - हितहरिवंश इस लीलागान में उन्मत्त हैं । आजु प्रभात लतामंदिर में, सुख बरषत प्रति युगलवर । गौर श्याम अभिराम रंग रंग भरे । लटकि लटकि पग धरत अवनि पर । कुच कुमकुम रंजित मालावलि । सुरत नाथ श्रीस्याम धामवर ।। प्रिया प्रेम अंक अलंकृत चित्रित, चतुर शिरोमनि निज कर ॥ दम्पति अति अनुराग मुदित कल, जै श्रीहित गान करत मन हरत परस्पर । हरिवंस प्रसंस परायन, गाइन अलि सुर देत मधुरतर । - इस युगल - प्रेम के हितवंश - रचित एक और मधुर पद में देखते हैंजोई जोई प्यारो करें सोइ सोइ मोहि भावै । भाव मोहि जोई सोई सोई करें प्यारे ॥ मोको तो भावती ठौर प्यारे के नैनन में । प्यारो भयो चाहे मेरे नैननि के तारे ॥ मेरे तो तन-मन-प्रानहुँ में प्रीतम प्रिय । अपने कोटिक प्रान प्रीतम मो सों हारे ॥ जै श्रीहित हरिवंस हंस हंसिनी सांवल गौर । करौ कौन करे जल तरंगिनि न्यारे ॥ हरिदास व्यास राधा-वल्लभ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध कवि हो गए हैं । कहा जाता है कि उन्होंने हितहरिवंश का शिष्यत्व ग्रहण किया था । इनकी कविता में देखते हैं जो व्यास जी के प्रियतम हैं; उनका परिचय "राधा-वल्लभ' हैराधा-वल्लभ मेरौ प्यारौ । दूसरी जगह उन्होंने कहा है - रसिक अनन्य हमारी जाति । कुलदेवी राधा, बरसानौ खेरौ, ब्रजवासिन सों पाँति ।। राधा-वल्लभियों की दृष्टि में वृन्दावन ही सबसे 'सच्चा - धन' है, क्योंकि यहाँ स्वयं लक्ष्मी भी श्रीराधा की चरणरेणुलीला है । - वृन्दावन साँचो धन भैया । जहँ श्रीराधा चरणरेणु की कमला लेति बलैया ॥ व्यास के एक और गीत में देखते हैंपरम धन राधे-नाम अधार । जाहि श्याम मुरली में टेरत, सुमिरत बारंबार ॥ जंत्र-मंत्र श्री वेद- तंत्र में सबै तार को तार । श्रीसुक प्रगट कियों नहि यातें जानि सार को सार ।। कोटिन रूप धरे नंद-नंदन तऊ न पायौ पार । व्यासदास अब प्रगट बखानंत डारि भार में भार ।। इस राधा-वल्लभ सम्प्रदाय में श्रीराधा ने कैसा स्थान अधिकार किया या इसका परिचय ऊपर लिखे पद से मिलेगा । प्राकृत धाम छोड़कर अप्राकृत धाम में प्रवेश करने के लिए श्रीराधा ही राधा-वल्लभगण की तरणी थीं । इसीलिए व्यास ने इस राधिका के बारे में लिखा हैलटकति फिरत जुबन-मदमाती, चंपक-बीथिन चंपक बरनी । रतनारे अनियारे लोचन, लखिकें लाजति हैं नव हरिनी ।। अंस भुजा धरि लटकत लालह, निरखि थके मदगज गति करनी । वृन्दाविपिन विनोदहि देखत, मोहीं वृन्दावन की घरनी ॥ रास - विलास करत जँह मोहन, बलि बलि धनि धनि है वह धरनी । श्रीवृषभानु नंदिनी के सम, व्यास नहीं त्रिभुवन महँ तरनी ।। कहा जाता है कि ध्रुवदास स्वप्न में हितहरिवंश के द्वारा दीक्षित हुए थे । महाभाव-रूपिणी राधा का वर्णनात्मक ध्रुवदास का लिखा एक पद हम पहले ही उद्धृत कर चुके हैं। इसी ध्रुवदास ने अपने एक दोहे में कहा है - व्रजदेवी के प्रेम को बँधी धुजा अति दूरि । ब्रह्मादिक वांछत रहें तिनके पद की धूरि ॥ (१) महाभाव सुख-सार स्वरूप इत्यादि । इस ग्रंथ के पृष्ठ पर देखिये । चंडीदास की नामांकित बंगला कविताओं और हिन्दी राधा-वल्लभ सम्प्रदाय के कवियों की कविताओं में हम राधा का यह जो प्राधान्य देखते हैं, पूर्ववर्ती काल के भारतीय शक्तिवाद के अन्दर ही इसका बीज निहित है। तंत्रादि-शास्त्रों के शिव-शक्ति के सम्बन्ध में जितनी विवेचना देखते हैं, उसे हम यूं तीन भागों में बाँट सकते हैं । प्रथम मत है, परमतत्व एक अद्वय समरस - तत्त्व है, शिव और शक्ति दोनों ही उस परमतत्त्व के मात्र हैं । द्वितीय मत है, शिव ही शक्तिमान् हैं - अतएव शक्ति के मूलाश्रय हैं, इस शक्ति प्राश्रय के शिव ही परमतत्त्व हैं । इस द्वितीय मत को जनसाधारण में अधिकतम स्वीकृति मिली है । तृतीय मत है, त्रिभुवनव्यापिनी शक्ति ही परमतत्व हैं । विश्वव्यापिनी महाशक्ति जिसके आधाभूत हुई हैं वही शिव हैं - - - शक्ति का आधारतत्त्व उनका यथार्थ शक्तिमत्त्व है । 'देवी भागवत' में हम देखते हैं ऋक् आदि श्रुतिगण ने देवी को ही परमतत्त्व कह कर कीर्तन किया है । ऋग्वेद में कहा गया हैतबयदन्तःस्थानि भूतानि यतः सर्वं प्रवर्तते । यदाहुस्तत्परं तत्त्वं साधा भगवती स्वयम् ॥ यजुर्वेद में कहा गया हैःया यज्ञैरखिलैरीशा योगेन च समिज्यते । यतः प्रमाणं हि वयः सैका भगवती स्वयम् ॥ सामवेद में कहा गया हैययदं भ्राम्यते विश्वं योगिभिर्या विचिन्त्यते । यद्भासा भासते विश्वं सैका दुर्गा जगन्मयी ॥ अथर्ववेद में कहा गया है - यां प्रपश्यन्ति देवेशों भक्त्यानुग्राहिनो जनाः । तामाहुः परमं ब्रह्म दुर्गाम् भगवतीम् मुने । श्रतीरितं निशम्येत्थं व्यासः सत्यवतीसुतः । दुर्गा भगवतीं मेने परब्रह्मेति निश्चितम् ॥. इस देवी के बारे में परवर्ती वर्णन में देखते हैं - "जो स्वीय गुण और माया के द्वारा देही परम पुरुष की देहाख्या, चिदाख्या और परिस्पन्दादिरूपा पराशक्ति है, उसकी माया से परिमोहित होकर देहधारी नरगण भेदज्ञान के कारण देहस्थिता उसी को पुरुष कहते हैं, उसी अम्बिका को नमस्कार । स्त्रीत्व, पुंस्त्व आदि उपाधियों के द्वारा अनवच्छिन्न तुम्हारा जो स्वरूप है वही ब्रह्म है; उसके बाद जगत् की सृष्टि के लिए जो सिसृक्षा पहले प्राविर्भूत हुई - वह स्वयं तुम हो - शक्ति हो । उसी शक्ति से परम पुरुषपुरुष - प्रकृति ये दोनों मूर्तियाँ भी एक पराशक्ति से समुद्भूत हुई हैं, तन्मायामय परब्रह्म भी शक्त्यात्मक है । जल से उत्पन्न करकादि को जलमय देखकर मतिमान् व्यक्तिगण जिस प्रकार ( करकादि ) सबको जल समझते उसी तरह ब्रह्म से उत्थित सबको मन ही मन शक्त्यात्मक देखकर शक्ति के अतिरिक्त ब्रह्म का स्वरूप नहीं मिलता है; ऐसे शक्तित्व से विनिश्चिता पुरुषधी - ही परम्परा - क्रम से ब्रह्म के रूप में उपस्थित होती है । इसी तरह 'शाक्त-मत-चन्द्रिका', 'ब्रह्मांडतंत्र', 'कूर्मपुराण', 'देव्यागम', 'योगिनी - तंत्र', 'नवरत्नेश्वर' आदि बहुतेरे तंत्रागमों में देवी को ही परमतत्त्व कहकर वर्णन किया गया है । ' 'ब्रह्मांडतंत्र में कहा गया है, एक ही सूर्य जिस प्रकार भिन्न-भिन्न दर्पणों के सान्निध्य में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रतिभात होता है, एक ही प्रकाश जैसे घटादिभेद से विभिन्न रूप में प्रतीत होता है, उसी तरह एक महाविद्यारूपिणी शक्ति भी बहु देवता और बहु वस्तु के रूप में केवल नाम से पृथक् पृथक् रूप से प्रतिभात होती हैं । प्रत्येक देवता शक्तिमान् है, तो शक्तिमत्व का तात्पर्य है, एक ही ( १ ) या पुसः परमस्य देहिन इह स्वीयैर्गुणैर्मायया देहाख्यापि चिदात्मिकापि च परिस्पन्दादि शक्तिः परा । तन्माया परिमोहितास्तनुभृतो यामेव देहस्थितां भेदज्ञानवशाद्वदन्ति पुरुषं तस्यै नमस्तेऽम्बिके । स्त्रीपुंस्त्वप्रमुखैरूपाधिनिचयैनं परं ब्रह्म यत् त्वत्तो या प्रथमं बभूव जगतां सृष्टौ सिसृक्षा स्वयं । सा शक्तिः परमोऽपि यच्च समभूमूर्तिद्वयं शक्तितस्तन्मायामयमेव तेन हि परं ब्रह्मापि शक्त्यात्मकम् ॥ तोयोत्थं करकादिकं जलमयं दृष्ट्वा यथा निश्चयः तोयत्वेन भवेद्ग्रहो मतिमतां तथ्यं तथैव ध्रुवम् । ब्रह्मोत्थं सकलं विलोक्य मनसा शक्त्यात्मकं ब्रह्मतच्छक्तित्वेन विनिश्चिता पुरुषधीः पारम्परा ब्राह्मणि ॥ (२) शिवधन विद्यार्ण व कृत 'तंत्र तत्त्व' प्रथम खंड में इन ग्रन्थों से उद्धरण देखिए । (३) भिद्यते सा कतिविधा सूर्यो दर्पणसन्निधौ । आकाशो भिद्यते यादृक् घटस्थादिस्तथा च सा । एकैव हि महाविद्या नाममात्रं पृथक् पृथक् ॥ सूर्य जिस प्रकार दर्पणादि में प्रतिबिम्बित होता है, उसी तरह एक ही शक्ति विभिन्न देवताओं के आधार से आधारभूता हुई हैं । पराशक्ति को इस विशेष - विशेष प्राधार में विशेष विशेष रूप से धारण की क्षमता ही सच्चा शक्तिमत्त्व है । इसीलिए शक्तिमान् का आश्रय करके शक्ति का अवस्थान नहीं, शक्ति को धारण करके ही शक्तिमान् का अवस्थान होता है । कूर्मपुराण में कहा गया है सर्ववेदान्तवेदेषु निश्चितं ब्रह्मवादिभिः । एकं सर्वगतं सूक्ष्मं कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।। अनन्तमक्षयं ब्रह्म केवलं निष्कलं परम् 1 योगिनस्तत् प्रपश्यन्ति महादेव्याः परं पदम् ॥ परात्परतरं तत्त्वं शाश्वतं शिवमच्युतम् ॥' प्रचलित पुराणादि में शक्ति प्राधान्यवाद की एक धारा का आभास नाना प्रकार से मिलता है, पद्मपुराण के अन्तर्गत पातालखंड में हम श्रीकृष्ण की उक्ति देखते हैंप्रहं च ललिता देवी राधिका या च गीयते ॥ अहं च वासुदेवाख्यो नित्यं कामकलात्मकः । सत्यं योषित् स्वरूपोऽहं योषिच्चाहं सनातनी ॥ अहं च ललिता देवी पुंरूपा कृष्णविग्रहा । रतरं नास्ति सत्यं सत्यं हि नारद । ये बातें कब की लिखी हुई हैं, इसे निश्चित रूप से नहीं बताया जा सकता । लेकिन यहाँ हम देखते हैं कि कृष्ण सचमुच ही योषित स्वरूप हैं, और ललिता देवी रूपा जो आद्याशक्ति परमतत्त्व है वही पुंरूपा होकर कृष्ण-विग्रहा हो उठती है । तो इस मत में राधा कृष्ण से उद्भूत नहीं कृष्ण ही राधा के रूपान्तर हैं । 'शक्तिसंगमतंत्र' में देखते हैंकदाचिद्वात्म ललिता पुंरूपा कृष्णविग्रहा । लोक सम्मोहनार्थाय स्वरूपं विभ्रती परा ॥ कदाचिदाद्या श्रीकाली सैव तारास्ति पार्वती । कदाचिदाद्या श्रीतारा पुरूपा रामविग्रहा ॥ (१) तंत्रतत्त्व, प्रथम खंड से उद्धृत । (२) केदारनाथ भक्तिविनोद-सम्पादित संस्करण । इसी शक्ति प्राधान्यवाद ने युगोचित विवर्तन के अन्दर से चंडीदास के नामांकित पदों में किशोरी-प्राधान्य को जन्म दिया है, राधा-वल्लभ सम्प्रदाय के अन्दर राधा-प्राधान्य का रूप लिया है । इस प्रसंग में यह भी स्मरण किया जा सकता है कि 'राधास्वामी' सम्प्रदाय के प्रवर्तक साधक शिवदयाल (जन्म १८२८ ई० ) का जपमंत्र था 'राधास्वामी' । इसके बारे में कहा गया है - "सत्गुरु कबीर ने अगम की धारा को दिखा दिया है, अगम की धारा को उलटकर स्वामी के साथ मिलाकर स्मरण करो ।" अगम की 'धारा' अर्थात् अगम के शक्ति प्रवाह को उलटने पर 'राधा' होता है, उस अगम की शक्ति धारा को उलटने पर परम इष्ट 'राधा स्वामी' मिलेगा । १. सतवाणी संग्रह । चतुर्दश अध्याय वल्लभ-सम्प्रदाय के हिन्दी साहित्य में राधा हम ऊपर विविध प्रसंगों में श्रीराधा के बारे में जितना विवेचन कर आए हैं उस पर एकत्र विचार करने पर बंगला-साहित्य में वर्णित राधा के बारे में कुल मिलाकर एक धारणा होगी । ग्रंथ के परिशिष्ट में दिये गए विवेचन में इस प्रसंग की कुछ बातों पर विचार करेंगे। हम पहले जो कुछ देख आए हैं उसके आधार पर कहा जाता है कि पहले प्रधानतः साहित्य का अवलम्बन करके ही श्रीराधा का विकास हुआ है; उसके साथ परोक्षभाव से धर्म के सम्बन्धित होने पर भी वहाँ धर्म का कोई स्पष्ट स्फुरण नहीं है । साहित्य-धारा के अन्दर से क्रमविकसित श्रीराधा ही क्रमशः अपने विभिन्न कविवणित मानवीदेह के परिमंडल में विचित्र रम्य धर्मविश्वास और दार्शनिक तत्त्व का वर्णशाबल्य ग्रहण करने लगीं और इसी के अन्दर से प्रेम-धर्म की केन्द्रबिन्दु राधा दिन - दिन 'कान्ताशिरोमणि के रूप म परिपूर्णता प्राप्त करने लगीं । चैतन्ययुग में ही 'कान्ताशिरोमणि' के रूप में श्रीराधा की पूर्ण परिणति हुई । राधा के बारे में पहले विचार करते हुए हमने लिखा है कि भारतीय प्रेमिक कवि-मानस में परिपूर्ण नारी सौन्दर्य और परिपूर्ण नारी-प्रेम-माधुर्य के अवलम्बन से जिस अपरूप मानस प्रतिमा का सृजन हुआ था, राधा के अन्दर उसी की सुकुमार किन्तु सुनिपुण अभिव्यक्ति दिखाई पड़ती है । वृन्दावन की पृष्ठभूमि में साहित्य के अन्दर वह और भी उज्ज्वल और महिमान्वित हो उठी है । चैतन्ययुग और चैतन्योत्तर युग में राधा के अन्दर प्राकृत और प्राकृत का एक अपूर्व मिलन हुआ है । इससे केवल रस में स्वाद की ही विचित्रता नहीं हुई है, उद्गति के अन्दर से यहाँ रस के स्वरूप के अन्दर भी विविध विचित्र परिवर्तन हुए हैं । लेकिन इन युगों में भी च हे 'काम-क्रीड़ा-साम्य ही हो या वास्तव आलम्बन के रूप में ही हो, प्राकृत में ही राधा की प्रतिष्ठा है, क्षण-क्षण पर अप्राकृत के स्पर्श से उनकी असीम महिमा का विस्तार होता है । चैतन्ययुग में और चैतन्य के परवर्ती युग में अनेक कवियों ने प्रत्यक्ष रूप से वैष्णव धर्म से अनुप्राणित होकर राधाप्रेम के सम्बन्ध में कविताएँ लिखी हैं । संस्कृत और प्राकृत वैष्णव कविता के बाद पहले पहल भारतीय देशजभाषा में ही राधा-कृष्ण की प्रेम सम्बन्धी वैष्णव} कविता पन्द्रहवीं सदी के ( चौदहवीं ? ) मैथिली के कवि विद्यापति और ) बंगला के कवि चंडीदास की रचना में पाते हैं । हमने पहले ही विविध प्रसंगों में आभास देने की चेष्टा की है कि विद्यापति एक विदग्ध रसिक कवि थे । धर्ममत में वे वैष्णव थे या नहीं, इस विषय में संदेह करने के काफी तर्क संगत कारण हैं। शक्तिशास्त्र में विद्यापति का ज्ञान प्रगाढ़ में सूक्ष्म था । विद्यापति - रचित सखीशिक्षा के पदों से पता चलता कि कवि रति-रहस्य में कितने डूबे हुए थे । चंडीदास के बारे में कहना पड़ेगा कि अगर 'श्रीकृष्ण-कीर्तन' को ही आदि कृत्रिम' चंडीदास की सच्ची रचना मान लें तो कहना पड़ेगा कि वहाँ राधा केवल मानवीय प्रेम की ही मूर्ति नहीं हैं, मानवीय प्रेम में भी जो एक स्थूल मार्जित 'धमार' उपादान है, 'श्रीकृष्ण कीर्तन' की राधा के बहुलांश के अन्दर वही धमार मूर्तिमान् हो उठा है । विरह के स्तर पर आकर ही उसमें सूक्ष्मता आई है । हम पहले देखा हैं कि राधा के बारे में जो दो- एक श्लोक पुराणों में मिलते हैं वे संदिग्ध हैं। लेकिन उन्हें सच्चा मान लेने पर भी राधा का अवलम्बन करके छोटे-बड़े अनगिनत उपाख्यानों में प्रेमलीला का जो विस्तार हुआ है, पुराणादि में उसका उल्लेख नहीं है । केवल ब्रह्मवैवर्तपुराण के अर्वाचीन संस्करण में कुछ-कुछ मिलता है, राधाकृष्ण की लीला की समृद्धि को देखते हुए वह भी बिलकुल नगण्य मालूम पड़ता है । राधा की बात छोड़ देने पर भी गोपियों के साथ कृष्ण की वृन्दावन लीला का पुराणादि में अधिक विस्तार नहीं मिलता है । गोपी कृष्ण लीला की सबसे अधिक समृद्धि भागवत पुराण में हुई है । इस भागवत पुराण में और कुछ दूसरे पुराणों में गोपी कृष्ण लीला के अन्दर रास लीला सबसे उत्तम लीला के रूप में प्रसिद्ध हुई है । रास-लीला में ही भगवान् के माधुर्य रस का सम्यक् विकास हुआ है । इस रास लीला का प्रभाव जयदेव से लेकर सभी वैष्णव कवियों पर थोड़ा बहुत पड़ा है। भागवत पुराण में इस रास लीला के अलावा दूसरी गोपी-लीलाओं में दशम स्कन्ध के इक्कीसवें अध्याय में (१) अष्टछाप के हिन्दी वैष्णवगण के गानों में भी 'धमार' या 'धामारि' शब्द का उल्लेख मिलता है। प्रायः 'होरी' के प्रसंग में ही इस शब्द का प्रयोग दिखाई पड़ता है। भारत के विभिन्न अंचलों में आजतक होली के साथ अत्यन्त निम्नरुचि के नाच-गानों के साथ जिन प्रेम-गाथाओं का प्रचलन है उसी से 'धमार' या 'धामालि' शब्द का तात्पर्य समझ में शरत् ऋतु में वृन्दावन में, श्रीकृष्ण की वंशी की ध्वनि सुनकर गोपियों की विह्वलता और व्याकुल चेष्टाएँ सभी विशेष रूप से उल्लेख योग्य हैं । इस विश्वमोहिनी सर्वाकर्षक वंशी की ध्वनि से केवल गोपियाँ ही नहीं, वन के पशु-पक्षी, तरुलता, यहाँ तक कि नदियाँ व्याकुल हो उठी थीं । इस वंशी - ध्वनि का प्रभाव परवर्ती काल के सभी वैष्णव कवियों पर पड़ा है । भागवत के दसवें स्कन्ध के बाईसवें अध्याय में हम व्रजकुमारियों का नन्दगोपसुत कृष्ण को पति के रूप में पाने की कामना से कात्यायनी की पूजा करते देखते हैं और इसी के साथ गोपियों के चीर-हरण की लीला का वर्णन पाते हैं । इसके बाद हम गोपियों को रास-पंचाध्यायी में देखते । इस रास- वर्णन के अंत में संक्षेप में गोपियों के साथ कृष्ण के जलविहार और वन-विहार का वर्णन पाते हैं । इस दशवें स्कन्ध के पैंतीसवें अध्याय में देखते हैं कि दिन को कृष्ण के गाय चराने चले जाने के बाद (१) वृन्दावनं सखि भुवो वितनोति कत्ति यद्देवकी सुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मी । गोविन्दवेणुमनु मत्तमयूरनृत्यं प्रेक्ष्याद्रिसान्त्वपरतान्यसमस्तसत्वम् ।। धन्याः स्म मूढ़मतयोऽपि हरिण्य एता या नन्दनन्दनमुपात्तविचित्रवेषम् । आकर्ण्य वेणुरणितं सहकृष्णसाराः पूजां दधुविरचितां प्रणयावलोकैः ॥ + + गावश्च कृष्णमुखनिर्गत वेणुगीतपीयूषमुत्तम्भितकर्णपुटैः पिवन्त्यः । शावाः स्तुतस्तनपयः कबलाः स्म तस्थुर्गोविन्दमात्मनि दृशाश्रुकलाः स्पृशन्त्यः ॥ प्रायो बताम्ब विहगा मुनयो वनेऽस्मिन् कृष्णेक्षितं तदुदितं कलवेणुगीतम् । ये द्रुमभुजान् रुचिरप्रबालान् शृण्वन्त्यमीलितदृशो विगतान्यवाचः ॥ नद्यस्तदा तदुपधार्य मुकुन्दगीतमावर्तलक्षितमनोभवभग्नवेगाः । आलिङ्गनस्थगितमूमिभुजैर्मुरारेगृह्णन्ति पादयुगलं कमलोपहाराः ॥ गोपियाँ दिन भर कृष्ण लीला का अनुकरण कर कृष्ण के प्रेम में कृष्ण के ध्यान में अपने को डुबाए रहती थीं। इसके बाद कृष्ण को अक्रूर के साथ वृन्दावन छोड़ते पाते हैं और उसी प्रसंग में गोपियों की व्यथा देखते हैं । इसके बाद गोपियों के प्रति उद्धवसंदेश पाते हैं । संक्षेप में यही भागवत - वर्णित गोपीलीला है । हिन्दी के वैष्णव कवियों ने ( हम प्रधानतः वल्लभ-सम्प्रदाय के अष्टछाप के वैष्णव कवियों की बात ही लिख रहे हैं ) मुख्यतः इस भागवतवर्णित लीला का ही अनुसरण किया है । लेकिन बंगाल में हम राधाकृष्ण की लीला को लेकर निरन्तर लीला - विस्तार देखते हैं । इस लीलाउपाख्यान की उत्पत्ति और विस्तार शुरू से ही कवि-कल्पना में ही हुआ है । हरेक युग की कवि- कल्पना का अवलम्बन करके लीला-उपाख्यान नित्यनूतन शाखा - प्रशाखाएँ फैला रहा है । व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो मनुष्य के एक ही प्रेम को नित्य नूतन अवस्थान के अन्दर से हम नूतन बना लेते हैं । सभी वैष्णव कवियों को एक राधाकृष्ण के प्रेम को लेकर कविता लिखनी पड़ी है । इसी एक राधाकृष्ण प्रेम को विचित्र न बना पाने पर उसके आधार पर निन्य- नूतन काव्य-कविता रचना संभव नहीं है । इसीलिए भिन्न-भिन्न युगों में कवियों को राधा-कृष्ण के प्रेम को लेकर देशोचित और युगोचित विचित्र अवस्थान तैयार करना पड़ा है । इसीलिए राधाकृष्ण - साहित्य पर ऐतिहासिक क्रम से विचार करने पर पता चलेगा कि जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे लीला का विस्तार होता गया है । जयदेव की पूर्ववर्ती राधाकृष्णपरक कविता में विविध लीला का आभास मिलता । लेकिन जयदेव ने अपने गीतगोविन्द में राधाकृष्ण लीला को अपनी नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा से बहुत कुछ विस्तृत कर लिया । जयदेव में हमें जो लीला मिलती है, विद्यापति, चंडीदास में वही विचित्र ढंग से पल्लवित हो उठी है । प्रचलित चंडीदास-पदावली में हम देखते हैं कि राधा को लेकर भार- लीला, नौका- लीला, दान-लीला आदि को लेकर ही कवि सुखी नहीं हुए हैं, कवियों को मिलन और विरह के और भी अगणित 'व्यपदेशों' ( उद्देश्य ) का सृजन करना पड़ा है। राधा से मिलन के वैचित्र्य के लिए कृष्ण को क्या नहीं करना पड़ा ? उन्हें सँपेरा बनकर साँप की झाँपी सिरपर उठानी पड़ी, दूकानदार बनकर घूमना पड़ा, जादूगर बनकर न जाने कितने प्रकार के खेल दिखाने पड़े। इतना ही नहीं, कृष्ण को आवश्यकतानुसार मालिन, नाइन, फेरीवाली, भक्तिन, चिकित्सक, ज्योतिषी, सब कुछ बनना पड़ा । गोविन्ददास के एक प्रसिद्ध पद में देखते हैं कि कृष्ण को गोरखयोगी का वेष धारण कर सिंगा बजाकर राधा को मनाना पड़ा है । हिन्दी वैष्णव - साहित्य, विशेष करके वल्लभ-सम्प्रदाय के अष्टछाप के कवियों की राधा पर विचार करते हुए बंगला के वैष्णव-साहित्य के बारे में इतनी बातें लिखने का एक विशेष प्रयोजन है । इस लीला - विस्तार की दृष्टि से हिन्दी और बंगला में एक पार्थक्य है, उस पार्थक्य की ओर दृष्टि आकर्षित करने के लिए ही बंगला के वैष्णव-साहित्य की प्रकृति के बारे में ऊपर विशेष रूप से विचार करना पड़ा । बंगाल की वैष्णव कविता के अन्दर राधाकृष्ण लीला के जितने उपाख्यान - प्राचुर्य और वैचित्र्य हैं, हिन्दी वैष्णव- कविता के अन्दर हमें वह बात नहीं दिखाई पड़ती । इसका मुख्य कारण यह है कि जिन्होंने हिन्दी वैष्णव - कविता की रचना की वे अधिकांश में वल्लभाचार्य - सम्प्रदाय के थे । कहा जाता है कि कोई निम्बाकचार्य के सम्प्रदाय के भी थे । इन दोनों सम्प्रदायों के अन्दर कृष्ण के साथ राधा को भी ग्रहण किया गया है सही में, और युगल उपासना की बात कही गई है । मगर बंगाल के चैतन्य - सम्प्रदाय के अन्दर इस युगल उपासना और उसके साथ लीलावाद को जिस प्रकार सभी साध्य-साधनों के मूलीभूत तत्त्व के रूप में ग्रहण किया गया है, निम्बार्क सम्प्रदाय या वल्लभ-सम्प्रदाय में लीलावाद की इतनी प्रधानता हम नहीं देखते हैं। वहाँ कृष्ण की लीला पर जितना जोर दिया गया है वह सब कुछ कान्ता प्रेम पर नहीं है, - शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य आदि पर भी समभाव से जोर दिया गया है । हिन्दी के कवियों में राधावल्लभ सम्प्रदाय के कवियों के अलावा के कवियों की प्रायः समसामयिक उल्लेखयोग्य वैष्णव कवि हैं, मीराबाई । मीराबाई के बारे में जो किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं, उनसे पता चलता है कि वृन्दावनवासी किसी-किसी गौड़ीय गोस्वामी ( रूपगोस्वामी या जीवगोस्वामी ? ) से उनका साक्षात्कार और वैष्णव-तत्त्व के सम्बन्ध में भावों का आदानप्रदान हुआ था । लेकिन मीराबाई की कविता और उसके अन्दर से जिस प्रेमधर्म की अभिव्यक्ति हम देखते हैं वह गौड़ीय वैष्णव धर्म की भाँति किसी अप्राकृत वृन्दावन के युगल लीलावाद पर प्रतिष्ठित नहीं है। मीराबाई किसी सम्प्रदायविशेष के अन्तर्भुक्त भक्त या कवि थीं, ऐसा नहीं प्रतीत होता । उन्होंने स्वतंत्र वनविहगी की भाँति ही 'म' का गान गाया है। मीराबाई के नाम से जितने गाने प्रचलित हैं उनमें राधा का उल्लेख बहुत ही कम है। केवल दो-एक पदों में राधा का उल्लेख मिलता है - दो-एक पदों में राधा का आभास है । जहाँ राधा का उल्लेख मिलता भी है वहाँ भी राधाकृष्ण लीला के आस्वादन का कोई प्रश्न ही नहीं MILIEW Quo